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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 91
    ऋषिः - अग्निस्तापसः देवता - विश्वेदेवाः छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः काण्ड नाम - आग्नेयं काण्डम्
    86

    सो꣢म꣣ꣳ रा꣡जा꣢नं꣣ व꣡रु꣢णम꣣ग्नि꣢म꣣न्वा꣡र꣢भामहे । आ꣣दित्यं꣢꣫ विष्णु꣣ꣳ सू꣡र्यं꣢ ब्र꣣ह्मा꣡णं꣢ च꣣ बृ꣢ह꣣स्प꣡ति꣢म् ॥९१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सो꣡म꣢꣯म् । रा꣡जा꣢꣯नम् । व꣡रु꣢꣯णम् । अ꣣ग्नि꣢म् । अ꣣न्वा꣡र꣢भामहे । अ꣣नु । आ꣡र꣢꣯भामहे । आ꣣दित्य꣢म् । आ꣣ । दित्य꣢म् । वि꣡ष्णु꣢꣯म् । सू꣡र्य꣢꣯म् । ब्र꣣ह्मा꣡ण꣢म् । च꣣ । बृ꣡हः꣢꣯ । प꣡ति꣢꣯म् ॥९१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सोमꣳ राजानं वरुणमग्निमन्वारभामहे । आदित्यं विष्णुꣳ सूर्यं ब्रह्माणं च बृहस्पतिम् ॥९१॥


    स्वर रहित पद पाठ

    सोमम् । राजानम् । वरुणम् । अग्निम् । अन्वारभामहे । अनु । आरभामहे । आदित्यम् । आ । दित्यम् । विष्णुम् । सूर्यम् । ब्रह्माणम् । च । बृहः । पतिम् ॥९१॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 91
    (कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 5; मन्त्र » 1
    (राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 10;
    Acknowledgment

    हिन्दी (5)

    विषय

    प्रथम मन्त्र में सोम, वरुण आदि का आह्वान किया गया है।

    पदार्थ

    प्रथम—परमात्मा के पक्ष में। हम (राजानम्) सबके राजा, (सोमम्) चन्द्रमा के समान आह्लाद देनेवाले, चराचर जगत् के उत्पादक सोम नामक परमात्मा का, (वरुणम्) सब शिष्ट, मुमुक्षु, धर्मात्मा जनों को वरनेवाले और उन सबके द्वारा वरे जानेवाले वरुण नामक परमात्मा का, (अग्निम्) सबके अग्रनायक, प्रकाशस्वरूप अग्निनामक परमात्मा का, (आदित्यम्) प्रलयकाल में सब जगत् को प्रकृति के गर्भ में ग्रहण कर लेनेवाले, अविनाशीस्वरूप, सूर्य के समान सत्य, न्याय और धर्म के प्रकाशक आदित्य नामक परमात्मा का, (विष्णुम्) चराचर में व्यापक विष्णु नामक परमात्मा का, (ब्रह्माणम्) सबसे महान् ब्रह्मा नामक परमात्मा का, (बृहस्पतिं च) और विशाल आकाशादिकों के स्वामी, वृद्धि के अधिपति बृहस्पति नामक परमात्मा का (अनु आ रभामहे) आश्रय लेते हैं ॥ द्वितीय—राष्ट्र के पक्ष में। मन्त्रोक्त सब देव विभिन्न राज्यमन्त्री अथवा राज्याधिकारी हैं, यह समझना चाहिए, जैसा कि मनु ने कहा है—राजा को चाहिए कि अपने देश के मूल निवासी, वेदादिशास्त्रों के ज्ञाता, शूरवीर, लक्ष्य को पा लेनेवाले, कुलीन, सुपरीक्षित सात या आठ मन्त्री बनाये (मनु० ७।५४)। हम प्रजाजन (सोमम्) चन्द्रमा के समान प्रजाओं को आह्लाद देनेवाले (राजानम्) राजा का, (वरुणम्) दण्डाधिकारी का, (अग्निम्) सेना के अग्रनायक सेनाध्यक्ष का, (आदित्यम्) कर-अधिकारी का, (विष्णुम्) व्यापकरूप से प्रजाओं का कार्य सिद्ध करनेवाले प्रधानमन्त्री का, (सूर्यम्) सूर्य के समान रोग-निवारक स्वास्थ्य-मन्त्री का, (ब्रह्माणम्) यज्ञाधिकारी का, (बृहस्पतिं च) ओर शिक्षा-मन्त्री का, (अनु आरभामहे) राष्ट्र के उत्कर्ष के लिए आश्रय लेते हैं ॥१॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है ॥१॥

