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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 925
ऋषिः - बृहन्मतिराङ्गिरसः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
20
आ꣡ योनि꣢꣯मरु꣣णो꣡ रु꣢ह꣣द्ग꣢म꣣दि꣢न्द्रो꣣ वृ꣡षा꣢ सु꣣त꣢म् । ध्रु꣣वे꣡ सद꣢꣯सि सीदतु ॥९२५॥
स्वर सहित पद पाठआ । यो꣡नि꣢꣯म् । अ꣣रुणः꣢ । रु꣣हत् । ग꣡म꣢꣯त् । इ꣡न्द्रः꣢꣯ । वृ꣡षा꣢꣯ । सु꣣त꣢म् । ध्रु꣣वे꣢ । स꣡द꣢꣯सि । सी꣡द꣢꣯तु ॥९२५॥
स्वर रहित मन्त्र
आ योनिमरुणो रुहद्गमदिन्द्रो वृषा सुतम् । ध्रुवे सदसि सीदतु ॥९२५॥
स्वर रहित पद पाठ
आ । योनिम् । अरुणः । रुहत् । गमत् । इन्द्रः । वृषा । सुतम् । ध्रुवे । सदसि । सीदतु ॥९२५॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 925
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 12; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 4; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 12; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 4; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अगले मन्त्र में ब्रह्मानन्द का विषय तथा गुरु-शिष्यों का विषय वर्णित है।
पदार्थ
प्रथम—ब्रह्मानन्द के पक्ष में। (अरुणः) ज्योतिर्मय ब्रह्मानन्दरूप सोम (योनिम्) हृदयरूप गृह में (आ रुहत्) आरूढ़ होता है। (वृषा) बलवान् (इन्द्रः) अन्तरात्मा (सुतम्) अभिषुत ब्रह्मानन्दरूप सोमरस को (गमत्) प्राप्त करता है। हम चाहते हैं कि वह ब्रह्मानन्द (ध्रुवे सदसि) अविचल आत्मारूप सदन में (सीदतु) स्थित हो जाए, अर्थात् उसका अङ्ग बन जाए ॥२॥ द्वितीय—गुरु-शिष्य के विषय में। (अरुणः) तेज से चमकता हुआ विद्यार्थी (योनिम्) गुरुकुल में (आ रुहत्) प्रविष्ट होता है। (वृषा) विद्या की वर्षा करनेवाला (इन्द्रः) आचार्य (सुतम्) पुत्रतुल्य उस विद्यार्थी के पास (गमत्) उसका अभिनन्दन करने के लिए जाता है। वह विद्यार्थी (धुवे) स्थिर (सदसि) विद्यागृह में (सीदतु) निवास करे, अर्थात् जब तक विद्या पूर्ण न हो जाए तब तक निश्चिन्त होकर वहाँ रहे ॥२॥ यहाँ श्लेषालङ्कार है ॥
भावार्थ
जैसे मनुष्य का आत्मा ब्रह्मानन्द-रस के पाने से कृतार्थ हो, वैसे ही गुरुकुल में प्रविष्ट विद्यार्थी विद्याओं में पारङ्गत होकर कृतकृत्य हो ॥२॥
पदार्थ
(अरुणः) आरोचन—समन्त प्रकाशमान सोम—शान्तस्वरूप परमात्मा*71 (योनिम्-आरुहत्) मिलने वाले—मिलने के इच्छुक उपासक में आ बैठा—आ बैठता है तब (वृषा-इन्द्रः सुतम्-आगमत्) इन्द्रियों का प्रेरक आत्मा स्वयं सोम की ओर उस साक्षात् हुए की ओर झुक जाता है। पुनः ध्रुवस्थान में विराजित हो जाता है॥२॥
टिप्पणी
[*71. “अरुण आरोचनः” [निरु॰ ५.२०]।]
विशेष
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विषय
संज्ञान व सशक्त, या ध्रुवसदस्
पदार्थ
१. (अरुणः) = [आरोचन:- नि०] ज्ञान की दीप्ति से (सर्वतः) प्रकाशमान साधक ही (योनिम्) = संसार के मूलकारण प्रभु में (आरुहत्) = आरूढ़ होता है, ज्ञान-ज्योति की वृद्धि के साथ उन्नत होता हुआ यह अरुण प्रभु को पाता है । २. (इन्द्रः) = इन्द्रियों का अधिष्ठाता, अतएव (वृषा) = शक्तिशाली यह – मन्त्र का ऋषि‘बृहन्मति आङ्गिरस' विशाल बुद्धिवाला, सशक्त पुरुष (सुतम्) = शरीर में उत्पन्न सोम को (गमत्) = प्राप्त होता है। इसकी वृत्ति यज्ञिय होती है । ३. इस प्रकार यह 'अरुण व इन्द्र'=सज्ञान व सशक्त पुरुष (ध्रुवे) (सदसि) = ध्रुव, अविनश्वर स्थान [सीट] पर [सदस्- बैठने का स्थान] (सीदतु) - बैठे, अर्थात् प्रभु को प्राप्त करे । प्रभु ही 'ध्रुवसदस्' हैं, अन्य सदस् अन्ततोगत्वा नष्ट हो जाते हैं— वही स्थिर आधार है। 'ध्रुवसदस्' पर बैठने का अभिप्राय यह भी है कि यह मर्यादित जीवन में ही चलता चले।
भावार्थ
हम संज्ञान व सशक्त बनकर प्रभु को प्राप्त करें ।
विषय
missing
