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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 763
ऋषिः - असितः काश्यपो देवलो वा
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
14
उ꣡पा꣢स्मै गायता नरः꣣ पवमानायेन्दवे । अभि देवाꣳ इयक्षते ॥७६३॥
स्वर सहित पद पाठउ꣡प꣢꣯ । अ꣣स्मै । गायत । नरः । प꣡व꣢꣯मानाय । इ꣡न्द꣢꣯वे । अ꣣भि꣢ । दे꣡वा꣢न् । इ꣡य꣢꣯क्षते ॥७६३॥
स्वर रहित मन्त्र
उपास्मै गायता नरः पवमानायेन्दवे । अभि देवाꣳ इयक्षते ॥७६३॥
स्वर रहित पद पाठ
उप । अस्मै । गायत । नरः । पवमानाय । इन्दवे । अभि । देवान् । इयक्षते ॥७६३॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 763
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 18; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 5; सूक्त » 3; मन्त्र » 3
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 18; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 5; सूक्त » 3; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
तृतीय ऋचा उत्तरार्चिक के आरम्भ में क्रमाङ्क ६५१ पर परमात्मोपासना के विषय में तथा गुरुओं के शिष्यों के प्रति कर्तव्य के विषय में व्याख्यात की गयी थी। यहाँ जीवात्मा और राजा का विषय वर्णित करते हैं।
पदार्थ
प्रथम—जीवात्मा के पक्ष में। हे (नरः) मनुष्यो ! तुम (देवान्) प्रकाशक मन, बुद्धि और ज्ञानेन्द्रिय रूप देवों में (अभि इयक्षते) परस्पर सङ्गति करानेवाले, (पवमानाय) मन को पवित्र करनेवाले (अस्मै) इस (इन्दवे) तेजस्वी जीवात्मा के लिए अर्थात् तेजस्वी जीवात्मा को लक्ष्य करके (गायत) उद्बोधन-गीत गाओ ॥ द्वितीय—राजा के पक्ष में। हे (नरः) राष्ट्र के प्रजाजनो ! तुम (देवान्) विद्वान् जनों की (अभि इयक्षते) पूजा करनेवाले, (पवमानाय) राष्ट्र के प्रदेशों में इधर-उधर सञ्चार करनेवाले (अस्मै) इस (इन्दवे) तेजस्वी, धन-धान्य-दूध आदि से राष्ट्रभूमि को सींचनेवाले राजा के लिए अर्थात् राजा को लक्ष्य करके (गायत) उद्बोधन-गीत तथा अभिनन्दन-गीत गाओ ॥३॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है ॥३॥
भावार्थ
मनुष्यों को चाहिए कि अपने आत्मा को तथा स्वराष्ट्र के राजा को उद्बोधन देकर वैयक्तिक तथा राष्ट्रिय उन्नति करें ॥३॥ इस खण्ड में मनुष्यों के अभ्युदय और निःश्रेयस के लिए परमात्मा तथा राजा का वर्णन होने से इस खण्ड की पूर्व खण्ड के साथ सङ्गति है ॥ द्वितीय अध्याय में पञ्चम खण्ड समाप्त ॥
विषय
महापुरुषों के चरित्र का गान
पदार्थ
प्रभु आदेश देते हैं कि हे नरः=अपने जीवनों को आगे ले-चलनेवाले मनुष्यो ! तुम (अस्मै) = इस पार्थिव भोगों में अलिप्त, विषय-वासनाओं से अबद्ध, ज्ञानी, दिव्य गुणोंवाले पुरुष के लिए उपगायत=गायन करो । इसके चरित्र का मनन करो, और अपने चरित्र को उसके पदचिह्नों पर चलते हुए उत्तम बनाओ । तुम उस महापुरुष के चरित्र का गायन करो जो
१. (पवमानाय) = अपने को पवित्र बनाने के स्वभाववाला है। जिसको मन की अपवित्रता खटकती है, मलिनता चुभती है । जो मन में राग-द्वेष रख ही नहीं सकता, उन्हें दूर करके ही स्वस्थ होता है । २. (इन्दवे) = जो शक्तिशाली है | इन्दु - बिन्दु- सोमकणों का मूर्त्तिमान् पुञ्ज है, आत्मसंयम के द्वारा जिसने शक्ति का संचय किया है । ३. (अभि देवान्) = जो दिव्य गुणों का लक्ष्य करके [यज्-संगतीकरण] प्रभु के साथ अपना संग जोड़ते हैं। प्रभु के सम्पर्क में आने से उनका जीवन दिव्य बन जाता है। ऐसे पुरुषों के चरित्रों का स्मरण करने से हमें भी प्रेरणा प्राप्त होती है और हम अपने जीवनों को सुन्दर बना पाते हैं।