    भावार्थ

    अग्नि, सोम, वरुण, आदित्य, विष्णु, सूर्य, ब्रह्मा, बृहस्पति आदि अनेक नामों से वेदों में जिसकी कीर्ति गायी गयी है, उस एक परमेश्वर का सबको आश्रय लेना चाहिए। उसी प्रकार राष्ट्र में अनेक मन्त्रियों और राज्याधिकारियों के साथ मिलकर राष्ट्र का संचालन करनेवाले राजा का भी सब प्रजाजनों को आश्रय ग्रहण करना चाहिए तथा अपना सहयोग देकर उसका सत्कार करना चाहिए ॥१॥

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    पदार्थ

    (राजानम्) सर्वत्र राजमान—विराजमान (सोमम्) उत्पत्तिकर्ता होने से सोमनामक—(अग्निम्) अग्रणायक होने से अग्निनामक—(आदित्यम्) अदिति—अखण्ड सुखसम्पत्ति—मुक्ति के अधिपति होने से आदित्यनामक—(विष्णुम्) सबमें व्यापक होने से विष्णुनामक—(सूर्यम्) सबके प्रेरक प्रकाशक होने से सूर्यनामक—(ब्रह्माणम्) सृष्टि रचयिता होने से ब्रह्मा नाम वाले (च) और (बृहस्पतिम्) वेदवाणी का रक्षक होने से बृहस्पति नाम वाले परमात्मा को (अन्वारभामहे) अनुष्ठित करें—उपासित करें—उपासना में लावें।

    भावार्थ

    परमात्मा अपने भिन्न भिन्न गुणों और कर्मों के कारण भिन्न भिन्न नाम से उपासित करने—उपासना में लाने योग्य है, संसार के सोम आदि दिव्य पदार्थों में गुण उस परमात्मा से आते हैं वही उनमें उनके दिव्यगुणों का आधान करने वाला होने से उस उस रूप में देखा जाता है अतः वह उस उस रूप में एवं योगवशात् धर्मवान् होने से वैसा स्मरण करने योग्य है, मनुष्य सांसारिक सोम आदि पदार्थों में ही न फँसा रहे॥१॥

    विशेष

    छन्दः—अनुष्टुप्॥ स्वरः—गान्धारः। ऋषिः—अग्निस्तापसः (तप से सम्पन्न अग्निसमान तेजस्वी अभ्यासी उपासक)॥ देवताः—विश्वे देवाः (सब देवनामों से प्रसिद्ध परमात्मा के भिन्न भिन्न स्वरूप)॥<br>

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    विषय

    सोम से बृहस्पति तक

    पदार्थ

    इस मन्त्र का ऋषि अग्नि-प्रगतिशील स्वभाववाला, जोकि तापस-तपस्वी है, अपने वैयक्तिक व सामाजिक जीवन को निम्न गुणों से अलंकृत करता है९१. सोमं राजानं

    १. (सोमम् अनु आरभामहे)=सोम के साथ हम अपने जीवन को प्रारम्भ करते हैं, अर्थात् अपने जीवन में सौम्यता लाने का प्रयत्न करते हैं। [यहाँ अनु का प्रयोग तृतीया के अर्थ में हुआ है, (अनु) = के साथ ] । मनुष्य का सबसे प्रथम गुण सौम्यता है। प्रभु सौम्य व्यक्तियों का ही पथ-प्रदर्शन करते हैं- (सोम्यानाम् भ्रमिरसि) । = गुरु सौम्य विद्यार्थियों को प्रेम से पढ़ाते हैं। एवं, यह सौम्यता हमें उन्नत करती है।

    (राजानम्)=अपने जीवन को हम राजा के साथ चलाते हैं। राजा शब्द नियमितता का प्रतीक है। राजा भी राजा इसीलिए कहलाता है कि वह प्रजा के जीवन को नियमित बनाता है। [राज्=to regulate ] । हम अपने जीवन को सूर्य और चन्द्र की भाँति नियमित करते हैं, clockwise चलाते हैं। यह नियमितता हमें स्वास्थ्य व दीर्घजीवन प्राप्त कराती है।

