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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 92
    ऋषिः - वामदेव: कश्यप:, असितो देवलो वा देवता - अङ्गिराः छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः काण्ड नाम - आग्नेयं काण्डम्
    72

    इ꣣त꣢ ए꣣त꣢ उ꣣दा꣡रु꣢हन्दि꣣वः꣢ पृ꣣ष्ठा꣡न्या रु꣢꣯हन् । प्र꣢ भू꣣र्ज꣢यो꣣ य꣡था꣢ प꣣थो꣡द्यामङ्गि꣢꣯रसो ययुः ॥९२

    स्वर सहित पद पाठ

    इ꣣तः꣢ । ए꣣ते꣢ । उ꣣दा꣢रु꣢हन् । उ꣣त् । आ꣡रु꣢꣯हन् । दि꣣वः꣢ । पृ꣣ष्ठा꣡नि꣢ । आ । अ꣣रुहन् । प्र꣢ । भूः꣣ । ज꣡यः꣢꣯ । य꣡था꣢꣯ । प꣣था꣢ । उत् । द्याम् । अ꣡ङ्गि꣢꣯रसः । य꣣युः ॥९२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इत एत उदारुहन्दिवः पृष्ठान्या रुहन् । प्र भूर्जयो यथा पथोद्यामङ्गिरसो ययुः ॥९२


    स्वर रहित पद पाठ

    इतः । एते । उदारुहन् । उत् । आरुहन् । दिवः । पृष्ठानि । आ । अरुहन् । प्र । भूः । जयः । यथा । पथा । उत् । द्याम् । अङ्गिरसः । ययुः ॥९२॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 92
    (कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 5; मन्त्र » 2
    (राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 10;
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में योगी लोग क्या करते हैं, इसका वर्णन है।

    पदार्थ

    (एते) ये (अङ्गिरसः) अग्निस्वरूप, अंगारे के समान तेजस्वी, अंगों के रसभूत, प्राणप्रिय परमेश्वर का ध्यान करनेवाले तपस्वी योगजन (इतः) इस अन्नमय कोश से या मूलाधार चक्र से (उत् आरुहन्) ऊर्ध्वारोहण करते हैं, क्रमशः (दिवः पृष्ठानि) अन्तरिक्ष के सोपानों पर, अर्थात् मध्यवर्ती कोशों या मध्यवर्ती चक्रों पर (आरुहन्) चढ़ जाते हैं, और फिर (द्याम्) द्युलोक पर अर्थात् आनन्दमयरूप सर्वोच्च कोश पर या सहस्रार-रूप सर्वोच्च चक्र पर (उद् ययुः) पहुँच जाते हैं। हे सखे ! तू भी वैसे ही (प्र भूः) उत्कृष्ट बन अथवा समर्थ बन, (यथा) जिससे (पथा) सन्मार्ग पर चलकर, तुझे (जयः) विजय प्राप्त हो ॥२॥

    भावार्थ

    मानव-शरीर में अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय, आनन्दमय ये पाँच कोश और मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूर, अनाहत, विशुद्ध, ललित, आज्ञा, सहस्रार ये आठ चक्र हैं। योगाभ्यासी लोग स्थूल कोश से सूक्ष्म-सूक्ष्मतर कोशों के प्रति आरोहण करते हुए सूक्ष्मतम आनन्दमय कोश को प्राप्त कर परम ब्रह्मानन्द का अनुभव करते हैं। इसी प्रकार निचले चक्र मूलाधार से प्राणों का ऊर्ध्व चङ्क्रमण करते-करते अन्त में सहस्रार चक्र में प्राणों को केन्द्रित कर मस्तिष्क और हृदय में परमात्म-ज्योति की अविच्छिन्न धारा को प्रवाहित कर लेते हैं। हे मित्र ! तुम भी वैसा ही सामर्थ्य संग्रह करो, जिससे उत्तरोत्तर अधिकाधिक उत्कृष्ट मार्ग पर चलते हुए तुम्हें विजय हस्तगत हो सके ॥२॥

