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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 781
    ऋषिः - कश्यपो मारीचः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
    9

    वृ꣡षा꣢ सोम द्यु꣣मा꣡ꣳ अ꣢सि꣣ वृ꣡षा꣢ देव꣣ वृ꣡ष꣢व्रतः । वृ꣢षा꣣ ध꣡र्मा꣣णि दध्रिषे ॥७८१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वृ꣡षा꣢꣯ । सो꣣म । द्युमा꣢न् । अ꣣सि । वृ꣡षा꣢꣯ । दे꣣व । वृ꣣ष꣢꣯व्रतः । वृ꣡ष꣢꣯ । व्र꣣तः । वृ꣡षा꣢꣯ । ध꣡र्मा꣢꣯णि । द꣣ध्रिषे ॥७८१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वृषा सोम द्युमाꣳ असि वृषा देव वृषव्रतः । वृषा धर्माणि दध्रिषे ॥७८१॥


    स्वर रहित पद पाठ

    वृषा । सोम । द्युमान् । असि । वृषा । देव । वृषव्रतः । वृष । व्रतः । वृषा । धर्माणि । दध्रिषे ॥७८१॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 781
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 3; मन्त्र » 1
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 1; सूक्त » 3; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    प्रथम ऋचा पूर्वार्चिक में ५०४ क्रमाङ्क पर परमेश्वर के विषय में व्याख्यात हुई थी। यहाँ जगदीश्वर, आचार्य और राजा तीनों को सम्बोधन है।

    पदार्थ

    हे (सोम) सत्कर्मों में प्रेरणा करनेवाले जगदीश्वर, आचार्य वा राजन् ! (वृषा) सुख, विद्या एवं समृद्धि की वर्षा करनेवाले आप (द्युमान्) तेजस्वी (असि) हो। हे (देव) सूर्यादियों के प्रकाशक परमात्मन्, वेदविद्या के प्रकाशक आचार्य तथा राजनियमों के प्रकाशक राजन् ! (वृषव्रतः) धर्म, विद्या एवं समृद्धि की वर्षा करना ही जिनका व्रत है, ऐसे आप (वृषा) सचमुच बादल हो। (वृषा) ब्रह्मबल, आत्मबल अथवा देहबल से युक्त आप (धर्माणि) चरित्र के नियमों, विद्या के नियमों तथा राजनियमों को (दध्रिषे) धारण करते हो ॥१॥ इस मन्त्र में अर्थश्लेष अलङ्कार है। सोम में वृषत्व (पर्जन्यत्व) का आरोप होने से रूपक है। उस आरोप में ‘वृषव्रतः’ इस पद का अर्थ हेतु बन रहा है, अतः काव्यलिङ्ग है। ‘वृषा’ की आवृत्ति में यमक है ॥१॥

    भावार्थ

    जिस राष्ट्र में महान् परमेश्वर सुख आदि की, विद्वान् आचार्य विद्या की और धनी राजा धन की वर्षा करते हैं, वह राष्ट्र महिमा से बहुत शोभा पाता है ॥१॥

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    टिप्पणी

    [*7. “कश्येन पिबतीति कश्यपः, कशार्हः शासनीयः कश शासने” [अदादि.]।] (देखो अर्थव्याख्या मन्त्र संख्या ५०४)

    विशेष

    ऋषिः—मारीचः कश्यपः (वासनाओं को मार देने वाली ज्योति से सम्पन्न नियन्त्रित मन से पान करने वाला*7)॥ देवता—पवमानः सोमः (आनन्दधारा में आता हुआ परमात्मा)॥ छन्दः—गायत्री॥<br>

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    पदार्थ

    ५०४ संख्या पर मन्त्रार्थ द्रष्टव्य है।
     

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके ५०४ क्रमाङ्के परमेश्वरपक्षे व्याख्याता। अत्र जगदीश्वर आचार्यो नृपतिश्च त्रयोऽपि सम्बोध्यन्ते।

    पदार्थः

    हे (सोम) सत्कर्मसु प्रेरक जगदीश्वर आचार्य नृपते वा ! (वृषा) सुखवर्षको विद्यावर्षकः समृद्धिवर्षकश्च त्वम् (द्युमान्) द्युतिमान् (असि) वर्तसे। हे (देव) सूर्यादीनां प्रकाशक जगदीश, वेदविद्याप्रकाशक आचार्य राजनियमप्रकाशक नृपते च ! (वृषव्रतः) वृषं धर्मस्य विद्यायाः समृद्धेश्च वर्षणमेव व्रतं यस्य तादृशः त्वम् (वृषा) सत्यं पर्जन्यः असि। (वृषा) आत्मबलेन दैहिकबलेन वा युक्तः त्वम् (धर्माणि) चरित्रनियमान्, विद्यानियमान्, राजनियमांश्च (दध्रिषे) स्थापयसि ॥१॥ अत्रार्थश्लेषालङ्कारः। ‘वृषा असि पर्जन्योऽसि’ इति सोमे वृषत्वस्य (पर्जन्यत्वस्य) आरोपाच्च रूपकम्। तस्मिन्नारोपे ‘वृषव्रतः’ इति पदार्थस्य हेतुत्वाच्च काव्यलिङ्गम्। ‘वृषा’ इत्यस्यावृत्तौ च यमकम् ॥१॥

    भावार्थः

    यत्र महान् परमेश्वरः सुखादिं विद्वानाचार्यो विद्यां धनिको राजा च धनं वर्षति तद् राष्ट्रं महिम्ना बहु शोभते ॥१॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ९।६४।१ ‘दध्रिषे’ इत्यत्र ‘दधिषे’ इति पाठः। साम० ५०४।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O soul, thou art strong, bright, and potent. O soul, with potent sway. Thou mighty one, ordainest laws !

    Translator Comment

    The verse is the same as 504, but with a different interpretation.

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    Meaning

    O Soma, divine spirit of peace and prosperity, you are virile, omnipotent and generous, refulgent and abundant giver of light, self-committed to showers of generosity for humanity and all life in existence. O generous and mighty lord, you alone ordain, maintain and sustain the laws of Dharma in nature and humanity. (Rg. 9-64-1)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (सोम) હે શાન્ત સ્વરૂપ પરમાત્મન્ ! તું (वृषा द्युमान्) કામનાવર્ષક, વીર્યવાન, સામર્થ્યવાન (असि) છે. (देव) હે દિવ્યગુણ પરમાત્મન્ ! તું (वृषा वृषव्रतः) સુખવર્ષક, ધર્મવ્રત-ધર્મકર્મ-યથાર્થ કર્મવાળો છે. (वृषा धर्मणि दध्रिषे) સ્વયં ધર્મસ્વરૂપ હોવાથી ધર્મો-નિયમોને ધારણ કરે છે. (૮)


     

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : હે શાન્તસ્વરૂપ પરમાત્મન્ ! તું કામનાવર્ષક, સામર્થ્યવાન છે. હે દિવ્યગુણયુક્ત પરમાત્મન્ ! તું સુખવર્ષક, ધર્મવ્રત-ધર્મકર્મવાળો સ્વયં ધર્મરૂપ હોવાથી ધર્મો-નિયમોને ધારણ કરે છે અને તેને ચલાવે છે. (૮)

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    ज्या राष्ट्रात महान परमेश्वर सुखाची, विद्वान आचार्य विद्येची व धनवान राजा धनाची वृष्टी करतात त्या राष्ट्राचे माहात्म्य वाढते ते शोभायमान होते. ॥१॥

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