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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 817
    ऋषिः - अहमीयुराङ्गिरसः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
    20

    स꣡म्मि꣢श्लो अरु꣣षो꣡ भु꣢वः सूप꣣स्था꣡भि꣣र्न꣢ धे꣣नु꣡भिः꣢ । सी꣡द꣢ञ्छ्ये꣣नो꣢꣫ न यो꣣निमा꣢ ॥८१७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सं꣡मि꣢꣯श्लः । सम् । मि꣣श्लः । अरुषः꣢ । भु꣣वः । सूपस्था꣡भिः꣢ । सु꣣ । उपस्था꣡भिः꣢ । न । धे꣣नु꣡भिः꣢ । सी꣡द꣢꣯न् । श्ये꣣नः꣢ । न । यो꣡नि꣢꣯म् । आ ॥८१७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सम्मिश्लो अरुषो भुवः सूपस्थाभिर्न धेनुभिः । सीदञ्छ्येनो न योनिमा ॥८१७॥


    स्वर रहित पद पाठ

    संमिश्लः । सम् । मिश्लः । अरुषः । भुवः । सूपस्थाभिः । सु । उपस्थाभिः । न । धेनुभिः । सीदन् । श्येनः । न । योनिम् । आ ॥८१७॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 817
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 15; मन्त्र » 3
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 5; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में परमेश्वर और आचार्य से प्रार्थना की गयी है।

    पदार्थ

    हे पवमान सोम अर्थात् पवित्रकर्त्ता, सद्गुणकर्मस्वभावप्रेरक परमात्मन् वा आचार्य ! (अरुषः) तेज से देदीप्यमान आप (सूपस्थाभिः धेनुभिः) भली-भाँति उपस्थित तृप्तिप्रद स्तुतिवाणियों वा गायों से (न) इस समय (सम्मिश्लः) सम्मानित (भुवः) होवो। और, (श्येनः योनिं न) बाज पक्षी जैसे आवासवृक्ष पर अथवा सूर्य जैसे द्युलोकरूप घर में स्थित होता है, वैसे ही (श्येनः) प्रशंसनीय गतिवाले आप (योनिम्) हृदय-मन्दिर वा गुरुकुलरूप गृह में (आसीदन्) निवास करनेवाले (भुवः) होवो ॥३॥ इस मन्त्र में श्लिष्टोपमालङ्कार है ॥३॥

    भावार्थ

    जैसे द्रोणकलश में स्थापित सोमरस गोदुग्ध के साथ मिश्रित कर सम्मानित किया जाता है, वैसे ही हृदय-गृह में स्थापित परमेश्वर का स्तुति-वाणियों से और गुरुकुल में स्थापित आचार्य का धेनुओं से सम्मान करना चाहिए ॥३॥

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    पदार्थ

    (सूपस्थाभिः-धेनुभिः-न) हे शान्तस्वरूप परमात्मन्! तू सुव्यवस्थित स्तुतिवाणियों से सम्प्रति “धेनुः-वाङ्नाम” [निघं॰ १.११] (सम्मिश्लः-अरुषः-भुवः) संयुक्त सम्भाव को प्राप्त हो रोचमान हृदय में साक्षात् हो जाता है (श्येनः-न योनिम्-आसीदन्) भास—बाज पक्षी की भाँति प्रशंसनीय गतिमान् हो अपने घर में विराजमान हो जाता है।

    भावार्थ

    परमात्मा उत्तम स्तुतियों से स्तुत किया हुआ हृदय में साक्षात् भासमान होता है जैसे प्रशंसनीय गतिमान् भास—बाज पक्षी अपने घर में आ विराजता है॥३॥

    विशेष

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    विषय

    अमहीयु को प्रभु का उपदेश

    पदार्थ

    १. (सूपस्थाभिः) = उत्तमता व सुगमता से उपस्थान के योग्य (धेनुभिः न) = गौओं के समान इन वेदवाणियों से तू (संमिश्लः भुवः) = युक्त हो । ये वेदवाणियाँ कठिन नहीं- ये सूपस्थ हैं, सुगमता से उपस्थान के योग्य हैं। जैसे एक उत्तम धेनु सुदोह्य होती है उसी प्रकार ये वाणियाँ भी सुदोह्य हैं— सुगमता से समझने योग्य हैं। तू इनके पास बैठ तो ? २. इन वेदवाणियों की उपासना से तू (अरुषः) = आरोचन: [नि० ३.७ अरुषं रूप] उत्तम रूपवाला हो । ३. (श्येनः न) = शंसनीय गतिवाला-सा बनकर तू ४. (योनिम् आसीदन्) = मूल हृदयदेश में स्थित होनेवाला हो, अर्थात् तू सारे ध्यान को केन्द्रित कर हृदय में प्रभु की उपासना करनेवाला बन । 'योनि' शब्द का अर्थ ‘वेदि' भी है। तू वेदि में स्थित हो, यज्ञादि उत्तम कर्मों को करनेवाला बन ।

    भावार्थ

    हम वेदाध्ययन करें, क्रोधशून्य उत्तम रूपवाले हों, शंसनीय गतिवाले हों, हृदय में प्रभु की उपासना करें अथवा वेदियों में स्थित हो यज्ञ करनेवाले बनें ।