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    पदार्थ

    (एते-अङ्गिरसः) ये सोम आदि नाम वाले परमात्मा के उपासक श्रवणशील मननशील निदिध्यासनशील आत्मसमर्पण द्वारा अङ्गी—अङ्गों के स्वामी स्वात्मा को रसीला बनाने वाले योगीजन (इतः-उदारुहन्) इस मर्त्य स्थिति से ऊपर उठ जाते हैं पुनः ऊपर उठते उठते (दिवः पृष्ठानि-आरुहन्) सूर्य की पृष्ठों पर—सूर्य की तेज रश्मियों पर आरूढ़ हो जाते हैं। “तेजो वै पृष्ठानि” [तै॰ सं॰ ५.५.८.१] “सूर्यद्वारेण ते विरजाः प्रयान्ति यत्रामृतः स पुरुषो ह्यव्यय आत्मा” [मुण्डको॰ १.२.११] (द्यां प्रययुः) तेजों रश्मियों द्वारा अमृतधाम को प्रगमन कर जाते हैं प्राप्त हो जाते हैं “द्यौरपराजिता अमृतेन विष्टा” [तै॰ ४.४.५.२] “त्रिपादस्यामृतं दिवि” [ऋ॰ १०.९०.३] (यथा भूर्जयः पथः) जैसे स्वगुणपराक्रमों से भूमण्डल पर जय पाते हुए राजा लोग उत्तम शासन पथों मार्गों को प्राप्त करते हैं।

    भावार्थ

    सोम आदि नामों से परमात्मा की उपासना करने वाले श्रवण मनन निदिध्यासन परायण उपासकजन अङ्गों के स्वामी आत्मा को रसीला बनाने वाले योगीजन मरणदेह से ऊपर उठकर सूर्य की तेजोरूप रश्मियों पर आरूढ़ हो जाते हैं पुनः अमृतरूप मोक्षधाम को प्राप्त हो जाते हैं जैसे भूमि को जय करते हुए राजा लोग उत्तम शासन पथों—मार्गों को प्राप्त होते हैं॥२॥

    विशेष

    ऋषिः—वामदेवः (वननीय परमात्मा देव जिसका है ऐसा उपासक)॥ देवताः—विश्वेदेवाः (सब देवनामों से प्रसिद्ध परमात्मा के भिन्न भिन्न स्वरूप)॥<br>

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    विषय

    ये ऊपर उठते हैं

    पदार्थ

    (एते)=सौम्यता आदि वैयक्तिक व गुणग्राहकता आदि सामाजिक गुणों को अपने अन्दर धारण करनेवाले ये व्यक्ति (इतः) = इस पृथिवी-पृष्ठ से (उत्) = ऊपर (आरुहन्) = चढ़ते हैं, (दिव:)= द्युलोक के (पृष्ठानि)=पृष्ठों पर (आरुहन्) = आरूढ़ होते हैं। मनुष्य जीवन का यही लक्ष्य होना चाहिए कि (पृष्ठात्पृथिव्या अहमन्तरिक्षमारुहम्) = पृथिवी-पृष्ठ से मैं अन्तरिक्ष में पहुँचूँ, और (अन्तरिक्षात् दिवम् आरुहम्)=अन्तरिक्ष से मैं द्युलोक में पहुचूँ। इस (दिवो नाकस्य पृष्ठात्) = स्वर्गलोक के पृष्ठरूप द्युलोक से ही तो मैं (स्वर्ज्योतिः अगाम् अहम्) = स्वयं देदीप्यमान् ज्योति ब्रह्म को प्राप्त करूँगा।

    (द्याम्)=द्युलोक को (प्र- ययुः) = प्राप्त होते हैं। कौन?

    १. (भूर्जयः) = [भूरिति प्राणः, तं जयति] प्राणों का विजय करनेवाला । प्राणों के विजय से सब आसुर भावनाएँ नष्ट-भ्रष्ट हो जाती हैं। प्राणों के संयम से इन्द्रियों के दोष जल जाते हैं, जैसेकि अग्नि में धातुओं के मल । एवं, प्राणविजय से निर्मल बन हम ऊपर उठते हैं। 

    २. (यथा पथः) = [पथं अनतिक्रम्य गच्छति] जो व्यक्ति मार्ग का उल्लंघन न करके चलता है, जिसकी सब क्रियाएँ नपी- तुली होती हैं।

