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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 771
    ऋषिः - श्यावाश्व आत्रेयः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
    18

    आ꣡दीं꣢ त्रि꣣त꣢स्य꣣ यो꣡ष꣢णो꣣ ह꣡रि꣢ꣳ हिन्व꣣न्त्य꣡द्रि꣢भिः । इ꣢न्दु꣣मि꣡न्द्रा꣢य पी꣣त꣡ये꣢ ॥७७१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ꣢त् । ई꣣म् । त्रित꣡स्य꣢ । यो꣡ष꣢꣯णः । ह꣡रि꣢꣯म् । हि꣣न्वन्ति । अ꣡द्रि꣢꣯भिः । अ । द्रि꣣भिः । इ꣡न्दु꣢꣯म् । इ꣡न्द्रा꣢꣯य । पी꣣त꣡ये꣢ ॥७७१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आदीं त्रितस्य योषणो हरिꣳ हिन्वन्त्यद्रिभिः । इन्दुमिन्द्राय पीतये ॥७७१॥


    स्वर रहित पद पाठ

    आत् । ईम् । त्रितस्य । योषणः । हरिम् । हिन्वन्ति । अद्रिभिः । अ । द्रिभिः । इन्दुम् । इन्द्राय । पीतये ॥७७१॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 771
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 21; मन्त्र » 3
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 6; सूक्त » 3; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (5)

    विषय

    अगले मन्त्र में फिर ब्रह्मानन्द-रस का विषय है।

    पदार्थ

    (आत्) और तब (त्रितस्य) ज्ञान-कर्म-उपासना इन तीनों से युक्त जीवात्मा की (योषणः) पत्नियों के समान सहचारिणी बुद्धियाँ (इन्द्राय) जीवात्मा के (पीतये)पान के लिए (ईम्) इस (इन्दुम्) भिगोनेवाले (हरिम्)पापहर्ता ब्रह्मानन्दरस को (अद्रिभिः) विदीर्ण न होनेवाले मनःसंकल्पों द्वारा (हिन्वन्ति) जीवात्मा में पहुँचाती हैं ॥३॥

    भावार्थ

    जब ब्रह्मानन्द-रस जीवात्मा में व्याप जाता है, तब उपासक को परम माहात्म्य का अनुभव होता है ॥३॥

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    पदार्थ

    (आत्-ईम्) पुनश्च (त्रितस्य) मेधा से तीर्णतम उपासक की “त्रिणस्तीर्णतमो मेधया” [निरु॰ ४.७] (योषणः) योषन्—मिलने वाली—समागम कराने वाली स्तुतियाँ “यू मिश्रणे.....” [अदादि॰] “योषा हि वाक्” [श॰ १.४.४.४] (हरिम्) दुःखापहरण सुखाहरण करने वाले सोम—शान्तस्वरूप परमात्मा को (अद्रिभिः) आदरणीय श्रद्धा नम्रता आस्तिक भावनाओं से (हिन्वन्ति) प्राप्त करती हैं—प्राप्त कराती हैं ‘अन्तर्गतणिजर्थः’ (इन्द्राय-इन्दुं पीतये) आत्मा के लिए आनन्दपूर्ण परमात्मा का पान कराने के लिए।

    भावार्थ

    मेधा से उत्कृष्ट बने उपासक की स्तुतियाँ दुःखापहरणकर्ता सुखाहरणकर्ता परमात्मा को श्रद्धा नम्रता आस्तिक भावनाओं के साथ आत्मा के लिए आनन्दरसपूर्ण परमात्मा का पान ज्ञान कराती हैं॥३॥

    विशेष

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    विषय

    नीरोगता व प्रभु-प्राप्ति

    पदार्थ

    (आत्) = अब (ईम्) = निश्चय से (त्रितस्य) = काम-क्रोध-लोभ से तीर्ण 'त्रित' की (योषणः) = [यु अमिश्रण] अपने को दोषों से दूर करने की वृत्तियाँ (अद्रिभिः) = दृढ़ मनोवृत्तियों से (हरिम्) = सब दु:खों को हरनेवाले प्रभु को (हिन्वन्ति) = प्राप्त कराती हैं। प्रभु प्राप्ति का मार्ग यह है कि१. मनुष्य 'काम, क्रोध, लोभ' को जीतकर 'त्रित' बनें, २. वह अपने को यथासम्भव दोषों से पृथक् करे [योषण: ], ३. दृढ़ मनोवृत्तिवाला हो [अद्रिभिः]।

