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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 894
    ऋषिः - मेध्यातिथिः काण्वः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
    19

    शृ꣣ण्वे꣢ वृ꣣ष्टे꣡रि꣢व स्व꣣नः꣡ पव꣢꣯मानस्य शु꣣ष्मि꣡णः꣢ । च꣡र꣢न्ति वि꣣द्यु꣡तो꣢ दि꣣वि꣢ ॥८९४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    शृ꣣ण्वे꣢ । वृ꣣ष्टेः꣢ । इ꣣व । स्वनः꣢ । प꣡व꣢꣯मानस्य । शु꣣ष्मि꣡णः꣢ । च꣡र꣢꣯न्ति । वि꣣द्यु꣡तः꣢ । वि꣣ । द्यु꣡तः꣢꣯ । दि꣣वि꣢ ॥८९४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    शृण्वे वृष्टेरिव स्वनः पवमानस्य शुष्मिणः । चरन्ति विद्युतो दिवि ॥८९४॥


    स्वर रहित पद पाठ

    शृण्वे । वृष्टेः । इव । स्वनः । पवमानस्य । शुष्मिणः । चरन्ति । विद्युतः । वि । द्युतः । दिवि ॥८९४॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 894
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 3; मन्त्र » 3
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 1; सूक्त » 3; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में पुनः परमात्मा और आचार्य का ही विषय वर्णित है।

    पदार्थ

    (शुष्मिणः) बलवान् (पवमानस्य) चित्तशुद्धिकर्ता परमात्मा वा आचार्य का (स्वनः) आनन्दप्रवाह वा ज्ञानप्रवाह का शब्द (वृष्टेः स्वनः इव) वर्षा के शब्द के समान है, उसे मैं (शृण्वे) सुन रहा हूँ। (दिवि) आकाश के समान मेरे आत्मा में (विद्युतः चरन्ति) बिजलियों के सदृश अध्यात्म-ज्योतियाँ विचर रही हैं ॥३॥ यहाँ उपमालङ्कार है ॥३॥

    भावार्थ

    जैसे वर्षाकाल में शब्द के साथ बादल से जल-धाराएँ गिरती हैं और बिजलियाँ चमकती हैं, वैसे ही आचार्य के पास से ज्ञान का प्रवाह होने पर शब्द आचार्य के मुख से निकलते हैं और ज्ञान को ग्रहण करनेवाले जीवात्मा में ज्ञान की ज्योतियाँ चमकती हैं। उसी प्रकार परमात्मा के पास से आनन्दरस का प्रवाह होने पर भी कोई दिव्य वर्षा की रिमझिम सी सुनाई देती है और अलौकिक ज्योतियों का भी अनुभव होता है ॥३॥

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    पदार्थ

    (शुष्मिणः पवमानस्य) बलवान्*22 धारारूप में प्राप्त होने वाले परमात्मा का (स्वनः) अमृतवचन (वृष्टेः-इव शृण्वे) धारारूप में प्राप्त हो रही वृष्टि का जैसे सुनता हूँ (दिवि विद्युतः-चरन्ति) तथा जैसे*23 आकाश में विद्युतें चल रही—चमक रही होती हैं ऐसे परमात्मा की आनन्दधारायें भी चल रहीं चमक रही होती हैं॥३॥

    टिप्पणी

    [*23. “शुष्मं बलनाम” [निघं॰ २.९]।] [*24. लुप्तोपमावाचकालङ्कारः।]

    विशेष

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    विषय

    धर्ममेघ समाधि में पर्जन्यध्वनि

    पदार्थ

    गत मन्त्र में वर्णित ‘'सुवित' प्रभु के सेतु का आश्रय करनेवाले को (पवमानस्य) = उस पवित्र करनेवाले तथा (शुष्मिणः) = कामादि शत्रुओं का शोषण करनेवाले बल से सम्पन्न प्रभु का (स्वनः) = शब्द (वृष्टेः स्वनः इव) = धर्ममेघ समाधि में होनेवाली आनन्द की वर्षा के शब्द की भाँति (शृण्वे) = सुनाई पड़ता है, अर्थात् उपासकों को पवित्र करनेवाले, शक्तिशाली प्रभु की हृदय में उठनेवाली वाणी सदा सुनाई पड़ती है। २. इन उपासकों के (दिवि) = द्योतनात्मक मस्तिष्क में (विद्युतः) = विशेष दीप्तियाँ (चरन्ति) = विचरण करती हैं, अर्थात् इनकी बुद्धि अत्यन्त सूक्ष्म होकर एक विशेष दीप्ति को देखती है।
     

    भावार्थ

    उपासक को प्रभु का शब्द सुनाई पड़ता है और उसके मस्तिष्करूप गगन में ज्ञानविद्युत् का प्रकाश होता है ।