    ३. (अंगिरसः)=अङ्गरसवाले व्यक्ति, जिनका शरीर सूखे काष्ठ की भाँति निर्जीव न हो गया हो। प्राणायाम और योगमार्ग से चलने का यह परिणाम होगा कि हम अपने नवें तथा दसवें दशक तक भी स्निग्ध त्वचावाले, सरस अङ्गोवाले बने रहेंगे, हम नवग्व व दशग्व होंगे । [नवदशकपर्यन्तं गच्छतीति नवग्व:]। इसी प्रकार अंगिरस वही व्यक्ति हो सकता है जो विषयों का शिकार नहीं बनता। विषय तो उसे शीघ्र ही जीर्ण-शीर्ण शरीरवाला बना देंगे। 

    भावार्थ

    हम प्राणों को वश में करनेवाले, योगमार्ग से चलनेवाले, अङ्गों को शक्ति-सम्पन्न रखनेवाले बनें और द्युलोक में पहुँचें ।

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    विषय

    परमेश्वर की स्तुति

    भावार्थ

    भा० = ( भूर्जय:१  ) = पृथिवी को विजय करने हारे राजर्षि लोग (  यथा ) = जिस प्रकार ( पथः ) = मार्ग से ( द्यां ययुः ) = द्यौ लोक या आदित्य लोक, या स्वर्ग को जाते हैं। उसी प्रकार ( एते ) = ये ( अंगिरसः ) = योगी, ज्ञानी लोग भी ( इतः ) = इस लोक से ( दिवः पृष्ठानि ) = आदित्य के समान प्रकाशमान मोक्ष के सुखों को ( उत् आरुहन् ) = ऊर्ध्वगति से प्राप्त करते हैं । 
    अपने २ धर्म के पालन से राजर्षि और ब्रह्मर्षि दोनों समान लोक में जाते हैं । अथवा ( भूः ) = गृहस्थाश्रम को विजय करके आश्रम परम्परा से निकलकर कर्मिष्ठ लोग जिस मार्ग से मोक्ष का लाभ करते हैं उसी प्रकार से ब्रह्मज्ञानी गृहस्थ में न जाकर भी मोक्ष लोक को ज्ञान के बल से प्राप्त करते हैं ।

    टिप्पणी

    १. भूर्जय: भृज्जति: पाककर्मा हविषां पक्तारः इति सा० । भूः -जयः इति  पदकारः । भूः पृथिवी तां ये महावीराख्येनानुष्ठानेन जितवन्तः, ते इति ( मा० वि० ) = भूर्जयः कर्षिणः ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः - वामदेव: ।

    देवता - अङ्गिराः।

    छन्दः - अनुष्टुप्

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ योगिनः किं कुर्वन्तीत्याह।

    पदार्थः

    अङ्गिरसो देवताः। (एते) इमे (अङ्गिरसः) अग्निस्वरूपम् अङ्गारवत् तेजस्विनम् अङ्गरसभूतं प्राणप्रियं परमेश्वरं ध्यायन्तस्तपस्विनो योगिनः। अङ्गारेषु अङ्गिराः। निरु० ३।१७। अङ्गिरा उ ह्यग्निः। श० १।४।१।२५। अङ्गिरसं मन्यन्ते अङ्गानां यद् रसः। छा० उ० १।२।१० प्राणो वा अङ्गिराः। श० ६।१।२।२८। भृगूणाम् अङ्गिरसां तपसा तप्यध्वम्। तै० सं० १।१।७।२। (इतः) अस्माद् अन्नमयकोशाद् मूलाधारचक्राद् वा (उत् आरुहन्) ऊर्ध्वम् आरोहन्ति, क्रमशश्च (दिवः पृष्ठानि) अन्तरिक्षस्य सोपानानि—मध्यवर्तिकोशान्, मध्यवर्तिचक्राणि वा (आरुहन्) आरोहन्ति। ततश्च (द्याम्) द्युलोकम्—आनन्दमयरूपं सर्वोच्चकोशम्, सहस्राररूपं सर्वोच्चचक्रं वा (उद् ययुः) उद्गच्छन्ति। छन्दसि लुङ्लङ्लिटः। अ० ३।४।६ इति नियमेन भूतवाचिलकारा अत्र सामान्यकाले प्रयुक्ताः। हे सखे ! त्वमपि तथैव (प्र भूः१) प्रकृष्टो भव, यद्वा प्रभवसमर्थो भव, (यथा) येन प्रकारेण (पथा) सन्मार्गेण, तव (जयः) विजयः, भवेद् इति शेषः ॥२॥२

