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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 770
ऋषिः - श्यावाश्व आत्रेयः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
11
आ꣡दी꣢ꣳ ह꣣ꣳसो꣡ यथा꣢꣯ ग꣣णं꣡ विश्व꣢꣯स्यावीवशन्म꣣ति꣢म् । अ꣢त्यो꣣ न꣡ गोभि꣢꣯रज्यते ॥७७०॥
स्वर सहित पद पाठआ꣢त् । ई꣣म् । हꣳसः꣢ । य꣡था꣢꣯ । ग꣣ण꣢म् । वि꣡श्व꣢꣯स्य । अ꣣वीवशत् । मति꣢म् । अ꣡त्यः꣢꣯ । न । गो꣡भिः꣢꣯ । अ꣣ज्यते ॥७७०॥
स्वर रहित मन्त्र
आदीꣳ हꣳसो यथा गणं विश्वस्यावीवशन्मतिम् । अत्यो न गोभिरज्यते ॥७७०॥
स्वर रहित पद पाठ
आत् । ईम् । हꣳसः । यथा । गणम् । विश्वस्य । अवीवशत् । मतिम् । अत्यः । न । गोभिः । अज्यते ॥७७०॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 770
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 21; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 6; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 21; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 6; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अगले मन्त्र में अध्यात्मज्ञान और ब्रह्मानन्द का कर्तृत्व वर्णित है।
पदार्थ
(आत्) ग्रहण किये जाने के अनन्तर (ईम्) यह अध्यात्मज्ञान का और ब्रह्मानन्द का रस (यथा) जैसे (हंसः) सूर्य (गणम्) भूमि, चन्द्रमा आदि ग्रह-उपग्रहों के गण को वश में किये हुए है, वैसे ही (विश्वस्य) सब उपासकों की (मतिम्) बुद्धि को (अवीवशत्) वश में कर लेता है, बुद्धि में छा जाता है। और, (अत्यः न) घोड़ा जैसे (गोभिः) जलों से (अज्यते) स्नान करा कर साफ किया जाता है, वैसे ही यह अध्यात्मज्ञान का रस (गोभिः) वेद-वाणियों से (अज्यते) प्रकट किया जाता है ॥२॥ इस मन्त्र में दो उपमाओं की संसृष्टि है ॥२॥
भावार्थ
ब्रह्मज्ञान का और ब्रह्मानन्द का रस उपासक के आत्मा, मन, बुद्धि आदि में जब व्याप जाता है, तब उसकी तरङ्गों से तरङ्गित हुआ वह उपासक महाभाग्य का अनुभव करता है ॥२॥
पदार्थ
(आत्-ईम्) तो फिर (यथा हंसः-गणम्-अवीवशत्) जैसे हंस अन्य पक्षीगण को अपने श्वेत सुन्दरता आदि गुणों से वश करता है अपेक्षा से प्रशंसापत्र बनता है (विश्वस्य मतिम्) ऐसे यह सोम—शान्तस्वरूप परमात्मा अपने न्याय दया आनन्द आदि गुणों में संसारभर के मतिमान् जन को ‘अत्र मतुप्प्रत्ययस्य लुक् छान्दसः’ वश करता है स्वप्रभाव में ले आता है तथा (अत्यः-न गोभिः-अज्यते) जैसे अतनशील घोड़ा अन्नाद्यों—दाने चारे आदि से व्यक्त—पुष्ट प्रसन्न किया जाता है ऐसे सोम—परमात्मा भी स्तुतियों से हृदय में साक्षात् किया जाता है ‘उपमेयलुप्तोपमालङ्कारः’।
भावार्थ
हंस जैसे पक्षीगण को अपने गुणों से अभिभूत करता है, मोहित करता है, ऐसे परमात्मा संसार के मतिमान् मात्र को प्रभावित करता है तथा गतिशील घोड़ा जैसे दाने चारे जल से प्रसन्न पुष्ट किया जाता है, ऐसे परमात्मा स्तुतियों से हृदय में साक्षात् किया जाता है॥२॥
विशेष
<br>
विषय
इन्द्रियातीत प्रभु
पदार्थ
जब मनुष्य अपने शरीर में सोम की रक्षा करता है, (आत् ईम्) = तब निश्चय से (हंसः) = [हन् हिंसागत्योः] अपने दोषों की हिंसा करके गतिशील बननेवाला यह जीव (यथागणम्) = [गण् संख्याने] अपने संख्यान के अनुसार [संख्यावान् पण्डितः कविः], अर्थात् ज्ञान के अनुपात में (विश्वस्य) = उस सर्वत्र प्रविष्ट प्रभु के (मतिम् अवीवशत्) = विचार में प्रविष्ट होता है अथवा उस सर्वव्यापक प्रभु के अवबोध को वशीभूत करता है— प्राप्त होता है। प्रभु का ज्ञान उन्हें ही होता है जो — १. अपने दोषों की हिंसा करें, २. सदा उत्तम कर्मों में लगे रहें और ३. ज्ञान प्राप्त करें – संसार के तत्त्वों को समझने का प्रयत्न करें। (अत्य:)= वह निरन्तर क्रियाशील प्रभु (गोभिः) = इन इन्द्रियों से (न अज्यते) = प्रकट नहीं किया जाता। वे प्रभु इन्द्रियातीत होने से ज्ञान द्वारा ही प्राप्य होते हैं—('दृश्यते त्वग्र्यया बुद्ध्या') = वे सूक्ष्म बुद्धि से ही गृहीत होते हैं । इस सारी बात को समझकर 'श्यावाश्व आत्रेय' अपने इन्द्रियरूप अश्वों को सदा क्रियाशील [श्यैङ् गतौ, अश्व इन्द्रियाँ] रखता है और काम, क्रोध, लोभ [अत्रि] से परे रहकर निर्दोष बनता हुआ प्रभु-दर्शन के लिए प्रयत्न करता है।
