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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 854
    ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - इन्द्राग्नी छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
    29

    उ꣣ग्रा꣡ वि꣢घ꣣नि꣢ना꣣ मृ꣡ध꣢ इन्द्रा꣣ग्नी꣡ ह꣢वामहे । ता꣡ नो꣢ मृडात ई꣣दृ꣡शे꣢ ॥८५४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उग्रा꣢ । वि꣣घनि꣡ना꣢ । वि꣣ । घनि꣡ना꣢ । मृ꣡धः꣢꣯ । इ꣡न्द्राग्नी꣢ । इ꣡न्द्र । अग्नी꣡इति꣢ । ह꣣वामहे । ता꣢ । नः꣣ । मृडातः । ईदृ꣡शे꣢ ॥८५४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उग्रा विघनिना मृध इन्द्राग्नी हवामहे । ता नो मृडात ईदृशे ॥८५४॥


    स्वर रहित पद पाठ

    उग्रा । विघनिना । वि । घनिना । मृधः । इन्द्राग्नी । इन्द्र । अग्नीइति । हवामहे । ता । नः । मृडातः । ईदृशे ॥८५४॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 854
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 8; मन्त्र » 2
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 2; सूक्त » 4; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में पुनः परमात्मा और जीवात्मा का ही विषय वर्णित है।

    पदार्थ

    (मृधः) हिंसक काम, क्रोध आदि शत्रुओं के (विघनिना) विनाशक, (उग्रा) उग्र बलवाले (इन्द्राग्नी) परमात्मा और जीवात्मा को, हम (हवामहे) पुकारते हैं। (ता) वे दोनों (ईदृशे) ऐसे विकट देवासुरसंग्राम के उपस्थित होने पर (नः) हमें (मृडातः) सुखी करें ॥२॥

    भावार्थ

    सबको चाहिए कि परमात्मा की उपासना करके और जीवात्मा को उद्बोधन देकर सब विघ्नों तथा सब शत्रुओं को पराजित करें ॥२॥

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    पदार्थ

    (उग्रा) उभरे बल वाले (मृधः-विघनिना) संग्राम करने वाले काम आदि को विशेषरूप से मारने वाले (इन्द्राग्नी) ऐश्वर्यवान् ज्ञानप्रकाशवान् परमात्मा को (हवामहे) हम अपने अन्दर आमन्त्रित करते हैं (ता नः-ईदृशे मृडातः) वह ऐसा संग्राम संकट में हमारी रक्षा करता है “मृडयतिरुपदयाकर्मा” [निरु॰ १०.१६]।

    भावार्थ

    ऐश्वर्यवान् और ज्ञानप्रकाशस्वरूप परमात्मा उपासक के अन्दर संग्राम मचाने वाले काम आदि शत्रुओं को सर्वथा नष्ट करता है और हमारी रक्षा करता है॥२॥

    विशेष

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    विषय

    सुखमय जीवन

    पदार्थ

    हम इस संसार-संग्राम में - अपने जीवन के संघर्षों में (इन्द्राग्नी) = बल व प्रकाश की देवताओं को (हवामहे) = पुकारते हैं । ये दोनों देवता (उग्रा) = अत्यन्त उदात्त [noble] हैं । वस्तुतः जीव का सारा उत्कर्ष इन्हीं पर निर्भर है । ये इन्द्राग्नी (मृध:) = हिंसकतत्त्वों के (विघनिना) = नष्ट करनेवाले हैं । भूतों में घर बनानेवाले रोगकृमि शक्ति से नष्ट किये जाते हैं तो मन में विकसित होनेवाले वासनाबीज ज्ञानाग्नि से भस्म कर दिये जाते हैं ।

    (ता) = वे इन्द्र और अग्नि (ईदृशे) = ऐसे रोगों व वासनाओं से भरे संसार में इन रोगों तथा विकारों के हिंसन द्वारा (न:) = हमें (मृडातः) = सुखी करें। हमारा जीवन इन दो तत्त्वों का उपासक बने । हम नीरोग व निर्विकार होकर सुखी हो सकें ।

    भावार्थ

    भावार्थ – शक्ति व प्रकाश ही हमारे जीवनों को सुखी बनाते हैं ।
     

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    विषय

    missing

    भावार्थ

    उन (मृधः) हिंसक शत्रुओं को (विघनिता) विशेषरूप से आघात करने हारे (उग्रा) वेग वाले (इन्द्राग्नी) पूर्व उक्त इन्द और अग्नि दोनों को (हवामहे) स्वीकार करते, स्तुति करते हैं जिनके आधार पर हम और (ता) वे दोनों (नः) हमें (ईदृशे) इस प्रकार के जीवन संग्राम में भी (मृडातः) सुखी करें।

