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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 745
ऋषिः - शुनःशेप आजीगर्तिः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
51
आ꣡ घा꣢ गम꣣द्य꣢दि꣣ श्र꣡व꣢त्सह꣣स्रि꣡णी꣢भिरू꣣ति꣡भिः꣢ । वा꣡जे꣢भि꣣रु꣡प꣢ नो꣣ ह꣡व꣢म् ॥७४५॥
स्वर सहित पद पाठआ । घ꣣ । गमत् । य꣡दि꣢꣯ । श्र꣡व꣢꣯त् । स꣣हस्री꣡णी꣢भिः । ऊ꣣ति꣡भिः꣢ । वा꣡जे꣢꣯भिः । उ꣡प꣢꣯ । नः꣣ । ह꣡वम्꣢꣯ ॥७४५॥
स्वर रहित मन्त्र
आ घा गमद्यदि श्रवत्सहस्रिणीभिरूतिभिः । वाजेभिरुप नो हवम् ॥७४५॥
स्वर रहित पद पाठ
आ । घ । गमत् । यदि । श्रवत् । सहस्रीणीभिः । ऊतिभिः । वाजेभिः । उप । नः । हवम् ॥७४५॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 745
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 11; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 3; सूक्त » 3; मन्त्र » 3
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 11; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 3; सूक्त » 3; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
आगे पुनः उसी विषय का वर्णन है।
पदार्थ
प्रथम—परमेश्वर के पक्ष में। (इन्द्र) जगदीश्वर (यदि) यदि (श्रवत्) हमारी पुकार को सुन ले, तो वह (घ) अवश्य ही (सहस्रिणीभिः) हजारों (ऊतिभिः) रक्षाओं के साथ और (वाजेभिः) बलों तथा ऐश्वर्यों के साथ (नः) हमारी (हवम्) पुकार पर (उप आ गमत्) हमारे समीप आ जाए ॥ द्वितीय—गुरु-शिष्य के पक्ष में। (यदि) यदि, यह विद्यार्थी (श्रवत्) गुरु-मुख से शास्त्रों को सुन चुकेगा, तो (सहस्रिणीभिः) सहस्रों (ऊतिभिः) विद्याजन्य तृप्तियों तथा (वाजेभिः) आत्मबलों के साथ (नः) हम नागरिकों के (हवम्) उत्सव आदि समारोह में (घ) निश्चय ही (उप आ गमत्) आयेगा और अपने विद्वत्तापूर्ण विचारों से हमें कृतार्थ करेगा ॥३॥
भावार्थ
हृदय से निकली हुई पुकार को जगदीश्वर अवश्य सुनता है। सुयोग्य गुरुओं के सान्निध्य में गुरुकुल में निवास करनेवाले विद्यार्थी विद्वान् होकर समावर्तन संस्कार के पश्चात् जब बाहर आयें, तब सबको उपदेश देकर श्रेष्ठ मार्ग में प्रवृत्त करें ॥३॥
पदार्थ
(नः-हवं यदि श्रवत्) हमारे नम्र स्तुतिवचन या आमन्त्रण को वह इन्द्र—परमात्मा यदि सुने—स्वीकार करे तो (घ) निश्चय—अवश्य (सहस्रिणीभिः-ऊतिभिः) आयुष्मती—दीर्घ जीवन देनेवाली रक्षा पद्धतियों के साथ “आयुर्वें सहस्रम्” [तै॰ १.८.१५] (आगमत्) आ जावे तथा (वाजेभिः-उप) अमृत अन्न भोगों के द्वारा उपकृत करे।
भावार्थ
उपासक नम्र स्तुतिवचन या आमन्त्रण परमात्मा के प्रति करे तो परमात्मा उसे अवश्य सुन—स्वीकार कर दीर्घ जीवन देने वाली रक्षा विधियों के साथ उसके हृदय में प्राप्त होता है साक्षात् होता है तथा उस उपासक को अमृत भोगों से भी उपकृत कर देता है॥३॥
विशेष
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विषय
वासनाओं के शिकार न हो जाएँ
पदार्थ