    भावार्थः

    मानवशरीरेऽन्नमय-प्राणमय-मनोमय-विज्ञानमय-आनन्दमयरूपाः पञ्चकोशाः, मूलाधार-स्वाधिष्ठान-मणिपूर-अनाहत-विशुद्ध-ललित-आज्ञा-सहस्राररूपाण्यष्ट चक्राणि च विद्यन्ते। योगभ्यासिनो जनाः स्थूलकोशात् सूक्ष्मसूक्ष्मतरकोशान् प्रत्युत्क्रामन्तः सूक्ष्मतमकोशम् आनन्दमयम् अधिगम्य परं ब्रह्मानन्दमनुभवन्ति। किञ्च, निम्नचक्रान्मूलाधारात् प्राणचङ्क्रमणक्रमेणान्ते सहस्रारचक्रे प्राणान् केन्द्रीकृत्य मस्तिष्के हृदये च परमात्मज्योतिषोऽविच्छिन्नां धारां प्रवाहयन्ति। हे सखे ! त्वमपि तथैव सामर्थ्यं संचिनु, येनोत्तरोत्तरमुत्कृष्टतरमार्गमनुधावतो विजयस्तव हस्तगतो भवेत् ॥२॥

    टिप्पणीः

    १. तुलनीयम्—प्रभूर्जयन्तम् इति ७४ संख्यकसाममन्त्रभाष्यम्। प्रभूर्जयः। भूः पृथिवी तां ये पशुकर्मादिभिः महावीराख्येन च कर्मणा प्रकर्षेण जितवन्तः ते प्रभूर्जयः—इति वि०। भूर्जतेः पाककर्मणः भूर्जय इति रूपम्। हविषां पक्तारः अङ्गिरसः—इति भ०। भूर्णयः भृज्जतिः पाककर्मा, हविषां पक्तारः—इति सा०। सायणीये च व्याख्याने दोषमुद्भावयन्तः प्राहुः सत्यव्रतसामश्रमिणः—“नेदं व्याख्यानं साधु मन्यते, भूः जयः इत्येवं पदकारकृतावग्रहदर्शनात्, न हिः ‘भूर्जयः इति रूपे भूः जयः इत्येवमवग्रहः संभवति, नापि तदधीनस्वरश्रुतिः” इति। २. एष मन्त्रो योगसिद्ध्या गगनारोहणविषयेऽपि व्याख्यातुमलम्। यथाह दयानन्दर्षिः य० १७।६७ मन्त्रभाष्ये—“यदा मनुष्यः स्वात्मना सह परमात्मानं युङ्क्ते तदाणिमादयः सिद्धयः प्रादुर्भवन्ति, ततोऽव्याहतगत्याऽभीष्टानि स्थानानि गन्तुं शक्नोति, नान्यथा।” इति।

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Just as conquerors of the world attain to salvation through the path of domestic life, so do these Yogis go up to the height of blissful salvation.

    Translator Comment

    It is possible to attain salvation by disinterested saviours of humanity, who lead a married life, and rule selflessly, as it is for the Yogis who don’t marry and enter domestic life. Marriage in itself is no bar to the attainment of final beatitude. The underlying spirit for the attainment of salvation is disinterested service. Raj Rishis and Brahm Rishis both are qualified for salvation One follows the path of celibacy, the other of domestic life.^Griffith has translated the word ‘Angirasas’ as children of Angiras, regarded as a race of higher beings between Gods and men, the typical first sacrificer whose ritual is the pattern which later priests should follow. This interpretation is in-applicable, as there is no history in the Vedas. The word means learned Yogis. Pt. Jawala Prasad has used the word पथा instead of पथी, and एते has been mentioned as एत। The word भूर्जयः has been mentioned by him as भूः जयः The grammatical errors have been pointed out by Swami Tulsi Ram, and Pt. Satyavrat Sam-Ashrami; the well known scholar of the Vedas.

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    Meaning

    Just as winners of the earth march forward by paths of freedom so do these adventurers of the spirit rise from here by stages to the heights of heaven and reach the realm of freedom and divine bliss in Moksha.

