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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 855
    ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - इन्द्राग्नी छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
    40

    ह꣣थो꣢ वृ꣣त्रा꣡ण्यार्या꣢꣯ ह꣣थो꣡ दासा꣢꣯नि सत्पती । ह꣣थो꣢꣫ विश्वा꣣ अ꣢प꣣ द्वि꣡षः꣢ ॥८५५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ह꣣थः꣢ । वृ꣣त्रा꣡णि꣢ । आ꣡र्या꣢꣯ । ह꣣थः꣢ । दा꣡सा꣢꣯नि । स꣣त्पती । सत् । पतीइ꣡ति꣢ । ह꣡थः꣢ । वि꣡श्वा꣢꣯ । अ꣡प꣢꣯ । द्वि꣡षः꣢꣯ ॥८५५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    हथो वृत्राण्यार्या हथो दासानि सत्पती । हथो विश्वा अप द्विषः ॥८५५॥


    स्वर रहित पद पाठ

    हथः । वृत्राणि । आर्या । हथः । दासानि । सत्पती । सत् । पतीइति । हथः । विश्वा । अप । द्विषः ॥८५५॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 855
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 8; मन्त्र » 3
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 2; सूक्त » 4; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में पुनः वही विषय है।

    पदार्थ

    हे (सत्पती) श्रेष्ठों के पालनकर्ता परमात्मा और जीवात्मा ! (आर्या) श्रेष्ठ तुम दोनों (वृत्राणि) पापों को (हथः) विनष्ट करते हो, (दासानि) क्षय करनेवाले काम, क्रोध आदियों को (हथः) विनष्ट करते हो और (विश्वाः) सब (द्विषः) द्वेष-वृत्तियों को (अप हथः) मार भगाते हो ॥३॥ यहाँ ‘हथो’ की तीन बार आवृत्ति में लाटानुप्रास है। पुनः-पुनः ‘हथः’ कहने से यह द्योतित होता है कि इसी प्रकार अन्य भी दुर्गुण, दुर्व्यसन, दुःख आदियों को तुम विनष्ट करते हो ॥३॥

    भावार्थ

    हमें चाहिए कि परमात्मा और जीवात्मा की सहायता से पाप आदियों को नष्ट करके द्वेषवृत्तियों को समाप्त करके आपस में सौहार्द से वर्तें ॥३॥ इस खण्ड में परमात्मा और यज्ञ, ब्रह्म और क्षत्र, जीवात्मा और प्राण, जीवात्मा के पुनर्जन्म, प्राणायाम, परमात्मा और जीवात्मा के सम्बन्ध आदि का वर्णन होने से इस खण्ड की पूर्व खण्ड के साथ सङ्गति है ॥ चतुर्थ अध्याय में द्वितीय खण्ड समाप्त ॥

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    पदार्थ

    (सत्पती) सत्पुरुष—उपासक के रक्षक ऐश्वर्यवान् ज्ञानप्रकाशवान् परमात्मन्! (आर्या वृत्राणि) अरि—अमित्र—शत्रु के अन्दर होने वाले पापों को “पाप्मा वै वृत्रः” [श॰ ११.१.५.७] (अपहथः) हटा दो—दूर कर दो (दासानि-अपहथः) दास—निष्कर्म जन या कर्मविनाशक जन के अन्दर होने वाले पापों को हटा दो दूर कर दो (विश्वाः-द्विषः-अपहथः) सारी द्वेषभावनाओं को हटा दो—दूर कर दो।

    भावार्थ

    उपासक का रक्षक परमात्मा उपासक के प्रति शत्रु की हिंसावृत्ति, कर्मविनाशक प्रवृत्ति और द्वेषी की द्वेषभावनाओं को दूर कर देता है तथा उपासक के अन्दर से किसी के भी प्रति शत्रु जैसी वृत्ति वैरवृत्ति दास जैसी हानि करने की प्रवृत्ति और द्वेषभावनाओं को उठने नहीं देता है॥३॥

