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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 941
ऋषिः - अग्निश्चाक्षुषः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - उष्णिक्
स्वरः - ऋषभः
काण्ड नाम -
20
धी꣣भि꣡र्मृ꣢जन्ति वा꣣जि꣢नं꣣ व꣢ने꣣ क्री꣡ड꣢न्त꣣म꣡त्य꣢विम् । अ꣣भि꣡ त्रि꣢पृ꣣ष्ठं꣢ म꣣त꣢यः꣣ स꣡म꣢स्वरन् ॥९४१॥
स्वर सहित पद पाठधी꣣भिः꣢ । मृ꣣जन्ति । वाजि꣡न꣢म् । व꣡ने꣢꣯ । क्री꣡ड꣢꣯न्तम् । अ꣡त्य꣢꣯विम् । अ꣡ति꣢꣯ । अ꣣विम् । अभि꣢ । त्रि꣣पृष्ठ꣢म् । त्रि꣣ । पृष्ठ꣢म् । म꣣त꣡यः꣢ । सम् । अ꣣स्वरन् ॥९४१॥
स्वर रहित मन्त्र
धीभिर्मृजन्ति वाजिनं वने क्रीडन्तमत्यविम् । अभि त्रिपृष्ठं मतयः समस्वरन् ॥९४१॥
स्वर रहित पद पाठ
धीभिः । मृजन्ति । वाजिनम् । वने । क्रीडन्तम् । अत्यविम् । अति । अविम् । अभि । त्रिपृष्ठम् । त्रि । पृष्ठम् । मतयः । सम् । अस्वरन् ॥९४१॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 941
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 18; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 6; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 18; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 6; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अगले मन्त्र में परमात्मा की स्तुति का विषय है।
पदार्थ
उपासक लोग (वाजिनम्) बलवान्, (वने क्रीडन्तम्) ब्रह्माण्डरूप वन में क्रीडा करते हुए, (अत्यविम्) अबुद्धिगम्य उस पवमान सोम अर्थात् पवित्रकर्ता परमात्मा को (धीभिः) ध्यानवृत्तियों से (मृजन्ति) अपने अन्तरात्मा में अलङ्कृत करते हैं। वे (मतयः)मननशील उपासक (त्रिपृष्ठम्) पृथिवी-अन्तरिक्ष-द्यौरूप अथवा आत्मा-मन-प्राणरूप तीन स्तरों में निवास करनेवाले उस परमात्मा को (अभि) लक्ष्य करके (समस्वरन्) मिलकर स्तुतिगीत गाते हैं ॥२॥
भावार्थ
जो परमेश्वर जड़-चेतन से परिपूर्ण ब्रह्माण्डरूप वन को रचकर उसमें क्रीडा करता हुआ जगत् का सञ्चालन कर रहा है, उस सर्वान्तर्यामी को अपने आत्मा का अलङ्कार बनाकर योगी जन जब उसका ध्यान करते हैं तब वे सब सिद्धियाँ पा लेते हैं ॥२॥
पदार्थ
(मतयः) अर्चना*90 स्तुति करने वाले मेधावी*91 उपासक (अत्यविम्) अवि—पृथिवी*92 पार्थिव शरीर को अतिक्रान्त किए हुए—शरीरबन्धन से रहित (वने क्रीडन्तम्) वननीय संसार में क्रीड़ा करते हुए जैसे (वाजिनम्) अमृत अन्न भोग वाले*93 सोम—शान्तस्वरूप परमात्मा को (धीभिः-मृजन्ति) ध्यानक्रियाओं के द्वारा प्राप्त करते हैं*94 (त्रिपृष्ठम्-अभि समस्वरन्) तीन दिशाओं स्तुति प्रार्थना उपासना को या ‘अ उ म्’ को सम्मुख रख कर सम्यक् अर्चना*95 करते हैं॥२॥
टिप्पणी
[*90. “मन्यते अर्चतिकर्मा” [निघं॰ ३.१४]।] [*91. “मतय-मेधाविनाम” [निघं॰ ३.१५]।] [*92. “इयं पृथिवी वा अविः” [श॰ ६.१.२.३२]।] [*93. “अमृतोऽन्नं वै वाजः” [जै॰ २.१९३]।] [*94. “मार्ष्टि गतिकर्मा” [निघं॰ २.१४]।] [*95. “स्वरति-अर्चतिकर्मा” [निघं॰ ३.१४]।]