मनुष्य प्रभु को पुकारता है और यदि उसकी पुकार सुनी जाती है तो उसे सहायता भी प्राप्त होती है, परन्तु मनुष्य की पुकार सदा तो नहीं सुनी जाती । मन्त्र का 'यदि' शब्द इस भावना को सुव्यक्त कर रहा है। पुकार कब सुनी जाती है ? इस प्रश्न का उत्तर भी मन्त्र का ‘वाजेभि:' शब्द दे रहा है। ‘वज गतौ' धातु से यह शब्द बना है । गतिशीलता होने पर ही हम पुकार को सुनाने के अधिकारी बनते हैं। हम केवल प्रार्थना करें और प्रयत्न कुछ न करें तो वह प्रार्थना निष्फल ही है, अत: मन्त्र में कहते हैं कि (वाजेभिः) = क्रियाशीलता के द्वारा (नः हवम्) = हमारी पुकार को (यदि) = यदि वे प्रभु श्(रवत्) = सुनते हैं तो (सहस्त्रिणीभिः ऊतिभिः) = शतश: संरक्षणों के साथ (घ) = निश्चय से (उप आगमत्) = हमें अवश्य प्राप्त होते हैं ।
, हमारी पुकार सुनी तभी जाएगी जब हम भरपूर पुरुषार्थ करेंगे [वाजेभिः] । प्रभु (‘न ऋते श्रान्तस्य सख्याय देवाः') = श्रम के बिना मित्रता के लिए नहीं होते । जब श्रम के उपरान्त हमारे सहायक हो जाते हैं तब वासनाओं के साथ संग्राम में हमारा पराजय नहीं होता, अपितु हम प्रभु के शतशः रक्षणों से सुरक्षित होते हैं ।
भावार्थ
श्रमशीलता से हम प्रभु प्रार्थना के अधिकारी बनें ।
भावार्थ
भा० = (३) ( यदि ) = यदि वह परमेश्वर ( नः ) = हमारी ( हवम् ) = स्तुति को ( श्रवत् ) = सुनले तो वह ( सहस्रिणीभः ) = सहस्रों बलशालिनी ( ऊतिभिः ) = रक्षा करनेहारी शक्तियों से और ( वाजेभिः ) = सहस्त्रों सत्य ज्ञानों के सहित ( उ आगमत् घ ) = साक्षात् प्रकट ही होजावे ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः - शुन:शेप:। देवता - इन्द्र:। छन्द: - गायत्री। स्वरः - षड्ज: ।
संस्कृत (1)
विषयः
अथ पुनरपि तमेव विषयमाह।
पदार्थः
प्रथमः—परमेश्वरपरः। इन्द्रो जगदीश्वरः (यदि) चेत् (श्रवत्) अस्मदीयम् आह्वानं शृणुयात्, तर्हि सः (घ) अवश्यमेव (सहस्रिणीभिः) सहस्रसंख्याकाभिः (ऊतिभिः) रक्षाभिः (वाजेभिः) बलैः ऐश्वर्यैश्च सह (नः) अस्माकम् (हवम्) आह्वानम् (उप आगमत्) उपागच्छेत् ॥ द्वितीयः—गुरुशिष्यपरः। (यदि) एष विद्यार्थी चेत् (श्रवत्) गुरुमुखात् शास्त्राणि श्रोष्यति, तदा (सहस्रिणीभिः) सहस्रसंख्याकाभिः (ऊतिभिः) विद्यातृप्तिभिः। [अव रक्षणगतिकान्तिप्रीतितृप्त्यादिषु, क्तिनि रूपम्।] (वाजेभिः) आत्मबलैश्च सह (नः) नागरिकाणाम् अस्माकम् (हवम्) उत्सवादिसमारोहम् (घ) निश्चयेन (उप आ गमत्) उपागमिष्यति, स्वकीयैर्विद्वत्तापूर्णैर्विचारैश्चास्मान् कृतार्थयिष्यति। [श्रु श्रवणे, गम्लृ गतौ। लेटि प्रथमैकवचने श्रवत्, गमत् इति] ॥३॥२
भावार्थः
हार्दिकमाह्वानं जगदीश्वरोऽवश्यमेव शृणोति। सुयोग्यानां गुरूणां सान्निध्ये गुरुकुले वसन्तो विद्यार्थिनो विद्वांसो भूत्वा समावर्तनानन्तरं यदा बहिरागच्छेयुस्तदा सर्वानुपदिश्य सन्मार्गे प्रवर्तयेयुः ॥३॥
टिप्पणीः
१. ऋ० १।३०।८, अथ० २०।२६।२। २. ऋग्भाष्ये दयानन्दर्षिर्मन्त्रमिमं सभासेनाध्यक्षपक्षे व्याख्यातवान्।
इंग्लिश (2)
Meaning
If God will hear our call. He will come with succour of a thousand kinds, and with riches.