    (वरुणम्)=हम श्रेष्ठ बनते हैं। परतन्त्रता के साथ अवगुणों का व स्वतन्त्रता के साथ सद्गुणों का वास है। यहाँ शरीर मंस इन्द्रियों की दासता हमारे सद्गुणों की दस्यु -destroyer बनती है और जितेन्द्रिता सद्गुणों की जननी, अतः हम स्वतन्त्र बनकर श्रेष्ठ बनते हैं। वरुण पाशी है, प्रचेता है। हम समझदारी से इन्द्रियों को मर्यादाओं से जकड़कर रखते हैं और श्रेष्ठ बनते हैं।

    (अग्निम्)=हम अग्नि की भावना के साथ जीवन चलाते हैं। ('अधः कृतस्यापि तनूनपातो नाधः शिखा याति कदाचिदेव') = नीचे की हुई भी अग्नि की ज्वाला ऊपर ही जाती है। हम भी अपने जीवन में समय-समय पर होनेवाली असफलताओं से नीचे नहीं बैठ जाते, अपितु आगे और आगे- शिखर पर -(“मूर्ध्नि वा सर्वलोकस्य”) = यही हमारा जप होता है।

    इस प्रकार सौम्यता, नियमितता, मर्यादाशीलता व उच्च लक्ष्यता से वैयक्तिक जीवन को सुन्दर बनाकर हम समाज में प्रवेश करते हैं और वहाँ

    (आदित्यम्)=आदित्य के साथ अपने जीवन को प्रारम्भ करते हैं। आदान- ग्रहण करने के कारण सूर्य को आदित्य कहते हैं। वह कीचड़ व खारी समुद्र में से भी मल व खारेपन को छोड़कर शुद्ध जल का ही ग्रहण करता है। हम भी दोषों को छोड़कर गुणों का ही ग्रहण कर अपने जीवन को गुणों से भूषित करते हैं और इसके लिए

    (विष्णुम्)=अपने जीवन को [विष्लृ व्याप्तौ] व्यापक मनोवृत्ति से युक्त करते हैं। व्यापक व उदार मनोवृत्तिवाला ही सब स्थानों से गुणों का ग्रहण कर पाता है।

    (सूर्यम्) = सामाजिक जीवन में हमारा यह सिद्धान्त होना चाहिए कि हम सूर्य की भाँति अपना कार्य करते चलें। सूर्य कभी इस प्रतीक्षा मे रुकता नहीं कि औरों ने अपना कार्य किया है या नहीं।

    (ब्रह्माणम्) = हम ब्रह्मा के साथ अपना जीवन प्रारम्भ करते हैं। ब्रह्मा creator है - कर्ता है, नकि ध्वंसक। हम भी समाज में 'निर्माण' का अपना लक्ष्य बनाकर चलें। हमारा सामाजिक जीवन गुणग्राही, उदार, क्रियाशील व निर्माणवाला हो।

    यदि इस प्रकार हम वैयक्तिक व सामाजिक गुणों से अपने जीवन को अलंकृत करेंगे तो हम (बृहस्पतिम्) = ऊर्ध्वा दिक् के अधिपति होंगे, अर्थात् सर्वोच्च शिखर पर पहुँच पाएँगे–‘परमे-ष्ठी' होंगे, ब्रह्मा-जैसे बन जाएँगे।

    भावार्थ

    हमारा जीवन सदा सोम से प्रारम्भ हो, जिससे हम बृहस्पति बन पाएँ ।

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    पदार्थ

    शब्दार्थ = हम ( सोमम् ) = शान्त स्वरूप, शान्तिदायक, सारे जगत् के जनक  ( राजानम् ) = सबके प्रकाशक  ( वरुणम् ) = श्रेष्ठ  ( अग्निम् ) = सर्वत्र व्यापक, पूज्य, ज्ञानस्वरूप, सन्मार्ग-प्रदर्शक, परमात्मा को  ( अनु आरभामहे ) = प्रतिदिन स्मरण करते हैं  ( च ) = और  ( आदित्यम् ) = अखण्ड  ( विष्णुम् ) = सर्वत्र व्यापक  ( सूर्यम् ) = सब चराचर के आत्मा  ( ब्रह्माणम् ) = सबसे बड़े  ( बृहस्पतिम् ) = वेदवाणी के स्वामी को हम सदा स्मरण करते हैं। 