    विशेष

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    विषय

    लोकत्रय-दीप्ति

    पदार्थ

    इन्द्र और अग्नि आर्य हैं । शक्ति और प्रकाश के तत्त्व हमारे जीवन को आर्य बनाते हैं । (आर्या) = हे हमारे जीवनों को उत्कृष्ट बनानेवाले इन्द्राग्नी ! आप (वृत्राणि) = ज्ञान की आवरणभूत वासनाओं को (हथः) = नष्ट करते हो । इन आवरणों के विनाश से हमारी ज्ञानाग्नि चमक उठती है ।

    ये इन्द्राग्नी सत्पती हैं— सत्य का पालन करनेवालों के रक्षक हैं। जीवन को सूर्य-चन्द्रमा की भाँति नियमित गति से ले-चलना ही 'सत्' बनना है । ये इन्द्राग्नी, जोकि (सत्पती) = सत्पुरुषों के रक्षक हैं, ये (दासानि) = [दसु उपक्षये] क्षय के कारणभूत रोगकृमियों को (हथः) = नष्ट करते हैं । रोगकृमियों के विनाश से हमारे शरीर सुन्दर बनते हैं ।

    ये इन्द्राग्नी जहाँ ज्ञान की आवरणभूत वासनाओं को नष्ट कर मस्तिष्क को उज्ज्वल बनाते हैं और रोगकृमियों को नष्ट करके शरीर को नीरोग करते हैं, वहाँ मन से भी (विश्वा:) = सब द्विषः-द्वेष की भावनाओं को (अपहथ:) = सुदूर भगा देते हैं । शरीर का मस्तिष्करूप द्युलोक ज्ञान से जगमगा उठता है, स्थूल शरीररूप पृथिवीलोक स्वास्थ्य की दृढ़ता से चमकने लगता है, तो मनरूप अन्तरिक्ष पवित्रता से प्रसन्न हो उठता है । एवं, ये इन्द्राग्नी त्रिलोकी को ही उज्ज्वल कर देते हैं ।

    भावार्थ

    इन्द्राग्नी के विकास से हमारी त्रिलोकी उज्ज्वल बन जाए ।

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    विषय

    missing

    भावार्थ

    (आर्या) उत्तम गुण कर्म स्वभाव वाले वे दोनों (वृत्राणि) मेघों के समान आवरक विघ्नों को (हथः) आघात करते, या नाश करते हैं। (सत्पती) और वे दोनों सज्जनों के पालक (दासानि) नाशकारी पदार्थों को (हथः) विनाश करते हैं और (विश्वा) समस्त (द्विषः) शत्रुओं को (अप हथः) दूर मार भगाते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१ जमदग्निः। २ भृगुर्वाणिर्जमदग्निर्वा। ३ कविर्भार्गवः। ४ कश्यपः। ५ मेधातिथिः काण्वः। ६, ७ मधुच्छन्दा वैश्वामित्रः। ८ भरद्वाजो बार्हस्पत्यः। ९ सप्तर्षयः। १० पराशरः। ११ पुरुहन्मा। १२ मेध्यातिथिः काण्वः। १३ वसिष्ठः। १४ त्रितः। १५ ययातिर्नाहुषः। १६ पवित्रः। १७ सौभरिः काण्वः। १८ गोषूत्यश्वसूक्तिनौ काण्वायनौ। १९ तिरश्चीः॥ देवता—३,४, ९, १०, १४—१६ पवमानः सोमः। ५, १७ अग्निः। ६ मित्रावरुणौ। ७ मरुत इन्द्रश्च। ८ इन्द्राग्नी। ११–१३, १८, १९ इन्द्रः॥ छन्दः—१–८, १४ गायत्री। ९ बृहती सतोबृहती द्विपदा क्रमेण। १० त्रिष्टुप्। ११, १३ प्रगाथंः। १२ बृहती। १५, १९ अनुष्टुप। १६ जगती। १७ ककुप् सतोबृहती च क्रमेण। १८ उष्णिक् ॥ स्वरः—१—८, १४ षड्जः। ९, ११–१३ मध्यमः। १० धैवतः। १५, १९ गान्धारः। १६ निषादः। १७, १८ ऋषभः॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ पुनरपि तमेव विषयं प्राह।