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    विषय

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    भावार्थ

    हे (सोम) सर्वैश्वर्यवन्! ज्ञान के दातः ! (सूपस्थाभिः धेनुभिः न) सुख से समीप प्राप्त होने वाली, सुशील गौएं जिस प्रकार मधुर दुग्ध प्रदान करती हैं उसी प्रकार तू (सूपस्थाभिः) आचार्य के समीप जाकर सुख से प्राप्त करने योग्य (धेनुभिः) ब्रह्मास्वाद, रस का पान कराने हारी वेद और उपनिषद् की स्तुति वाणियों से (सम्मिश्लः) उत्तम रीति से युक्त होकर (अरुषः) अतिरोचक, कान्तिसम्पन्न (भुवः) होता है और तभी (श्येनः न) बाज़ के समान शीघ्र गतिकारी एवं ज्ञानवान् आत्मा रूप (योनिम्) अपने आश्रय रूप, शरणप्रद परमेश्वर में (आसीदन्) विराजमान होता है। अथवा—(सूपस्थाभिर्न धेनुभिः) सुशील गायों से जिस प्रकार (अरुषः) लाल सांड (संमिश्लः भुवः) युक्त रहे और जिस प्रकार (श्येनः न योनिम् आसीदत्) बाज़ अपने आश्रय स्थान पर जाता है उसी प्रकार उत्तम रूप से स्थिर रहने वाली, रसप्रद इन्द्रियों या वाणियों द्वारा युक्त होकर आत्मा अपने गृह के समान परम आश्रयप्रद शरण, परब्रह्म में मग्न होजाता है।

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ परमेश्वरमाचार्यं च प्रार्थयते।

    पदार्थः

    हे पवमान सोम पवित्रकर्त्तः सद्गुणकर्मस्वभावप्रेरक परमात्मन् आचार्य वा ! (अरुषः) तेजसा आरोचमानः त्वम् [अरुषम् इति रूपनाम। निघं० ३।७।] (सूपस्थाभिः धेनुभिः) शोभनतया उपस्थिताभिः प्रीणयित्रीभिः अस्माकं स्तुतिवाग्भिः गोभिर्वा। [धेनुरिति वाङ्नाम। निघं० १।११। धेनुः धयतेर्वा धिनोतेर्वा। निरु० ११।४३।] (न२) सम्प्रति (सम्मिश्लः भुवः) सम्मानितः भव। अपि च (श्येनः योनिं न) श्येनः पक्षी यथा आवासवृक्षं यद्वा आदित्यो यथा द्युलोकरूपं गृहमासीदति तथा (श्येनः) शंसनीयगमनः त्वम् (योनिम्) हृदयसदनं गुरुकुलगृहं वा (आसीदन्) निवसन् (भुवः) भव। [श्येनः शंसनीयं गच्छति। निरु० ४।२४। श्येन आदित्यो भवति, श्यायतेर्गतिकर्मणः। निरु० १३।७२। योनिरिति गृहनाम। निघं० ३।४।] ॥३॥ अत्र श्लिष्टोपमालङ्कारः ॥३॥

    भावार्थः

    यथा द्रोणकलशे स्थापितः सोमरसः गोदुग्धैः संमिय सम्मान्यते, तथैव हृदयसदने स्थापितः परमेश्वरः स्तुतिवाग्भिर्गुरुकुले स्थापित आचार्यश्च धेनुभिः संमाननीयः ॥३॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ९।६१।२१, ‘भुवः’ इत्यत्र ‘भ॑व’ इति पाठः। २. न सम्प्रत्यर्थे इति सा०।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O pupil, a seeker after knowledge, just as easily accessible, , mild kine yield milk, so dost thou become brilliant, by coining in contact with the preceptor, and being united with Vedic speeches. Then alone does soul, fast like a falcon, rest in God, its home!

    Translator Comment

    United' means instructed. 'Vedic speeches' means Vedic teachings.

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    Meaning

    Be bright and blazing, integrated with creative powers of growth, perception and imagination, sojourning over space and time yet resting in your seat at the centre of existence. (Rg. 9-61-21)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (सूपस्थाभिः धेनुभिः न) હે શાન્ત સ્વરૂપ પરમાત્મન્ ! તું સુવ્યવસ્થિત સ્તુતિ વાણીઓથી સંપ્રતિ (सम्मिश्लः अरुषः भुवः) સંયુક્ત‌ સમભાવને પ્રાપ્ત થઈને પ્રકાશમાન હૃદયમાં સાક્ષાત્ થઈ જાય છે (श्येनः न योनिम् आसीदन्) બાજ પક્ષીની સમાન પ્રશંસનીય ગતિમાન બનીને પોતાનાઘરમાં વિરાજમાન થઈ જાય છે.

     

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : પરમાત્મા ઉત્તમ સ્તુતિઓથી સ્તુત થઈને હૃદયમાં સાક્ષાત્ પ્રકાશમાન થાય છે, જેમ પ્રશંસનીય ગતિમાન બાજ પક્ષી પોતાના ઘરમાં આવીને બિરાજે છે. (૩)
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जसे द्रोणकलशात स्थापित केलेला सोमरस गोदुग्धबरोबर मिश्रित करून सम्मानित केला जातो. तसेच हृदयगृहात स्थापित असलेल्या परमेश्वराचा स्तुती वाणीने व गुरुकुलात स्थापित झालेल्या आचार्याचा धनुप्रमाणे सन्मान केला पाहिजे ॥३॥

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