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    Translation

    Hence these Nature's bounties gone up high and mounted to topmost heights of heaven — they become conquerers on the path by which our divine intellectuals, adept in spiritual practices, travel to the lofty sky.

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (एते अङ्गिरसः) એ સોમ આદિ નામવાળા પરમાત્માના ઉપાસકો શ્રવણશીલ , મનનશીલ , નિદિધ્યાસનશીલ આત્મસમર્પણ દ્વારા અંગી - અંગોના સ્વામી પોતાના આત્માને રસીલા બનાવનાર યોગીજનો (इतः उदारुहन्) મર્ત્ય સ્થિતિથી ઉપર ઉઠી જાય છે. પુનઃ ઉપર ઊઠતાં ઊઠતાં (दिवः पृष्ठानि आरुहन्) સૂર્યની પીઠ પર - સૂર્યના તેજ કિરણો પર આરૂઢ બની જાય છે. (द्यां प्रययुः) તે જ કિરણો દ્વારા અમૃત ધામમાં પ્રગમન કરી જાય છે - પ્રાપ્ત થઈ જાય છે. (यथा भूर्जयः पथः) જેમ સ્વગુણ પરાક્રમોથી ભૂમંડળ પર વિજય પ્રાપ્ત કરીને રાજા લોકો ઉત્તમ શાસન માર્ગોને પ્રાપ્ત કરે છે. 

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : સોમ આદિ નામોથી પરમાત્માની ઉપાસના કરનારા શ્રવણ , મનન , નિદિધ્યાસન પરાયણ ઉપાસકજનો અંગોના સ્વામી આત્માને રસીલા બનાવનાર યોગીજનો મરણ દેહથી ઉપર ઊઠીને સૂર્યનાં તેજરુપ કિરણો પર આરૂઢ થઈ જાય છે. પુનઃ અમૃતરૂપ મોક્ષધામને પ્રાપ્ત થઈ જાય છે. જેમ ભૂમિનો વિજય કરતા રાજાલોક ઉત્તમ શાસન માર્ગોને પ્રાપ્ત થાય છે. (૨)

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    उर्दू (1)

    Mazmoon

    یوگ کے مرحلے

    Lafzi Maana

    (یتھا ایتے انگرِسہ) جیسے یہ پرانایام ابھیاسی یوگی (اتہ) اِس مول آدھار چکر سے (یتھ اُدار وہن) ہوتے ہوئے اُوپر کے راستوں پر بالترتیب چڑھتے جاتے ہیں، اور پھر (دوپرشٹھانی) پِنڈ اس شریر کا جومتشک (پیشانی) ہے (آروہن) اُس پر پہنچ جاتے ہیں، تب یہ (دیام یُیو) وہاں دِویہ جیوتی کو پراپت کر لیتے ہیں، ویسے ہے اُپاسک توُ بھی (پربُھو) اس طرح سامرتھ شکتی کو حاصل کر کے (جے) یوگ ابھیاس کی منزل پروجے پراپت کر۔
     

    Tashree

    آٹھ چکروں کا بیان
    منتر کے بھاؤ میں سام وید بھاشیہ کا وِدّیا مارتنڈ پنڈت وِشو ناتھ جی نے چکروں کے ورنن میں لکھا ہے کہ سُشمنا ناڑی کے نچلے حصے میں مول آدھار چکر ہے، پھر بالترتیب سوُادھشٹان چکر، منی پور چکر، اناہت چکر جو ہردیہ کے نزدیک ہے۔ وِشدھ چکر جو کنٹھ (گلے) میں ہے، آگیا چکر جو دونوں بھوؤں کے درمیان میں ہے اور سہسرار چکر جو پیشانی میں ہے۔ یوگی کا چِت جب اِس میں ٹھر جاتا ہے، تب دوِیہ پرکاش دکھائی دینے لگتا ہے۔ مُکت آتما کے پران اِسی راستے سے نکلتے ہیں۔
    پُرشارتھ سے یوگی جن اوُپر کو اُٹھتے جاتے ہیں،
    کرت کرت ابھیاس پربُھو کے امرت پد کو پاتے ہیں۔