    भावार्थ

    भावार्थ = जिस परमेश्वर के ये नाम हैं— सोम, राजा, वरुण, अग्नि, आदित्य, विष्णु, सूर्य, ब्रह्मा और बृहस्पति ऐसे अनन्त नामोंवाले परमात्मा को हम सदा स्मरण करते हैं। क्योंकि वह जगत्पति, परमेश्वर ही इस लोक और परलोक में हमें सुखी करनेवाला है । 

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    विषय

    परमेश्वर की स्तुति

    भावार्थ

    भा० = हम ( सोमं ) = शान्तिदायक, सब जगत् के प्रेरक और उत्पादक ( राजानं ) = प्रकाशमान, ( वरुणं ) = सब पापों के निवारक ( अग्निं ) = ज्ञानस्वरूप, सन्मार्ग के नेता परमेश्वर को ( अनु आ -रभामहे ) = प्रतिदिन स्मरण करते हैं । ( च ) = और ( आदित्यं ) = सब रसों के ग्रहण करने हारे, अखण्ड, ( विष्णुं ) = सर्वत्र व्यापक ( सूर्यं ) = सब के प्रेरक, सर्वप्रकाशक, ( ब्रह्माणं ) = सब से महान् ज्ञान के भण्डार ( बृहस्पतिं  ) = वेदवाणी के स्वामी को नित्य स्मरण करते हैं । 

    टिप्पणी

    ९१ –'सोमं राजानमवसेऽग्निं  गीर्भिहवामहे । आदित्यान्० ' इति ऋ० । 

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

     

    ऋषिः - अग्निस्तापसः।

    देवता - विश्वेदेवाः।

    छन्दः - अनुष्टुप् । 

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ सोमवरुणादीनाह्वयति।

    पदार्थः

    प्रथमः—परमात्मपरः। वयम् (राजानम्) सर्वेषां सम्राजम् (सोमम्) चन्द्रवदाह्लादकं, यद्वा चराचरस्य जगतो जनकं सोमनामकं परमात्मानम्। यः सवति जनयति सर्वं जगत् स सोमः तम्। षु प्रसवैश्वर्ययोः इति धातोः ‘अर्तिस्तुसु०’ उ० १।१४० इति मन्। (वरुणम्) यः सर्वान् शिष्टान् मुमुक्षून् धर्मात्मनो वृणोति अथवा शिष्टैर्मुमुक्षुभिर्धर्मात्मभिर्व्रियते स वरुणः, तं वरुणनामकं परमात्मानम्। वृञ् वरणे धातोः कृवृदारिभ्य उनन्।’ उ० ३।५३ इति उनन् प्रत्ययः। (अग्निम्) अग्रनायकं प्रकाशस्वरूपं वा अग्निनामकं परमात्मानम्। (आदित्यम्२) प्रलयकाले सर्वस्य जगतः आदातारम्, अविनाशिस्वरूपम्, सूर्यवत् सत्यन्यायधर्मप्रकाशकम् आदित्यनामकं परमात्मानम्। (विष्णुम्) यो वेवेष्टि व्याप्नोति चराचरं जगत् तं  विष्णुनामकं परमात्मानम्। अत्र विषः किच्च।’ उ० ३।३८ इति सूत्रेण विष्लृ व्याप्तौ धातोः नु प्रत्ययः। (ब्रह्माणम्) सर्वेभ्यो महान्तम् ब्रह्मनामकं परमात्मानम्। अत्र बृहि वृद्धौ धातोः बृंहेर्नोऽच्च।’ उ० ४।१४६ इति मनिन्, नकारस्य अदादेशश्च। (बृहस्पतिम् च) बृहताम् आकाशादीनां पतिम्, यद्वा बृहसः वृद्धेः पतिम् बृहस्पतिनामकं परमात्मानं च। प्रथमेऽर्थे तद्बृहतोश्चोरदेवतयोः सुट् तलोपश्च।’ अ० ६।१।१५७ वा० इति सुट् तकारलोपश्च। द्वितीयेऽर्थे बृहि वृद्धौ धातोः औणादिकोऽसुन्। (अनु आरभामहे) आश्रयामहे। अनु-आङ्पूर्वो रभ राभस्ये धातुर्ग्रहणार्थे प्रयुज्यते। अथ द्वितीयः—राष्ट्रपरः। मन्त्रोक्ताः सर्वे देवा (विभिन्ना) राज्यसचिवा राज्याधिकारिणो वा सन्तीति वेद्यम्। यथोक्तं मनुना—“मौलाञ्छास्त्रविदः शूरांल्लब्धलक्षान् कुलोद्भवान्। सचिवान् सप्त चाष्टौ वा प्रकुर्वीत परीक्षितान्” मनु० ७।५४ इति। वयं प्रजाजनाः (सोमम्) चन्द्रवत् प्रजाह्लादकम् (राजानम्) नृपतिम्, (वरुणम्) दण्डाधिकारिणम्। वरुणः पाशी इति स्मरणात् पाशहस्तो दण्डाधिकारी वेद्यः (अग्निम्) सेनाया अग्रनायकं सेनाध्यक्षम्। अग्निर्वै देवानां सेनानीः। मै० सं० १।१०।१४ इति स्मरणात् (आदित्यम्) प्रजाभ्यः करम् आददानं कराधिकारिणम्३। (आदत्ते) प्रजाभ्यः करम् इत्यादित्यः। (विष्णुम्) व्यापकरूपेण प्रजाकार्यनिर्वाहकत्वात् प्रधानमन्त्रिणम्, (सूर्यम्) सूर्यवद् रोगनिवारकं स्वास्थ्यमन्त्रिणम्, (ब्रह्माणम्) यज्ञाधिकारिणम्। ब्र॒ह्मा त्वो॒ वद॑ति जातवि॒द्याम्। ऋ० १०।७१।११। ब्रह्मैको जाते जाते विद्यां वदति। ब्रह्मा सर्वविद्यः, सर्वं वेदितुमर्हति। ब्रह्मा परिवृढः श्रुततः। निरु० १।८ इति वर्णनात्। (बृहस्पतिं च) शिक्षासचिवं च। वाग् वै बृहती, तस्या एष पतिस्तस्माद् बृहस्पतिः। श० १४।४।१।२२। (अनु आ रभामहे) राष्ट्रोत्कर्षार्थम् आश्रयामहे ॥१॥ अत्र श्लेषालङ्कारः ॥१॥