Meaning
If Indra hears our call, let Him come, we pray, with a thousand ways of protection and progress of prosperity and well-being. (Rg. 1-30-8)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (नः हवं यदि श्रवत्) અમારા નમ્ર સ્તુતિ વચન અર્થાત્ આમંત્રણને તે ઇન્દ્ર-પરમાત્મા જો સાંભળે-સ્વીકાર કરે, તો (घ) નિશ્ચય-અવશ્ય (सहस्रिणीभिः ऊतिभिः) આયુષ્યમતી-દીર્ઘ જીવન આપનારી રક્ષા પદ્ધતિઓની સાથે (आगमत्) આવી જાય તથા (वाजेभिः उप) અમૃત અન્ન ભોગો દ્વારા ઉપકૃત કરે. (૩)
भावार्थ
ભાવાર્થ : જો ઉપાસક પરમાત્માની નમ્ર સ્તુતિ અથવા આમંત્રણ કરે, તો પરમાત્મા તેને અવશ્યસાંભળી-સ્વીકાર કરીને દીર્ઘ જીવન આપનારી રક્ષા વિધિઓની સાથે તેના હૃદયમાં પ્રાપ્ત થાય છે-સાક્ષાત્ થાય છે; તેમજ એ ઉપાસકને અમૃત ભોગોથી પણ ઉપકૃત કરી દે છે. (૩)
मराठी (2)
भावार्थ
हृदयापासून निघालेली आर्त हाक तो जगदीश्वर अवश्य ऐकतो. सुयोग्य गुरूंच्या सान्निध्यात गुरूकुलमध्ये निवास करणारे विद्यार्थी विद्वान बनून समावर्तन संस्कारानंतर जेव्हा बाहेर येतात तेव्हा सर्वांना उपदेश देऊन श्रेष्ठ मार्गाकडे जाण्यास प्रवृत्त करावे. ॥३॥
विषय
पुढे त्याच विषयाविषयी सांगत आहेत.
शब्दार्थ
प्रथम अर्थ (परमेश्वरपक्षी) त्या इन्द्र परमेश्वराने (सदि) जर (श्रवत्) आमचे आवाहन अथवा प्रार्थना ऐकली, तर त्याने (घ) अवश्यमेव (सहस्रिणिभि:) आपल्या हजारो (ऊतिभि:) रक्षण उपायांसह आणि (वाजेभि) त्याच्या शक्ती सामर्थ्यासह (न:) आमची (हवम्) हाक ऐकून (उप आ गमत्) आमच्याजवळ यावे (अशी आमची दृढ कामना आहे.) द्वितीय अर्थ : (गुरू शिष्याविषयी) - (य दि) जर या शिष्याने (श्रवत्) गुरु मुखातून शास्त्र ऐकले असतील (अर्थात) जर तो परिपूर्ण शिष्य झाला असेल तर तो हजारो विद्येमुळे प्राप्त समाधानासह तसेच (वाजेभि:) आत्मशक्तीसह (वा) आम्हा नागरिकांच्या (हवम्) उत्सव आदी समारंभामध्ये आम्ही दिलेल्या निमंत्रणाचा स्वीकार करून निश्चयाने (उप आ गमत्) आमच्याकडे येईल आणि आपल्या विद्वत्ताप्रचुर विचार ऐकवून आम्हाला कृतार्थ करील ।।३।।
भावार्थ
उपासकाच्या हृदयातून निघालेली हाक तो जगदीश्वर अवश्य ऐकतो. तसेच सुयोग्य आचार्याजवळ राहून गुरुकुलात राहून ज्या शिष्यांनी उत्तम ज्ञान संपादित केले असेल त्यांनी समावर्तय संस्कारानंतर म्हणजे शिक्षण पूर्ण करून आचार्यकुलातून बाहेर समाजात आल्यानंतर सर्व लोकांना उपदेशाद्वारे श्रेष्ठ मार्गाकडे जाण्यासाठी प्रवृत्त करावे ।।३।।
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