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    विषय

    missing

    भावार्थ

    जैसे (दिवि) आकाश में (विद्युतः) विजुलियां (चरन्ति) गति करती हैं उसी प्रकार जब आत्मा की, या ब्रह्मानन्दरस की (विद्युतः) विशेष कान्तियां, दीप्तियां, (दिवि) समस्त संसार में या मूर्धारूप ब्रह्माण्ड में (चरन्ति) वेग से गति करती हैं तब (शुष्मिणः) अति बलवान् (पवमानस्य) अन्तःकरण को पवित्र करने हारे और आनन्द का वर्षण करने हारे ब्रह्म का (स्वनः) घोष (वृष्टेः) मेघ के समान (शृण्वे) सुनता हूं। धर्ममेघ समाधि के अवसर में अनाहत आत्मरूप पर्जन्य ध्वनि का यह वर्णन है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१ आकृष्टामाषाः। २ अमहीयुः। ३ मेध्यातिथिः। ४, १२ बृहन्मतिः। ५ भृगुर्वारुणिर्जमदग्निः। ६ सुतंभर आत्रेयः। ७ गृत्समदः। ८, २१ गोतमो राहूगणः। ९, १३ वसिष्ठः। १० दृढच्युत आगस्त्यः। ११ सप्तर्षयः। १४ रेभः काश्यपः। १५ पुरुहन्मा। १६ असितः काश्यपो देवलो वा। १७ शक्तिरुरुश्च क्रमेण। १८ अग्निः। १९ प्रतर्दनो दैवोदासिः। २० प्रयोगो भार्गव अग्निर्वा पावको बार्हस्पत्यः, अथर्वाग्नी गृहपतियविष्ठौ सहसः स्तौ तयोर्वान्यतरः। देवता—१—५, १०–१२, १६-१९ पवमानः सोमः। ६, २० अग्निः। ७ मित्रावरुणो। ८, १३-१५, २१ इन्द्रः। ९ इन्द्राग्नी ॥ छन्द:—१,६, जगती। २–५, ७–१०, १२, १६, २० गायत्री। ११ बृहती सतोबृहती च क्रमेण। १३ विराट्। १४ अतिजगती। १५ प्रागाधं। १७ ककुप् च सतोबृहती च क्रमेण। १८ उष्णिक्। १९ त्रिष्टुप्। २१ अनुष्टुप्। स्वरः—१,६, १४ निषादः। २—५, ७—१०, १२, १६, २० षड्जः। ११, १३, १५, १७ मध्यमः। १८ ऋषभः। १९ धैवतः। २१ गान्धारः॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथः पुनः परमात्माचार्ययोरेव विषयो वर्ण्यते।

    पदार्थः

    (शुष्मिणः) बलवतः (पवमानस्य) चित्तशोधकस्य परमात्मनः आचार्यस्य वा (स्वनः) आनन्दप्रवाहस्य ज्ञानप्रवाहस्य वा शब्दः (वृष्टेः स्वनः इव) वृष्टेः शब्दः इवास्ति, तम् अहम्, (शृण्वे) शृणोमि। (दिवि) आकाशे इव ममात्मनि (विद्युतः चरन्ति) सौदामिन्यः इव अध्यात्मज्योतींषि चलन्ति ॥३॥ अत्रोपमालङ्कारः ॥३॥

    भावार्थः

    यथा वर्षाकाले सस्वनं मेघाद् वारिधाराः पतन्ति विद्युतश्च विद्योतन्ते तथैवाचार्यसकाशाज्ज्ञानप्रवाहे सति शब्दा आचार्यमुखान्निस्सरन्ति ज्ञानग्राहके जीवात्मनि च ज्ञानज्योतीषिं दीप्यन्ते। तथैव परमात्मनः सकाशादानन्दरसप्रवाहेऽपि दिव्यः कश्चन वृष्टिस्वन इव श्रूयतेऽलौकिकानि ज्योतींषि चाप्यनुभूयन्ते ॥३॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ९।४१।३।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Just as lightning-flashes move in heaven, so when soul’s beauties display themselves in the universe, I hear the proclamation of the Purifying, Mighty God, like cloud’s thunder.

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    Meaning

    The music of divinity, pure, purifying and edifying, is heard like showers of rain on earth, like flashes of lightning and roar of thunder which shine and rumble over the sky. This is the reflection of the might, majesty and generosity of Soma. (Rg. 9-41-3)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (शुष्मिणः पवमानस्य) બળવાન, ધારારૂપમાં પ્રાપ્ત થનાર પરમાત્માના (स्वनः) અમૃત વચનો (वृष्टेः इव श्रृण्वे) ધારારૂપમાં પ્રાપ્ત થઈ રહેલ વર્ષાની સમાન સાંભળું છું (दिवि विद्युतः चरन्ति) તથા જેમ આકાશમાં વીજળી થતી હોય છે-ચમકતી હોય છે, તેમ પરમાત્માની આનંદ ધારાઓ થતી હોય છે-ચમકતી હોય છે. [અર્થાત્ જેમ આકાશમાં વીજળીના ચમકારા તથા મેઘ ગર્જના થતી હોય તેમ બળવાન પરમાત્માનાં અમૃતવચનો ઉપાસકનાં હૃદયમાં સંભળાય છે-અનુવાદક.]
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जशी वर्षाऋतूमध्ये मेघगर्जना करून जलवृष्टी होते व विद्युत लखलखते, तसेच आचार्याकडून ज्ञानाचा प्रवाह शब्दरूपाने बाहेर पडतो व ज्ञान ग्रहण करणाऱ्या जीवात्म्यामध्ये ज्ञानाच्या ज्योती प्रकाशित होतात. त्याच प्रकारे परमात्म्याकडून आनंदरस प्रवाहित झाल्यावर ही वृष्टीची रिमझिम ऐकू येते व अलौकिक ज्योतीचाही अनुभव येतो. ॥३॥

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