विशेष
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विषय
तीन आधारोंवाला
पदार्थ
पवमान सोम क्या करते हैं – १. (धीभिः) = ज्ञान के द्वारा (मृजन्ति) = सोमपान करनेवाले को शुद्ध कर डालते हैं। सोमपान से ज्ञानाग्नि दीप्त होकर जीवन को शुद्ध कर डालती है, २. (वाजिनम्) = यह सोमपान इस पुरुष को शक्तिशाली बनाता है । ३. (वने क्रीडन्तम्) = उस उपास्य परमेश्वर में क्रीड़ा करनेवाला बनाता है। सोमरक्षा से मनुष्य की वृत्ति ऐसी ऊँची हो जाती है कि वह सब क्रियाओं को प्रभु में हो रहा देखता है, उसे यह संसार प्रभु की क्रीड़ा प्रतीत होता है । ४. (अत्यविम्) = [अति=पूजित]। यह सोम उसे अतिशेयन अवि-रक्षक बनाता है । यह व्यक्ति आसुर वृत्तियों को अपने पर आक्रमण नहीं करने देता। ५. (त्रिपृष्ठम् अभि) = यह सोमपान करनेवाला 'ज्ञान, कर्म व भक्ति' तीनों को अपना आधार बनाता है और (मतयः) = सब ज्ञान इस 'त्रिपृष्ठ' की ओर (समस्वरन्) = गति करते हैं [ स्वृ to go], अर्थात् इसे सब ज्ञान प्राप्त होते हैं ।
भावार्थ
सोमपान करने से ही मनुष्य ज्ञान, भक्ति व निष्काम कर्म का आधार बनता है। यह ज्ञान का आधार होने से 'चाक्षुष' है और निष्काम कर्म से आगे बढ़ता हुआ यह 'अग्नि' है।
विषय
missing
भावार्थ
(वने) शरीर में (क्रीडन्तं) नाना कर्मों को या क्रीड़ा, विनोद करते हुए (वाजिनं) अति बलवान्, ज्ञानी (अत्यविम्) शरीरबन्धन को अतिक्रमण करके विराजमान, अतीन्द्रिय आत्मा को (धीभिः) धारणावाली बुद्धियों और उत्तम कर्मों द्वारा (मृजन्ति) परिशोधन करते, उसको स्वच्छ और समाहित करके और भी अधिक विवेक से उसके दर्शन करते हैं। (मतयः) मननशील मुनि लोग (त्रिपृष्ठं) मन, वाक्, काय तीनों स्थानों पर विराजमान उस आत्मा को (अभि सम् अस्वरन्) साक्षात् स्तुति करते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः—१ आकृष्टामाषाः। २ अमहीयुः। ३ मेध्यातिथिः। ४, १२ बृहन्मतिः। ५ भृगुर्वारुणिर्जमदग्निः। ६ सुतंभर आत्रेयः। ७ गृत्समदः। ८, २१ गोतमो राहूगणः। ९, १३ वसिष्ठः। १० दृढच्युत आगस्त्यः। ११ सप्तर्षयः। १४ रेभः काश्यपः। १५ पुरुहन्मा। १६ असितः काश्यपो देवलो वा। १७ शक्तिरुरुश्च क्रमेण। १८ अग्निः। १९ प्रतर्दनो दैवोदासिः। २० प्रयोगो भार्गव अग्निर्वा पावको बार्हस्पत्यः, अथर्वाग्नी गृहपतियविष्ठौ सहसः स्तौ तयोर्वान्यतरः। देवता—१—५, १०–१२, १६-१९ पवमानः सोमः। ६, २० अग्निः। ७ मित्रावरुणो। ८, १३-१५, २१ इन्द्रः। ९ इन्द्राग्नी ॥ छन्द:—१,६, जगती। २–५, ७–१०, १२, १६, २० गायत्री। ११ बृहती सतोबृहती च क्रमेण। १३ विराट्। १४ अतिजगती। १५ प्रागाधं। १७ ककुप् च सतोबृहती च क्रमेण। १८ उष्णिक्। १९ त्रिष्टुप्। २१ अनुष्टुप्। स्वरः—१,६, १४ निषादः। २—५, ७—१०, १२, १६, २० षड्जः। ११, १३, १५, १७ मध्यमः। १८ ऋषभः। १९ धैवतः। २१ गान्धारः॥