    भावार्थः

    अग्निसोमवरुणादित्यविष्णुसूर्यब्रह्मबृहस्पत्याद्यनेकनामभिर्वेदेषु गीतकीर्तिरेकः परमेश्वरः सर्वैराश्रयणीयः। तथैव राष्ट्रेऽनेकैरमात्यै राज्याधिकारिभिश्च सह राष्ट्रं सञ्चालयन् नृपतिरपि सर्वैः प्रजाजनैराश्रयणीयः सहयोगप्रदानेन सत्कर्तव्यश्च ॥१॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० १०।१४१।३, सोमं राजानमवसेऽग्निं गीर्भिर्हवामहे। आदित्यान्० इति पाठः। य० ९।२६, देवताः सोमाग्न्यादित्यविष्णुसूर्य- ब्रह्मबृहस्पतयः, सोमं राजानमवसेऽग्निमन्वारभामहे। आदित्यान्० इति पाठः। अथ० ३।२०।४, ऋषिः वसिष्ठः, देवता यजुर्वत्, पाठः पूर्वार्द्धः ऋग्वेदवत्, उत्तरार्द्धः सामवत्। २. आदित्यः प्रलये सर्वस्यादातृत्वात् इति य० ३२।१ भाष्ये, ‘आदित्य अविनाशिस्वरूप, सूर्य इव सत्यन्यायप्रकाशक इति च य० १२।१२ भाष्ये—द०। आदित्यः आदत्ते रसान्, आदत्ते भासं ज्योतिषाम्, आदीप्तो भासेति वा, अदितेः पुत्र इति वा—इति निरुक्तम् २।१३। ३. प्रजानामेव भूत्यर्थं स ताभ्यो बलिमग्रहीत्। सहस्रगुणमुत्सृष्टमादत्ते हि रसं रविः ॥ रघु० १।१८ इति न्यायेन आदित्यवत् प्रजानामेव भूत्यर्थं ताभ्यः करग्राहिणमित्यर्थः।

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    We daily remember God, the Giver of happiness, the Creator of the universe, Effulgent, the Remover of all sins. Indivisible, Omnipresent, the Urger of all, the Encyclopaedia of Knowledge and the Lord of the Vedas.

