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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 916
    ऋषिः - वसिष्ठो मैत्रावरुणिः देवता - इन्द्राग्नी छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
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    इ꣣यं꣡ वा꣢म꣣स्य꣡ मन्म꣢꣯न꣣ इ꣡न्द्रा꣢ग्नी पू꣣र्व्य꣡स्तु꣢तिः । अ꣣भ्रा꣢द्वृ꣣ष्टि꣡रि꣢वाजनि ॥९१६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ꣣य꣢म् । वा꣣म् । अ꣢स्य । म꣡न्म꣢꣯नः । इ꣡न्द्रा꣢꣯ग्नी । इ꣡न्द्र꣢꣯ । अ꣣ग्नीइ꣡ति꣢ । पू꣣र्व्य꣡स्तु꣢तिः । पू꣣र्व्य꣢ । स्तु꣣तिः । अभ्रा꣢त् । वृ꣣ष्टिः꣢ । इ꣣व । अजनि ॥९१६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इयं वामस्य मन्मन इन्द्राग्नी पूर्व्यस्तुतिः । अभ्राद्वृष्टिरिवाजनि ॥९१६॥


    स्वर रहित पद पाठ

    इयम् । वाम् । अस्य । मन्मनः । इन्द्राग्नी । इन्द्र । अग्नीइति । पूर्व्यस्तुतिः । पूर्व्य । स्तुतिः । अभ्रात् । वृष्टिः । इव । अजनि ॥९१६॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 916
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 9; मन्त्र » 1
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 3; सूक्त » 4; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    प्रथम मन्त्र में परमेश्वर की स्तुति का विषय है।

    पदार्थ

    हे (इन्द्राग्नी) आत्मा और मन ! (मन्मनः) ज्ञानी (अस्य) इस परमेश्वर की (इयम्) यह (वाम्) तुम्हारे द्वारा की गयी (पूर्व्यस्तुतिः) श्रेष्ठ स्तुति (अभ्रात्) बादल से (वृष्टिः इव) वर्षा के समान (अजनि) हुई है ॥१॥ यहाँ उपमालङ्कार है ॥१॥

    भावार्थ

    जैसे बादल से बरसी हुई जलधारा भूमि को आर्द्र करती है, वैसे ही आत्मा और मन से की गयी स्तुति परमेश्वर को आर्द्र (स्नेहयुक्त) करती है। आर्द्र भूमि जैसे वृक्ष, वनस्पति आदियों को उत्पन्न करती है, वैसे ही आर्द्र किया गया परमेश्वर स्तोता के हृदय में सद्गुणों को उत्पन्न करता है ॥१॥

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    पदार्थ

    (इन्द्राग्नी) हे ऐश्वर्यवन् तथा ज्ञानप्रकाशवन् परमात्मन्! (त्वाम्) तुझ दोनों धर्म वाले परमात्मा के लिए (अस्य मन्मनः) इस मननशील उपासक की (इयं पूर्व्यस्तुतिः) यह श्रेष्ठ स्तुति (अभ्रात्-वृष्टिः-इव-अजनि) मेघ से वृष्टि की भाँति निरन्तर बरस रही है इसे स्वीकार करे॥१॥

    विशेष

    ऋषिः—वसिष्ठ (परमात्मा में अत्यन्त वसने वाला उपासक)॥ देवता—इन्द्राग्नी (ऐश्वर्यवान् ज्ञानप्रकाशवान् दोनों धर्मों से युक्त परमात्मा)॥ छन्दः—गायत्री॥<br>

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    विषय

    पूर्व्य-स्तुति

    पदार्थ

    ‘इन्द्र' देवता बल व क्षत्र का प्रतीक है 'सर्वाणि बलकर्माणि इन्द्रस्य ।' ‘अग्नि' प्रकाश व ब्रह्म [ज्ञान] का प्रतीक है । मन्त्र का ऋषि ‘वशिष्ठ मैत्रावरुणि'=प्राणापानों का साधक वशी कहता है (अस्य) = इस (मन्मनः) = विचारशील पुरुष की हे (इन्द्राग्री) = बल और ज्ञान की अधिदेवताओ ! (इयम्) = यह (पूर्व्यस्तुतिः) = श्रेष्ठ स्तुति अथवा उसका पालन व पूरण करनेवाली स्तुति (अभ्रात्) = बादल से (वृष्टिः इव) = वर्षा के समान (अजनि) = हो गयी है ।

    बादल से होनेवाली वर्षा १. सन्ताप को दूर करती है, २. शान्ति प्राप्त कराती है तथा विविध प्रकार के बीजों के विकास का कारण बनती है। इसी प्रकार विचारशील पुरुष से की गयी इन्द्राग्नी की स्तुति भी उसके जीवन से सन्ताप को दूर करनेवाली होती है, उसे शान्ति प्राप्त कराती है और उसके जीवन में विद्यमान सद्गुणों के बीजों का विकास करती है । इस प्रकार उसके जीवन का पूरण करने से यह स्तुति ‘पूर्व्य' कहलायी है। यह स्तोता को ब्रह्म व क्षत्र से युक्त करती है, उसके अन्दर इन्द्र और अग्नितत्त्व का विकास करती है । 
     

