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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 762
    ऋषिः - अहमीयुराङ्गिरसः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
    18

    उ꣢पो꣣ षु꣢ जा꣣त꣢म꣣प्तु꣢रं꣣ गोभिर्भङ्गं परिष्कृतम् । इन्दुं देवा अयासिषुः ॥७६२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ꣡प꣢꣯ । उ꣣ । सु꣢ । जा꣣त꣢म् । अ꣣प्तु꣡र꣢म् । गो꣡भिः꣢꣯ । भ꣣ङ्ग꣢म् । प꣡रि꣢꣯ष्कृतम् । प꣡रि꣢꣯ । कृ꣣तम् । इ꣡न्दु꣢꣯म् । दे꣣वाः꣢ । अ꣣यासिषुः ॥७६२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उपो षु जातमप्तुरं गोभिर्भङ्गं परिष्कृतम् । इन्दुं देवा अयासिषुः ॥७६२॥


    स्वर रहित पद पाठ

    उप । उ । सु । जातम् । अप्तुरम् । गोभिः । भङ्गम् । परिष्कृतम् । परि । कृतम् । इन्दुम् । देवाः । अयासिषुः ॥७६२॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 762
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 18; मन्त्र » 2
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 5; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    द्वितीय ऋचा पूर्वार्चिक में क्रमाङ्क ४८७ पर परमेश्वर के विषय में व्याख्यात हो चुकी है। यहाँ जीवात्मा और राजा का विषय वर्णित करते हैं।

    पदार्थ

    प्रथम—जीवात्मा के पक्ष में। (सुजातम्) सुप्रसिद्ध, (अप्तुरम्) कर्म में त्वरा करनेवाले, कर्मशूर, (भङ्गम्) शत्रु, विपत्ति आदि के भञ्जक, (गोभिः परिष्कृतम्) वाणियों तथा इन्द्रियों से सुसज्जित (इन्दुम्) दीप्तिमान् जीवात्मा को (देवाः) मन, बुद्धि, प्राण, इन्द्रिय आदि देव, बलप्राप्ति के लिए (उप उ अयासिषुः) समीपता से प्राप्त करते हैं ॥ द्वितीय—राजा के पक्ष में। (सु जातम्) भली-भाँति प्रजाओं के बीच से चुनकर बने हुए, (अप्तुरम्) कर्मयोगी, (भङ्गम्) शत्रुओं के भञ्जक, (गोभिः परिष्कृतम्) भूमियों से परिष्कृत अर्थात् परिष्कृत भूमियोंवाले (इन्दुम्) तेजस्वी तथा मधुर स्वभाववाले राजा को (देवाः) दिव्यगुणोंवाले प्रजाजन (उप उ अयासिषुः) निकटता से प्राप्त करते हैं ॥२॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। विशेषणों से साभिप्राय होने से परिकर अलङ्कार भी है ॥२॥

    भावार्थ

    जैसे देह में स्थित मन, बुद्धि आदि जीवात्मा से ही बल पाते हैं, वैसे ही प्रजाजन वीर राजा से बलवान् बनते हैं ॥२॥

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    टिप्पणी

    (देखो अर्थव्याख्या मन्त्र संख्या ४८७)

    विशेष

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    विषय

    अमहीयुः आंगिरसः

    पदार्थ

    (अमहीयुः) = वह है ओ मही, अर्थात् पार्थिव भोगों की कामना नहीं करता, अतएव आङ्गिरसः=अङ्ग-प्रत्यङ्ग में शक्तिसम्पन्न है। इस व्यक्ति का चित्रण निम्न शब्दों में हुआ है१. (उप उ सुजातम्) = माता-पिता, आचार्य, अतिथि व प्रभु की समीपता में रहकर जिसका सुन्दर विकास हुआ है । इनसे दूर होने पर ही मनुष्य ह्रास की ओर जाया करता है और किसी-नकिसी पार्थिव भोग का शिकार हो जाता है । २. (अप् तुरम्) = यह कामों को त्वरा से करता है । इसके माता-पिता व आचार्यों ने इसे कर्मशीलता का ही उपदेश दिया है। सदा कर्मों में व्याप्त रहना ही अवनति से बचने का मार्ग भी तो है । ३. (गोभि-भङ्गम्) = वेदवाणियों के द्वारा यह वासनाओं का पराजय करता है [भङ्ग=पराजय] । विद्याव्यसन अन्य सब व्यसनों का निवर्तक हो जाता है । ४. (परिष्कृतम्) = इसका जीवन पवित्र व निर्मल होता है। व्यसन ही मल थे, उन्हें इसने दूर भगा दिया है।५. (इन्दुम्) = अपने जीवन को निर्मल व निर्व्यसन बनाकर यह शक्तिशाली बन गया है । इस अमहीयु को (देवा:) = सब दिव्य गुण (अयासिषु) = प्राप्त होते हैं । इसमें दिव्यता का अवतार होता है ।