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    Meaning

    We invoke adore brilliant Soma, Varuna, exhilarating spirit of peace and justice for protection and progress, Agni, spirit of light and warmth of life, with holy words and songs of devotion. We invoke and adore the Adityas, brilliant powers of enlightenment, Vishnu, lord omniscient and omnipresent awareness, Surya, self-refulgent divine source of light, Brahma, Divine and the sage of divinity, and Brhaspati, Lord Infinite and the scholar visionary of divinity. (Rg. 10- 141-3)

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    Translation

    We invoke and evoke the blissful bounties and venerable sovereignities, the fire of spirituality, the sun, the infinity, the all-pervading energies, the effulgent bounty, the supreme divinity and universal lordship.

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (राजानम्) સર્વત્ર રાજમાન - વિરાજમાન (सोमम्) ઉત્પત્તિકર્તા હોવાથી સોમનામક , (अग्निम्) અગ્રણાયક હોવાથી અગ્નિનામક , (आदित्यम्) અદિતિ-અખંડ સુખસંપત્તિ-મુક્તિના અધિપતિ હોવાથી આદિત્યનામક (विष्णुम्) સર્વમાં વ્યાપક હોવાથી વિષ્ણુનામક , (सूर्यम्) સર્વના પ્રેરક અને પ્રકાશક હોવાથી સૂર્યનામક , (ब्रह्माणम्) સૃષ્ટિના રચયિતા હોવાથી બ્રહ્મનામવાળા (च) અને (बृहस्पतिम्) વેદ વાણીના રક્ષક હોવાથી બૃહસ્પતિ નામવાળા પરમાત્માને (अन्वारभामहे) અનુષ્ઠિત કરો - ઉપાસિત કરો - ઉપાસનામાં લાવો. 

     

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : પરમાત્માને તેના વિવિધ ગુણો અને કર્મોનાં કારણે વિભિન્ન નામોથી ઉપાસના કરવા - ઉપાસનામાં લાવવા યોગ્ય છે , સંસારના સોમ આદિ દિવ્ય પદાર્થોમાં ગુણ તે પરમાત્માથી આવે છે , તે જ તેમાં તેના દિવ્યગુણોનું આધાન કરનાર હોવાથી તે તે રૂપ જોવામાં આવે છે , તેથી તે તે રૂપમાં અને યોગાવશાત્ ધર્મવાન હોવાથી એવા સ્મરણ કરવા યોગ્ય છે , મનુષ્ય સોમ આદિ સાંસારિક પદાર્થોમાં જ ફસાયેલો રહે નહિ. (૧)
     

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    उर्दू (1)

    Mazmoon

    ایک پرماتما کے انیک نام انیک گُن

    Lafzi Maana

    ہم (سومم) شانتی دائیک، سب جگت کے پریرک اور پیدا کرنے والے (راجا نم) پرکاش روپ جگت کے راجہ (ورُونم) سب پاپوں کے نوارن کرنے والے (اگنی) گیان سورُوپ جگت کے والی کو (انو آربھا مہے) پرتی دن سمرن کرتے ہیں۔ اور (آدتیہ) سب رسوں کو گرہن کرنے ہارے سُوریہ سمان سدا روشن اکھنڈ شکتی (وِشنُوم) سب جگہ حاضر ناظر (برہمانم) سب سے مہان گیان کے بھنڈار (برہسپتم) ویدوانی کے سوامی کا آشریہ گرہن کرتے ہیں۔
     

    Tashree

    یہ سب نام: سوم، راجہ، ورون، آدتیہ، وِشنو، سوُریہ، برہم، برہسپتی اُس اگنی پرمیشور کے ہیں جو ایشور کے مختلف اوصاف کو بیان کرتے ہیں۔
    اگنی ہے پرمیش جگت اگوانی میں جس کی چلتا،
    انیک نام اور گُن ہیں اُس کے وِشو کا جو کرتا ہرتا۔

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    अग्नी, सोम, वरुण, आदित्य, विष्णू, सूर्य, ब्रह्मा, बृहस्पती इत्यादी अनेक नावानी वेदात ज्याची कीर्ती गायलेली आहे, त्या एका परमेश्वराचा सर्वांनी आश्रय घेतला पाहिजे. त्याच प्रकारे राष्ट्रात अनेक मंत्री व राज्याधिकारी यांनी मिळून राष्ट्राचे संचालन करणाऱ्या राजाचा सर्व प्रजाजनांनी आश्रय घेतला पाहिजे व सहकार्य करून त्याचा सत्कार केला पाहिजे ॥१॥