    भावार्थ

    हमारी स्तुति मननपूर्वक हो, जिससे वह हमारा पूरण करनेवाली हो ।

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    विषय

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    भावार्थ

    हे (इन्द्राग्नी) सूर्य और अग्नि सदृश गुरु शिष्य, ब्रह्म और जीव ! (वाम्) आप दोनों का (इयं) यह (पूर्व्यस्तुतिः) प्राचीन या पूर्ण सत्य गुण वर्णन (मन्मनः) मननशील विद्वान पुरुष से (अभ्राद्) मेघ से (वृष्टिः इव) वर्षा के समान (अजनि) प्रकट होता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१ आकृष्टामाषाः। २ अमहीयुः। ३ मेध्यातिथिः। ४, १२ बृहन्मतिः। ५ भृगुर्वारुणिर्जमदग्निः। ६ सुतंभर आत्रेयः। ७ गृत्समदः। ८, २१ गोतमो राहूगणः। ९, १३ वसिष्ठः। १० दृढच्युत आगस्त्यः। ११ सप्तर्षयः। १४ रेभः काश्यपः। १५ पुरुहन्मा। १६ असितः काश्यपो देवलो वा। १७ शक्तिरुरुश्च क्रमेण। १८ अग्निः। १९ प्रतर्दनो दैवोदासिः। २० प्रयोगो भार्गव अग्निर्वा पावको बार्हस्पत्यः, अथर्वाग्नी गृहपतियविष्ठौ सहसः स्तौ तयोर्वान्यतरः। देवता—१—५, १०–१२, १६-१९ पवमानः सोमः। ६, २० अग्निः। ७ मित्रावरुणो। ८, १३-१५, २१ इन्द्रः। ९ इन्द्राग्नी ॥ छन्द:—१,६, जगती। २–५, ७–१०, १२, १६, २० गायत्री। ११ बृहती सतोबृहती च क्रमेण। १३ विराट्। १४ अतिजगती। १५ प्रागाधं। १७ ककुप् च सतोबृहती च क्रमेण। १८ उष्णिक्। १९ त्रिष्टुप्। २१ अनुष्टुप्। स्वरः—१,६, १४ निषादः। २—५, ७—१०, १२, १६, २० षड्जः। ११, १३, १५, १७ मध्यमः। १८ ऋषभः। १९ धैवतः। २१ गान्धारः॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    तत्रादौ परमेश्वरस्तुतिविषयमाह।

    पदार्थः

    हे (इन्द्राग्नी) आत्ममनसी ! (मन्मनः) मन्तुः (अस्य) परमेश्वरस्य (इयम्) एषा (वाम्) युवयोः युष्मत्कृता इत्यर्थः (पूर्व्यस्तुतिः) पूर्व्या श्रेष्ठा स्तुतिः (अभ्रात्) मेघात् (वृष्टिः इव) वर्षा इव (अजनि) जाताऽस्ति ॥१॥ अत्रोपमालङ्कारः ॥१॥

    भावार्थः

    यथा मेघाद् वृष्टा वारिधारा भुवमार्द्रां करोति तथैवात्ममनःकृता स्तुतिः परमेश्वरमार्द्रयति आर्द्रा भूर्यथा वृक्षवनस्पत्यादीन् प्रसूते तथाऽऽर्द्रितः परमेश्वरः स्तोतुर्हृदये सद्गुणान् प्रसूते ॥१॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ७।९४।१।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O God and soul, this noblest praise of yours comes out of a contemplative learned person, as ram from out of the cloud !

    Translator Comment

    See verse 174.

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    Meaning

    Indra and Agni, lords of action and enlightenment, this principal and ancient song of adoration for you from the celebrant flows spontaneously like rain from the cloud. (Rg. 7-94-1)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (इन्द्राग्नी) હે ઐશ્વર્યવાન તથા જ્ઞાન-પ્રકાશવાન પરમાત્મન્ ! (त्वाम्) તમે બન્ને ધર્મવાળા પરમાત્માને માટે (अस्य मन्मनः) એ મનનશીલ ઉપાસકની (इयं पूर्व्य स्तुतिः) એ શ્રેષ્ઠ સ્તુતિ (अभ्रात् वृष्टिः इव अजनि) મેઘ-વાદળાંઓથી વર્ષાની સમાન નિરંતર વરસી રહી છે, તેનો સ્વીકાર કર. (૧)

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जशा मेघातून बरसलेल्या जलधारा भूमीला आर्द्र करतात. तसेच आत्मा व मनाने केलेली स्तुती परमेश्वराला आर्द्र (स्नेहयुक्त) करते. आर्द्रभूमी जसे वृक्ष, वनस्पती इत्यादींना उत्पन्न करते. तसेच आर्द्र झालेला परमेश्वर स्तोत्याच्या हृदयात सद्गुणांना उत्पन्न करतो. ॥१॥

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