    भावार्थ

    अमहीयु के जीवन की पाँचों बातों को अपने जीवन में लाकर हम दिव्यता को प्राप्त करें ।

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    विषय

    "Missing"

    भावार्थ

    भा० = (२) व्याख्या देखो अवि० सं० [४८७ ] पृ० २४३ ।

    टिप्पणी

    ७६२ – ‘अपां नयन्त्यूमेयः' इति ऋ० ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः - असित: काश्यपो अमहीयुर्वा । देवता -सोम:। छन्द: - गायत्री। स्वरः - षड्ज:।

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    द्वितीया ऋक् पूर्वार्चिके ४८७ क्रमाङ्के परमेश्वरविषये व्याख्याता। अत्र जीवात्मविषयं नृपतिविषयं चाह।

    पदार्थः

    प्रथमः—जीवात्मपक्षे। (सु जातम्) सुख्यातम्, (अप्तुरम्) अप्सु कर्मसु तुरः सत्वरः तम् कर्मशूरम्, (भङ्गम्) शत्रुविपदादिभञ्जकम्, (गोभिः परिष्कृतम्) वाग्भिः इन्द्रियैश्च सुसज्जितम् (इन्दुम्) दीप्तिमन्तं जीवात्मानम् (देवाः) मनोबुद्धिप्राणेन्द्रियादयः (उप उ अयासिषुः) बलप्राप्त्यर्थम् उपगच्छन्ति ॥ द्वितीयः—नृपतिपक्षे। (सु जातम्) सम्यक् प्रजामध्याद् निर्वाचितम्, (अप्तुरम्) कर्मयोगिनम्, (भङ्गम्) शत्रूणां भञ्जकम्, (गोभिः परिष्कृतम्) भूमिभिः परिष्कृतम्, परिष्कृतभूमिकमित्यर्थः (इन्दुम्) तेजस्विनं मधुरस्वभावं च राजानम् (देवाः) दिव्यगुणयुक्ताः प्रजाजनाः (उप उ अयासिषुः) उप प्राप्नुवन्ति ॥२॥ अत्र श्लेषालङ्कारः विशेषणानां साभिप्रायत्वात् परिकरश्च ॥२॥

    भावार्थः

    यदा देहस्था मनोबुद्ध्यादयो जीवात्मनः सकाशादेव बलं लभन्ते तथा प्रजाजना वीरेण नृपतिना बलवन्तो जायन्ते ॥२॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ९।६१।१३, साम० ४८७।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    The forces of nature like air and sun approach with their rays, Soma, well-purified, squeezed with stones, rising in vapour to the watery clouds, and duly prepared.

    Translator Comment

    When oblations with well-prepared, purified and squeezed Soma are given, it rises In vapours through the rays of the Sun to watery clouds, and comes back on the earth in the form of rain.

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    Meaning

    Soma, spirit of beauty, grace and glory, divinely created, nobly born, zealous, destroyer of negativity, beatified and celebrated in songs of divine voice, the noblest powers of nature and humanity adore, share and enjoy. (Rg. 9-61-13)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (गोभिः) સ્તુતિઓથી (सुजातम् अप्तुरम्) સમ્યક્ સાક્ષાત્ વ્યાપ્તિમાન (भङ्गम्) પાપભંજક (परिष्कृतम्) આત્માનો પરિષ્કાર કરનાર (इन्दुम्) આર્દ્ર આનંદરસ પૂર્ણ પરમાત્માને (देवाः उ उपायासिषुः) મુમુક્ષુ ઉપાસક પ્રાપ્ત થાય છે. (૧)

     

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : મુમુક્ષુ ઉપાસક જન સ્તુતિઓ દ્વારા પાપનાશક તથા આત્માનો પરિષ્કાર-અધ્યાત્મ સંસ્કાર કરનાર વ્યાપ્તિમાન આનંદરસ ભરેલ પરમાત્માનો હૃદયમાં સાક્ષાત્ કરે છે. (૧)
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जसे देहात स्थित मन, बुद्धी इत्यादी जीवात्म्याद्वारे बल प्राप्त करतात, तशी प्रजा वीर राजाकडून बलवान बनते. ॥२॥

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