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    विषय

    प्रथम मंत्रात सेज, वरुण आदींचे आवाहन केले आहे -

    शब्दार्थ

    (प्रथम पक्ष) परमात्मपरक आम्ही (उपासकमण) (राजानम्) सर्वांचा जो राजा (पालक व स्वामी), त्या (सोमम्) चंद्रासम आल्हादक व या चराचर जगाचे उत्पादक सोम नाम परमेश्वराचा व (वरुणम्) सर्व शिष्ट, मुमुक्षु- आणि धर्मात्माजन ज्या वरुण नाम परमेश्वराचा (आश्रय घेतो) आम्ही (अग्निम्) सर्वांचा जो नायक, प्रकाश स्वरूप अग्नि नाम परमेश्वराचा व (आदित्यम्) प्रलयकाळी सर्व सृष्टीला आपल्या गर्भात ग्रहण करणाऱ्या, अविनाशी स्वरूप, तसेच सूर्याप्रमाणे सत्य, न्याय व धर्माचा प्रकाशक आदित्य नाम परमेश्वराचा (आश्रय घेतो) तसेच आम्ही (विष्णुम्) चराचर जगी व्यापक असलेल्या विष्णु नाम परमेश्वराचा आणि (ब्रह्माणम्) सर्वांहून जो महान अशा ब्रह्मा नाम परमेश्वराचा तसेच (बृहस्पतिंच) विशाल आकाश आदींचा जो स्वामी, वृद्धिकारक त्या बृहस्पति नाम परमेश्वराचा (अनु आ रमामहे) आश्रय ग्रहण करतो (त्याच्या आश्रमात राहून, त्याला शरण जाऊन आम्ही निर्भय, निश्चित राहतो)।। द्वितीय पक्ष - (राष्ट्र परक) - मंत्रात वर्णित सर्व देव विभिन्न राज्यमंत्री अथवा राज्याधिकारी आहेत, असे जाणावे. मनूनेदेखील म्हटले आहे की राजाने आपल्या देशाचे मूळ निवासी, वेदादिशास्त्रांचे ज्ञाता, शूरवीर, लक्ष्यवेधी, कुलीन आणि सुपरीक्षित असे सातवा आठ मंत्री नमावेत (मनुस्मृति ७-५४) शब्दार्थ - आम्ही प्रजानन (सोम्) चंद्राममिआणे प्रजानांना आल्हाद देणाऱ्या (राजानम्) राजाचा तसेच (वरुणम्) दंडाधिकाऱ्याचा (अग्निम्) सेनानायक सेवाध्यक्ष्याच्या (आदित्यम्) कर-वसूल करणाऱ्या अधिकाऱ्याचा आश्रय घेतो) आम्ही (विष्णुम्) व्यापकरूपेण प्रजाकार्य सिद्ध करणाऱ्या प्रधान मंत्र्याच्या व (सूर्यम्) सूर्याममिाणे रोगनिवारक आरोग्य मंत्राच्या आणि (ब्रह्माणम्) यज्ञाधिकाऱ्याच्या (बृहस्पतिंच) तसेच शिक्षण मंत्र्याच्या (अनु आ रभामहे) राष्ट्राच्या उत्कर्षासाठी आश्रय घेतो. (या सर्व मंत्र्यांच्या संरक्षणा प्रजानन सुखी, समाधानी राहू शकतात, असा आशय आहे.) ।।१।।

    भावार्थ

    अग्नी, सोम, वरुण, आदित्य, विष्णु, सूर्य, ब्रह्मा, बृहस्पती आदी अनेक नावांनी वेदांमध्ये ज्या परमेश्वराचे यश गायिले आहे. सर्वांनी त्या एक परमेश्वराचा आश्रय केला पाहिजे. त्याचप्रमाणे राष्ट्रात अनेक मंत्री आणि राज्याधिकारी, यांच्यासह सहकार्य करीत राष्ट्राचे संचालन करणाऱ्या राजाचाही सर्व प्रजाजनांनी आश्रय घेतला पाहिजे तसेच त्याला सहकार्य देत त्याचा सत्कारही केला पाहिजे. ।। १।।

    विशेष

    या मंत्रात श्लेषालंकार आहे. ।।१।।

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    तमिल (1)

    Word Meaning

    சோமன், ராஜன், வருணன், ஆதித்தியன், விஷ்ணு, சூரியன், பிராமணன், பிரஹஸ்பதியான அக்னியை துதிகளால் ரட்சிப்பிற்காக அழைக்கிறோம்.

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