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१ जमदग्निः। २ भृगुर्वाणिर्जमदग्निर्वा। ३ कविर्भार्गवः। ४ कश्यपः। ५ मेधातिथिः काण्वः। ६, ७ मधुच्छन्दा वैश्वामित्रः। ८ भरद्वाजो बार्हस्पत्यः। ९ सप्तर्षयः। १० पराशरः। ११ पुरुहन्मा। १२ मेध्यातिथिः काण्वः। १३ वसिष्ठः। १४ त्रितः। १५ ययातिर्नाहुषः। १६ पवित्रः। १७ सौभरिः काण्वः। १८ गोषूत्यश्वसूक्तिनौ काण्वायनौ। १९ तिरश्चीः॥ देवता—३,४, ९, १०, १४—१६ पवमानः सोमः। ५, १७ अग्निः। ६ मित्रावरुणौ। ७ मरुत इन्द्रश्च। ८ इन्द्राग्नी। ११–१३, १८, १९ इन्द्रः॥ छन्दः—१–८, १४ गायत्री। ९ बृहती सतोबृहती द्विपदा क्रमेण। १० त्रिष्टुप्। ११, १३ प्रगाथंः। १२ बृहती। १५, १९ अनुष्टुप। १६ जगती। १७ ककुप् सतोबृहती च क्रमेण। १८ उष्णिक् ॥ स्वरः—१—८, १४ षड्जः। ९, ११–१३ मध्यमः। १० धैवतः। १५, १९ गान्धारः। १६ निषादः। १७, १८ ऋषभः॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ पुनः परमात्मजीवात्मनोरेव विषय उच्यते।

    पदार्थः

    (मृधः) हिंसकान् कामक्रोधादीन् रिपून् (विघनिना) हन्तारौ, (उग्रा) उग्रौ उद्गूर्णबलौ (इन्द्राग्नी) परमात्मजीवात्मानौ, वयम् (हवामहे) आह्वयामः। (ता) तौ (ईदृशे) एवंविधे संग्रामे उपस्थिते (नः) अस्मान् (मृडातः) सुखयेताम्। [मृड सुखने, तुदादिः, लेटि आडागमे रूपम्] ॥२॥३

    भावार्थः

    परमात्मानमुपास्य जीवात्मानं चोद्बोध्य सर्वैः सर्वे विघ्नाः सर्वे शत्रवश्च पराजेयाः ॥२॥

    टिप्पणीः

    २. ऋ० ६।६०।५, य० ३३।६१। ३. दयानन्दर्षिणा मन्त्रोऽयमृग्भाष्ये वायुविद्युतोः प्रयोगेण संग्रामजयविषये यजुर्भाष्ये च सभासेनाधीशविषये व्याख्यातः।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    We praise God and soul, the destroyers of the terrible, violent, evil tendencies. They gladden us in this struggle of life.

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    Meaning

    We invoke, invite and develop Indra and Agni, divine and blazing powers of natures energy and light, both destroyers of adversaries and lifes negativities. May they protect us and bless us with peace and prosperity in this world of our action and existence. (Rg. 6-60-5)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (उग्रा) ઉગ્ર બળવાળા (मृधः विघनिना) સંગ્રામ કરનારા કામ આદિને વિશેષ રૂપથી મારનારા (इन्द्राग्नी) ઐશ્વર્યવાન જ્ઞાન પ્રકાશવાન પરમાત્માને (हवामहे) અમે પોતાની અંદર આમંત્રિત કરીએ છીએ (ता नः ईदृशे मृडातः) તે એવા સંગ્રામ સંકટમાં અમારી રક્ષા કરે છે.

     

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : ઐશ્વર્યવાન અને જ્ઞાનપ્રકાશ સ્વરૂપ પરમાત્મા ઉપાસકની અંદર સંગ્રામ મચાવનાર કામ આદિ શત્રુઓનો સર્વથા નાશ કરે છે અને અમારી રક્ષા કરે છે. (૨)
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    सर्वांनी परमेश्वराची उपासना करावी व जीवात्म्याला उद्बोधन करून संपूर्ण विघ्नांना व सर्व शत्रूंना पराजित करावे. ॥२॥

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