संस्कृत (1)
विषयः
अथ परमात्मस्तुतिविषयमाह।
पदार्थः
उपासकाः जनाः (वाजिनम्) बलवन्तम्, (वने क्रीडन्तम्) ब्रह्माण्डरूपे विपिने क्रीडां कुर्वन्तम्, (अत्यविम्) अविं बुद्धिम् अतिक्रम्य स्थितम् अबुद्धिगम्यं तं पवमानं सोमं पावकं परमात्मानम् (धीभिः) ध्यानवृत्तिभिः (मृजन्ति) स्वाभ्यन्तरे अलङ्कुर्वन्ति। ते (मतयः) मननशीलाः उपासकाः (त्रिपृष्ठम्) त्रीणि पृष्ठानि पृथिव्यन्तरिक्षद्युलोकाख्यानि यद्वा आत्ममनःप्राणाख्यानि निवासभूतानि यस्य तादृशम् तम् परमात्मानम् (अभि) अभिलक्ष्य (समस्वरन्)संगत्य स्तुतिगीतानि गायन्ति ॥२॥
भावार्थः
यः परमेश्वरश्चेतनाचेतनैः परिपूर्णं ब्रह्माण्डवनं निर्माय तत्र क्रीडां कुर्वन् जगत् सञ्चालयति तं सर्वान्तर्यामिणं स्वात्मनोऽलङ्कारं कृत्वा योगिनो जना यदा तं ध्यायन्ति तदा ते सर्वाः सिद्धीर्लभन्ते ॥२॥
टिप्पणीः
१. ऋ० ९।१०६।११, ‘मृजन्ति’ इत्यत्र ‘हि॑न्वन्ति’ इति पाठः।
इंग्लिश (2)
Meaning
The learned purify the strong soul, sporting in the body, through noble deeds. The reflective sages praise the soul of triple height.
Translator Comment
$ Triple height may refer to the Jagrat (waking) Swapan (sleeping) and Sushupti (Deep slumber) states of the soul, or mind, tongue, body, where the soul resides, Sayana has interpreted अत्यविम् as Soma, and त्रिपृष्ठं as three vessels in Which Soma is kept, i.e. Dronakalasa, Adhavaniya, and Putabhrit, or the firmament, the mountain, and the altar, the different homes of Soma, This interpretation is not plausible.
Meaning
Men of distinguished mind, adoring Soma with holy thoughts, words and action, invoke and celebrate all protective Soma, victorious spirit and cosmic energy, playing in the beautiful world over three regions of heaven, earth and the skies. (Rg. 9-106-11)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (मतयः) અર્ચના-સ્તુતિ કરનારા મેધાવી ઉપાસકો (अत्यविम्) અવિ = પૃથિવી પાર્થિવ શરીરને અતિક્રાન્ત કરીને-શરીર બંધનથી રહિત (वने क्रीडन्तम्) સેવનીય સંસારમાં ક્રીડા કરતાં જેમ (वाजिनम्) અમૃત અન્નભોગવાળા સોમ-શાન્ત સ્વરૂપ પરમાત્માને (धीभिः मृजन्ति) ધ્યાન ક્રિયાઓ દ્વારા પ્રાપ્ત કરે છે. (त्रिपृष्ठम् अभि समस्वरन्) ત્રણ દિશાઓ સ્તુતિ, પ્રાર્થના, ઉપાસનાને અથવા ‘अ उ म्’ ને સન્મુખ રાખીને સમ્યક્ અર્ચના કરે છે. (૨)
मराठी (1)
भावार्थ
जो परमेश्वर जड-चेतनाद्वारे परिपूर्ण ब्रह्मांडरूपी वन निर्माण करून त्यात क्रीडा करत आहे व जगाचे संचालन करत आहे, त्या सर्वान्तर्यामी (परमेश्वर) ला आपला अलंकार बनवून योगी जेव्हा त्याचे ध्यान करतात, तेव्हा ते सर्व सिद्धी प्राप्त करतात. ॥२॥
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