भावार्थ
महनीय चरित्रों का मनन कर हम भी महनीय कर्म करनेवाले बनें ।
विषय
"Missing"
भावार्थ
भा० = (३) व्याख्या देखो अवि० सं० [६५१] पृ३२८ ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः - असित: काश्यपो अमहीयुर्वा । देवता -सोम:। छन्द: - गायत्री। स्वरः - षड्ज:।
संस्कृत (1)
विषयः
तृतीया ऋग् उत्तरार्चिकारम्भे ६५१ क्रमाङ्के परमात्मोपासनाविषये गुरूणां शिष्यान् प्रति कर्त्तव्यविषये च व्याख्याता। अत्र जीवात्मनो नृपतेश्च विषयमाह।
पदार्थः
प्रथमः—जीवात्मपक्षे। हे (नरः) मनुष्याः ! यूयम् (देवान्) प्रकाशकान् मनोबुद्धिज्ञानेन्द्रियरूपान् (अभि इयक्षते) परस्परं संगमयित्रे। [अत्र स्वार्थे सन्।] (पवमानाय) मनःपावित्र्यं कुर्वाणाय (अस्मै) एतस्मै (इन्दवे) दीप्तिमते जीवात्मने, दीप्तिमन्तं जीवात्मानमभिलक्ष्य इति भावः (गायत) उद्बोधनगीतानि प्रोच्चारयत ॥ द्वितीयः—नृपतिपक्षे। हे (नरः) राष्ट्रस्य प्रजाजनाः ! यूयम् (देवान्) विदुषो जनान् (अभि इयक्षते) पूजयते, (पवमानाय) राष्ट्रप्रदेशेषु इतस्ततः संचरते। [पवते गतिकर्मा निघं० २।१४।] (अस्मै) एतस्मै (इन्दवे) तेजस्विने धनधान्यदुग्धादिभिः राष्ट्रभूमिक्लेदकाय च नृपतये। [इन्दुः इन्धेरुनत्तेर्वा। निरु० १०।२७।] (गायत) प्रोद्बोधनगीतानि अभिनन्दनगीतानि च प्रोच्चारयत ॥३॥२ अत्र श्लेषालङ्कारः ॥३॥
भावार्थः
जनैः स्वात्मानं स्वकीयराष्ट्रस्य नृपतिं चोद्बोध्य वैयक्तिको राष्ट्रियश्चोत्कर्षः सम्पादनीयः ॥३॥ अस्मिन् खण्डे जनानामभ्युदयनिःश्रेयसार्थं परमात्मनो नृपतेश्च वर्णनादेतत्खण्डस्य पूर्वखण्डेन सह संगतिरस्ति ॥
टिप्पणीः
१. ऋ० ९।११।१, य० ३३।६२, ऋषिः देवलः, देवता सोमः। साम० ६५१। २. यजुर्भाष्ये दयानन्दर्षिर्मन्त्रमिमम् ‘अध्यापकाध्येतारः कथं वर्तेरन्’ इति विषये व्याख्यातवान्।
इंग्लिश (2)
Meaning
O bold persons, expatiate on the nectar of happiness derived by the soul, which preaches self-abnegation to the wonderful organs !
Translator Comment
‘Which' means happiness of the soul.
Meaning
O leading lights of humanity, to win the wealth of lifes joy, work and sing in thanks and adoration for this infinite fount of pure bliss which overflows and yearns to join and inspire the noble creative performers of yajna. (Rg. 9-11-1)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (नरः) હે મુમુક્ષુજનો ! તમે (अस्मै) એ-ઇષ્ટદેવ (देवान् अभि इयक्षते) દેવો-દિવ્ય સુખોનો જીવનમાં સંગત કરવા ચાહનાર-હિતૈષી (इन्दवे) રસવાન (पवमानाय) શાન્તધારામાં પ્રાપ્ત થનાર પરમાત્માને માટે (उपगायत) ઉપગાન કરો-આત્મભાવથી સ્તવન-ઉપાસના કરો. (૧)
भावार्थ
ભાવાર્થ : સમસ્ત સુખોના મૂળ તથા તેને જીવનમાં દાખલ કરાવનાર, રસવાન, શાન્તધારામાં પ્રાપ્ત થનાર પરમાત્માની ઉપયુક્ત સ્તુતિ, ઉપાસના મુમુક્ષુજનોએ કરવી જોઈએ. (૧)
मराठी (1)
भावार्थ
माणसांनी आपल्या आत्म्याला व स्वराष्ट्रातील राजाला उद्बोधन करून वैयक्तिक व राष्ट्रीय उन्नती करावी ॥३॥
टिप्पणी
या खंडात माणसांच्या अभ्युदय व नि:श्रेयससाठी परमात्मा व राजाचे वर्णन असल्यामुळे या खंडाची पूर्व खंडाबरोबर संगती आहे
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