    प्रभु ने शरीर में आहार के पाचन की व्यस्था में अन्तिम धातु के रूप में वीर्य को उत्पन्न किया है। वह वीर्य ‘इन्दु' कहलाता है, क्योंकि यह अत्यन्त शक्तिशाली है । मन्त्र के ऋषि (‘श्यावाश्व आत्रेय') = इस (इन्दुम्) = इन्दु को (हिन्वन्ति) = शरीर में ही प्रेरित करते हैं, जिससे १. (इन्द्राय) = उस परमैश्वर्यनिधान प्रभु की प्राप्ति कर सकें और २. (पीतये) = शरीर की रोगों से रक्षा कर सकें [पा-रक्षणे]। शरीर में सोम की रक्षा जहाँ शरीर को नीरोग रखती है, वहाँ यह मनुष्य को पवित्र हृदय व तीक्ष्ण बुद्धि बनाकर प्रभु-दर्शन के भी योग्य करती है ।

    भावार्थ

    हम सोम का पान करें, जिससे प्रभु-दर्शन प्राप्त करें तथा नीरोग हों। नीरोगता ऐहिक लाभ है तो प्रभु-प्राप्ति आमुष्मिक । ये दोनों ही लाभ सोम को शरीर में सुरक्षित करने से होते हैं।

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    विषय

    "Missing"

    भावार्थ

    भाष्य - "Missing"

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः - श्यावाश्व: । देवता -सोम:। छन्द: - गायत्री । स्वरः - षड्ज:।

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    विषय

    "Missing"

    भावार्थ

    (आत्) और (ईम्) उस आत्मा को (त्रितस्य) तीनों लोकों में प्राप्त परमात्मा की (योणः) सेवन, व प्रीति करने योग्य (अन्तः) शक्तियां (अद्रिभिः) विनाशी साधनों से (इन्द्राय) ऐश्वर्यवान् प्रभुके (इन्दुम्) अत्यन्त आह्लादकारक (हरिम्) अति मनोहर, सर्व दुःखहारी नन्द रस को (पीतये) प्राप्त कर उसका पान करने, उसमें मग्न होने के लिये (हिन्वन्ति) प्रेरित करती हैं, उसे उत्साहित करती हैं।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः - श्यावाश्व: । देवता -सोम:। छन्द: - गायत्री । स्वरः - षड्ज:।

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ पुनः ब्रह्मानन्दरसविषयमाह।

    पदार्थः

    (आत्) अथ (त्रितस्य) त्रिभिर्ज्ञानकर्मोपासनैः युक्तस्य जीवात्मनः (योषणः२) योषा इव सहचारिण्यो मेधाः (इन्द्राय) जीवात्मने (पीतये) पानाय (ईम्) एनम् (इन्दुम्) क्लेदकम् (हरिम्) पापहारिणं ब्रह्मानन्दरसम्(अद्रिभिः) न विदारयितुं शक्यैः मनःसंकल्पैः(हिन्वन्ति) जीवात्मनि प्रेरयन्ति। [हि गतौ वृद्धौ च स्वादिः] ॥३॥

    भावार्थः

    यदा ब्रह्मानन्दरसो जीवात्मानं व्याप्नोति तदोपासकः परमं माहात्म्यमनुभवति ॥३॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ९।३२।२। २. योषणः अङ्गुलयः—इति सा०। यु मिश्रणे, मिश्रणकर्तार ऋत्विजः—इति वि०।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    For enjoyment of the soul, the seekers after truth, acquire through durable and steady devices, the pleasant and fascinating supreme happiness, present in all the three regions.

    Translator Comment

    Three regions Earth, Atmosphere, Sky.

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    Meaning

    And the vibrant thoughts and words of the sage beyond threefold bondage of body, mind and soul, with all perceptions of sense and conceptions of mind concentrated, rise, reach and exalt the lord of peace and joy, destroyer of suffering, for the enlightenment and ecstasy of the human soul. (Rg. 9-32-2)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (आत् इम्) પુનશ્ચ (त्रितस्य) મેધાથી તીર્ણતમ-ઉત્કૃષ્ટ ઉપાસકની (योषणः) મળનારી-સમાગમ કરાવનારી સ્તુતિઓ (हरिम्) દુઃખહર્તા સુખદાતા સોમ-શાન્ત સ્વરૂપ પરમાત્માને (अद्रिभिः) આદરણીય શ્રદ્ધા નમ્રતા આસ્તિક ભાવનાઓથી (हिन्वन्ति) પ્રાપ્ત કરે છે-પ્રાપ્ત કરાવે છે (इन्द्राय इन्दुं पीतये) આત્માને માટે આનંદપૂર્ણ પરમાત્માનું પાન કરાવવા માટે. (૩)

     

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : મેધાથી ઉત્કૃષ્ટ બનેલ ઉપાસકની સ્તુતિઓ દુઃખહરણ અને સુખ આહરણકર્તા પરમાત્માને શ્રદ્ધા, નમ્રતા, આસ્તિક ભાવનાઓની સાથે આત્માને માટે આનંદરસ પૂર્ણ પરમાત્માનું પાન-જ્ઞાન કરાવે છે. (૩)

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जेव्हा ब्रह्मानंद रस जीवात्म्यामध्ये व्यापतो, तेव्हा उपासकाला महानतेचा अनुभव येतो. ॥३॥

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