भावार्थ
(अरुणः) अरुणवर्ण, कान्तिमान्, सोम (योनिम्) मूलस्थान, हृदय-देश में (अरुहद्) प्रकट होता है और (वृषा) सुखों का वर्षक (इन्द्रः) आत्मा (सुतम्) आनन्दस्वरूप में प्रकट हुए उसके प्रति (गमद्) झुक जाता है। वह आनन्दस्वरूप परमात्मा मेरे (ध्रुवे) स्थिर (सदसि) आश्रयस्थान, आत्मा में (सीदतु) सदा विराजमान हो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः—१ आकृष्टामाषाः। २ अमहीयुः। ३ मेध्यातिथिः। ४, १२ बृहन्मतिः। ५ भृगुर्वारुणिर्जमदग्निः। ६ सुतंभर आत्रेयः। ७ गृत्समदः। ८, २१ गोतमो राहूगणः। ९, १३ वसिष्ठः। १० दृढच्युत आगस्त्यः। ११ सप्तर्षयः। १४ रेभः काश्यपः। १५ पुरुहन्मा। १६ असितः काश्यपो देवलो वा। १७ शक्तिरुरुश्च क्रमेण। १८ अग्निः। १९ प्रतर्दनो दैवोदासिः। २० प्रयोगो भार्गव अग्निर्वा पावको बार्हस्पत्यः, अथर्वाग्नी गृहपतियविष्ठौ सहसः स्तौ तयोर्वान्यतरः। देवता—१—५, १०–१२, १६-१९ पवमानः सोमः। ६, २० अग्निः। ७ मित्रावरुणो। ८, १३-१५, २१ इन्द्रः। ९ इन्द्राग्नी ॥ छन्द:—१,६, जगती। २–५, ७–१०, १२, १६, २० गायत्री। ११ बृहती सतोबृहती च क्रमेण। १३ विराट्। १४ अतिजगती। १५ प्रागाधं। १७ ककुप् च सतोबृहती च क्रमेण। १८ उष्णिक्। १९ त्रिष्टुप्। २१ अनुष्टुप्। स्वरः—१,६, १४ निषादः। २—५, ७—१०, १२, १६, २० षड्जः। ११, १३, १५, १७ मध्यमः। १८ ऋषभः। १९ धैवतः। २१ गान्धारः॥
संस्कृत (1)
विषयः
अथ ब्रह्मानन्दविषयं गुरुशिष्यविषयं च वर्णयति।
पदार्थः
प्रथमः—ब्रह्मानन्दपक्षे। (अरुणः) आरोचमानः ब्रह्मानन्दसोमः (योनिम्) हृदयगृहम् (आ रुहत्) आरोहति। (वृषा) बलवान् (इन्द्रः) अन्तरात्मा (सुतम्) अभिषुतं ब्रह्मानन्दरूपं सोमरसम् (गमत्) प्राप्नोति। वयं कामयामहे यत् स ब्रह्मानन्दः (ध्रुवे सदसि) अविचले आत्मसदने (सीदतु) उपविशतु, तदङ्गतां गच्छत्विति भावः ॥२॥ द्वितीयः—गुरुशिष्यविषये। (अरुणः) आरोचमानः विद्यार्थी (योनिम्) गुरुगृहम् (आ रुहत्) आरोहति, प्रविशतीत्यर्थः। (वृषा) विद्यावर्षकः (इन्द्रः) आचार्यः (सुतम्) पुत्रतुल्यं तं विद्यार्थिनम् (गमत्) अभिनन्दितुं गच्छति। स विद्यार्थी (ध्रुवे) स्थिरे (सदसि) विद्यागृहे (सीदतु) निवसतु, आविद्यासमाप्तिं तत्र निश्चिन्ततया तिष्ठत्वित्यर्थः ॥२॥ अत्र श्लेषालङ्कारः ॥२॥
भावार्थः
यथा मनुष्यस्यात्मा ब्रह्मानन्दपानेन कृतार्थो जायेत तथा गुरुकुलं प्रविष्टो विद्यार्थी विद्यासु पारं गत्वा कृतकृत्यो भवेत् ॥२॥
टिप्पणीः
१. ऋ० ९।४०।२ ‘गम॒दिन्दं॒ वृषा॑ सु॒तः। ध्रु॒वे सद॑सि सीदति’ इति पाठः।
इंग्लिश (2)
Meaning
The lovely soul, manifests itself in the heart. Soul, the nourisher of joys, bows before God, the Embodiment of happiness. May God always reside in a steady soul.
Meaning
The glorious light of divinity, self-manifested and self-existent, pervades its natural abode, the world of Prakrti, and the generous spirit pervades the human soul too, and while it seats itself in the unshakable faith of man, the human soul too, purified and sanctified, abides in the eternal presence of divinity. (Rg. 9-40-2)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (अरुणः) આરોચન સમગ્ર પ્રકાશમાન સોમ =શાન્ત સ્વરૂપ પરમાત્મા (योनिम् आरुहत्) મળવાવાળા-મળવાને ઇચ્છુક ઉપાસકમાં આવીને બેઠો-આવીને બેસે છે, ત્યારે (वृषा इन्द्रः सुतम् आगमत्) ઇન્દ્રિયોનો પ્રેરક આત્મા સ્વયં સોમની તરફ તેની સાક્ષાત્ થયેલાની તરફ ઝૂકી-નમી જાય છે. પુનઃ ધ્રુવસ્થાન-મોક્ષધામમાં વિરાજમાન થાય છે. (૨)
मराठी (1)
भावार्थ
जसा माणसाचा आत्मा ब्रह्मानंद-रस प्राप्त करून कृतार्थ होतो, तसेच गुरुकुलमध्ये प्रविष्ट विद्यार्थ्याने विद्यांमध्ये पारंगत होऊन कृतकृत्य व्हावे.॥२॥
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