भावार्थ
हम उस प्रभु के दर्शन के लिए - १. निर्दोष बनें, २. क्रियाशील हों और ३. ज्ञान प्राप्त करें ।
विषय
"Missing"
भावार्थ
भा० = ( २ ) ( आत् ) = और ( गणं ) = उत्पन्न होने वाले ( ईं ) = इस शरीरगत प्राणगण को ( हंस: ) = आत्मा ( यथा ) = जिस प्रकार से ( अवावशत् ) = वश करता है उसी प्रकार वह परमात्मा ( विश्वस्य ) = समस्त संसार के ( मतिं ) = मनों को भी ( अवीवशत् ) = वश करता है । और ( अत्यः न ) = जिस प्रकार अश्व ( गोभिः ) = नाना प्रकार की चालों से ( अज्यते ) = अपने गुण प्रकट करता है उसी प्रकार वह आत्मा अपनी इन्द्रियों की नाना सुख, दुःख, ज्ञान आदि गतियों से और वह प्रभु अपने बनाये गतिशील पिण्डों और वेदवाणियों से अपनी सत्ता और स्वरूप को प्रकट करता है ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः - श्यावाश्व: । देवता -सोम:। छन्द: - गायत्री । स्वरः - षड्ज:।
संस्कृत (1)
विषयः
अथाध्यात्मज्ञानस्य ब्रह्मानन्दस्य च कर्तृत्वमाह।
पदार्थः
(आत्) ग्रहणानन्तरम् (ईम्) एषः अध्यात्मज्ञानरसः ब्रह्मानन्दरसश्च (यथा) येन प्रकारेण (हंसः) सूर्यः (गणम्) पृथिवीचन्द्रादिकं ग्रहोपग्रहगणं वशं नयति, तथैव (विश्वस्य) सर्वस्य उपासकजनस्य (मतिम्) बुद्धिम् (अवीवशत्) वशं नयति। [वशं करोति वशयति, तस्य लुङि रूपम्। वर्तमाने लुङ्।] किञ्च (अत्यः न) अश्वः यथा। [अत्यः इति अश्वनाम। निघं० १।१४।] (गोभिः) उदकैः [गावः उदकानि निरुक्ते (६।५) प्रोक्तानि।] (अज्यते) मृज्यते, तथैव एषः अध्यात्मज्ञानरसः (गोभिः) वेदवाग्भिः (अज्यते) व्यज्यते प्रकाश्यते। [अञ्जू व्यक्तिम्रक्षणकान्तिगतिषु] ॥२॥ अत्र द्वयोरुपमयोः संसृष्टिः ॥२॥
भावार्थः
ब्रह्मज्ञानरसो ब्रह्मानन्दरसश्चोपासकस्यात्ममनोबुद्ध्यादिकं यदा व्याप्नोति तदा तत्तरङ्गैस्तरङ्गितः स माहाभाग्यमनुभवति ॥२॥
टिप्पणीः
२. ऋ० ९।३२।३।
इंग्लिश (2)
Meaning
Just as the soul controls the flock of breaths, so does God control the minds of all. Just as a horse exhibits his qualities by different gaits, so does God display His power through Vedic verses.
Meaning
And just as a Hansa bird joins its flock and just as a horse is controlled by reins to reach the destination, so does the soul, having controlled and concentrated all senses, mind and intelligence, rise and join the presence of Divinity, its ultimate haven and home. (Rg. 9-32-3)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (आत् ईम्) તો નિશ્ચયથી (यथा हंसः गणम् अवीवशत्) જેમ હંસ અન્ય પક્ષીગણને પોતાની શ્વેત સુંદરતા આદિ ગુણોથી વશ કરે છે અપેક્ષાથી પ્રશંસાપાત્ર બને છે. (विश्वस्य मतिम्) તેમ એ સોમપરમાત્મા પોતાના ન્યાય દયા આનંદ આદિ ગુણોમાં સંસારભરનાં મતિમાન-બુદ્ધિમાનજનને વશ કરે છે. પોતાના પ્રભાવમાં લઈ આવે છે તથા (अत्यः न गोभिः अज्यते) જેમ ગતિશીલ ઘોડાને અન્ન દાણાચારા આદિથી વ્યક્ત-પુષ્ટ પ્રસન્ન કરવામાં આવે છે, તેમ સોમ પરમાત્મા પણ સ્તુતિઓ દ્વારા હૃદયમાં સાક્ષાત્ કરી શકાય છે. (૨)
भावार्थ
ભાવાર્થ : જેમ હંસ પક્ષીગણને પોતાના ગુણથી અભિભૂત કરે છે, મોહિત કરે છે, તેમ પરમાત્મા સંસારનાં મતિમાન માત્રને પ્રભાવિત કરે છે. જેમ ગતિશીલ ઘોડાને દાણા-ચારા આદિથી પ્રસન્ન, પુષ્ટ કરવામાં આવે છે, તેમ પરમાત્માને સ્તુતિઓથી હૃદયમાં સાક્ષાત્ કરી શકાય છે. (૨)
मराठी (1)
भावार्थ
ब्रह्मज्ञानाचा व ब्रह्मानंदाचा रस उपासकाच्या आत्मा, मन, बुद्धी इत्यादीमध्ये जेव्हा व्यापतो तेव्हा त्या तरंगांनी तरंगित होऊन उपासक महाभाग्याचा अनुभव घेतो. ॥२॥
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