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    मानव शरीरात अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय, आनंदमय हे पाच कोश आहेत व मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूर, अनाहत, विशुद्ध, ललित, आज्ञा, सहस्रार हे आठ चक्र आहेत. योगाभ्यासी लोक स्थूल कोशापासून सूक्ष्म-सूक्ष्मतर कोशावर आरोहण करून सूक्ष्मतम आनंदमय कोशाला प्राप्त करून परम ब्रह्मानंदाचा अनुभव घेतात. याच प्रकारे निम्न चक्र मूलाधारातून प्राणांची ऊर्ध्व गती करत करत शेवटी सहस्रार चक्रात प्राण केंद्रित करून मस्तिष्क व हृदयात परमात्म- ज्योतीची अविच्छिन्न धारा प्रवाहित करतात. हे मित्रा! तूही तसेच सामर्थ्य संग्रहित कर, ज्यामुळे उत्तरोत्तर अधिकाधिक उत्कृष्ट मार्गावर चालत तू विजयी होऊ शकशील ॥२॥

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    विषय

    पुढील मंत्रात योगीजन काम करतात हे वर्णित आहे.

    शब्दार्थ

    (एत) ये (अड्ग्ग्गिरसः) अग्निस्वरूप, निखाऱ्याप्रमाणे तेजस्वी, अंगांचे रसभूत आणि प्राणप्रिय परमेश्वराचे ध्यान करणारे तपस्वी योगीजन आहे, ते (इतः) या अन्नमयकोशापासून वा मूलाधार चक्रापासून (उतू आरुहन्) ऊर्ध्वारोहण करतात. ते क्रमशः (दिवः पृष्ठानि) अंतरिक्षाच्या सोपानावर म्हणजे शरीराच्या मध्यवर्ती कोशांवर अथवा मध्यवर्ती चक्रांवर (आरुहन्) चढून उंच जातात आणि पुन्हा (घाम्) घुलोकावर अर्थात आनन्दमय रूप सर्वोच्च कोशावर वा सहस्त्राररूप सर्वोच्च चक्रावर (उद ययुः) पोचतात. हे मित्र, तूदेखील त्यांच्याप्रमाणे (प्र. भूः) उत्कृष्ट वा समर्थ हो. (यथा) ज्यायोगे तू (पक्षा) सन्मार्गावर चालत (जयः) विजय प्राप्त करशील. ।। २।।

    भावार्थ

    मानव- शरीरामध्ये अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय आणि आनन्दमय हे पाच कोश असून मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर, अनाहत, विशुद्ध, ललित, आज्ञा, सहस्त्रार हे आठ चक्र आहेत. योगाभ्यासी लोक स्थूल कोशापासून सूक्ष्म- सूक्ष्मतर कोशांकडे आरोहण करीत करीत सूक्ष्मतम कोश म्हणजे आनन्दमय कोशास प्राप्त करून परमानन्द ब्रह्मानंदाचा अनुभव घेतात. तसेच निम्न चक्र मूलाधारपासून प्राणांचे ऊर्ध्व संक्रमण करीत करीत अन्ततः सहस्त्रार चक्रामध्ये आपले प्राण केंद्रित करून मस्तिष्क व हृदयात परमात्म ज्योतीच्या अविरत धारा प्रवाहित करून घेतात. हे मित्र, तूही तसेच सामर्थ्य संचित कर की ज्यामुळे उत्तरोत्तर अधिकाहून अधिक उत्कृष्ट मार्गावर चालत तुम्हाला विजय वा सर्व कार्यात यश प्राप्त करता येईल. ।। २।। (टीप - ‘द्यूलोक’ ‘अंतरिक्ष’ या शब्दांतून असाही अर्थ ध्वनित होतो की योगी आपल्या योगविद्यांद्वारे केवळ पृथ्वीवरच नव्हे, तर आकाश, द्योलोक आदी अतिदूरवर्ती लोकापर्यंत प्रवास व विहार करू शकतात. हा संकेतितार्थ मराठी अनुवादकाचा आहे.)

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    तमिल (1)

    Word Meaning

    [1] அங்கிரசர்கள் சுவர்க்கத்திற்குச் செல்லும் வழியை ஜயிக்கவும். (இதனால்) சுவர்க்கத்தின் நிலைகளை அடைந்து உயரத்தில் இவர்கள் செல்லுகிறார்கள்.

    FootNotes

    [1] அங்கிரசர்கள் - ஞான புருஷர்கள்

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