    पदार्थः

    हे (सत्पती) सतां श्रेष्ठानां पालकौ परमात्मजीवात्मानौ ! (आर्या) आर्यौ श्रेष्ठौ युवाम् (वृत्राणि) पापानि (हथः) विनाशयथः, (दासानि) उपक्षपयितॄणि कामक्रोधादीनि (हथः) विनाशयथः, अपि च (विश्वाः) सर्वाः (द्विषः) द्वेषवृत्तीः (अप हथः) अप विनाशयथः ॥३॥२ अत्र ‘हथो’ इत्यस्य त्रिधाऽऽवृत्तौ लाटानुप्रासः। पुनः पुनः ‘हथः’ इति वचनादन्यान्यपि दुर्गुणदुर्व्यसनदुःखादीन्यपहथः इति द्योत्यते ॥३॥

    भावार्थः

    परमात्मजीवात्मनोः साहाय्येनास्माभिः पापादीनि निरस्य द्वेषवृत्तीः समाप्य परस्परं सौहार्देन वर्त्तितव्यम् ॥३॥ अस्मिन् खण्डे परमात्मयज्ञयोर्ब्रह्मक्षत्रयोर्जीवात्मप्राणयोर्जीवस्य पुनर्जन्मनः प्राणायामस्य परमात्मजीवात्मनोः सम्बन्धादेश्च वर्णनादेतत्खण्डस्य पूर्वखण्डेन सह संगतिरस्ति ॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ६।६०।६। २. ऋग्भाष्ये दयानन्दर्षिर्मन्त्रमेतम् वायुविद्युद्विषये व्याख्यातवान्।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    They both, the urgers to prosperity, remove all hindrances. The guardians of noble sentiments, they both suppress the marauding mental feelings. They both cast aside all evil tendencies.

    Translator Comment

    They both: God and soul.

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    Meaning

    Indra and Agni, divine powers of omnipotent will and vision, of holy nature, character and action, defenders of Truth and Law, destroy evil, darkness and want, destroy pain, suffering and slavery, destroy and eliminate all hate and enmity. (Rg. 6-60-6)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (सत्पती)સત્પુરુષ-ઉપાસકના રક્ષક ઐશ્વર્યવાન જ્ઞાનપ્રકાશવાન પરમાત્મન્ ! (आर्या वृत्राणि) અરિ = અમિત્ર-શત્રુની અંદર થનારા પાપોને (अपहथः) હટાવી દો-દૂર કરી દો (दासानि अपहथः) દાસનિષ્કર્મ જન અથવા કર્મ વિનાશક જનની અંદર થનારા પાપોને હટાવી દો-દૂર કરી દો (विश्वाः द्विषः अपहथः) સમસ્ત દ્વેષ ભાવનાઓને હટાવી દો-દૂર કરી દો. (૩)

     

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : ઉપાસકના રક્ષક પરમાત્મા ઉપાસકની સામે શત્રુની હિંસાવૃત્તિ, કર્મવિનાશક પ્રવૃત્તિ અને દ્વેષ ભાવનાઓને દૂર કરી દે છે; તથા ઉપાસકની અંદર કોઈના પણ પ્રત્યે શત્રુ જેવી વેરવૃત્તિ, દાસ જેવી હાનિ કરવાની પ્રવૃત્તિ અને દ્વેષ ભાવનાઓને ઉત્પન્ન થવા દેતો નથી. (૩)
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    आम्ही परमात्मा व जीवात्म्याच्या साह्याने पाप इत्यादींना नष्ट करावे व द्वेषवृत्तींना समाप्त करून आपापसात सौहार्दाने वागावे ॥३॥ या खंडात परमात्मा व यज्ञ, ब्रह्म व क्षत्र, जीवात्मा व प्राण, जीवात्म्याचा पुनर्जन्म, प्राणायाम, परमात्मा व जीवात्म्याचे संबंध इत्यादीचे वर्णन असल्यामुळे या खंडाची पूर्व खंडाबरोबर संगती आहे

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