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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 942
    ऋषिः - अग्निश्चाक्षुषः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - उष्णिक् स्वरः - ऋषभः काण्ड नाम -
    19

    अ꣡स꣢र्जि क꣣ल꣡शा꣢ꣳ अ꣣भि꣢ मी꣣ढ्वा꣢꣫न्त्सप्ति꣣र्न꣡ वा꣢ज꣣युः꣢ । पु꣣नानो꣡ वाचं꣢꣯ ज꣣न꣡य꣢न्नसिष्यदत् ॥९४२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ꣡स꣢꣯र्जि । क꣣ल꣡शा꣢न् । अ꣣भि꣢ । मी꣣ढ्वा꣢न् । स꣡प्तिः꣢꣯ । न । वा꣣ज꣢युः । पु꣣नानः꣢ । वा꣡च꣢꣯म् । ज꣣न꣡य꣢न् । अ꣣सिष्यदत् ॥९४२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    असर्जि कलशाꣳ अभि मीढ्वान्त्सप्तिर्न वाजयुः । पुनानो वाचं जनयन्नसिष्यदत् ॥९४२॥


    स्वर रहित पद पाठ

    असर्जि । कलशान् । अभि । मीढ्वान् । सप्तिः । न । वाजयुः । पुनानः । वाचम् । जनयन् । असिष्यदत् ॥९४२॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 942
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 18; मन्त्र » 3
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 6; सूक्त » 3; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में पुनः परमात्मा का विषय है।

    पदार्थ

    (मीढ्वान्) आनन्दरस को सींचनेवाला, (वाजयुः) स्तोताओं को आत्मबल देने का इच्छुक पवमान सोम अर्थात् पवित्रकर्ता रसनिधि परमेश्वर (कलशान् अभि) अन्नमय-प्राणमय-मनोमय आदि कोशों को लक्ष्य करके (असर्जि) छोड़ा गया है, (सप्तिः न) जैसे घोड़ा संग्राम को लक्ष्य करके छोड़ा जाता है। (पुनानः) पवित्रता देता हुआ वह (वाचं जनयन्) उपदेश-वाणी को उत्पन्न करता हुआ (असिष्यदत्) अन्तरात्मा में प्रवाहित हो रहा है ॥३॥ यहाँ उपमालङ्कार है ॥३॥

    भावार्थ

    परमात्मा की उपासना से आनन्दरस, आत्मबल, अन्तःकरण की पवित्रता और आत्मोत्थान का सन्देश प्राप्त होता है ॥३॥

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    पदार्थ

    (वाजयुः) उपासकों के लिए अमृत अन्न भोग को चाहता हुआ (मीढ्वान्-सप्तिः-न) वीर्यसिञ्चन समर्थ घोड़े*96 के समान उछलता हुआ-सा (कलशान्-अभि-असर्जि) उपासकों के कल कल शब्द वाले हृदयों के प्रति हृदय में निष्पन्न साक्षात् किया जाता है (पुनानः) उपासकों को पवित्र करता हुआ (वाचं जनयन्-असिष्यदत्) आशीर्वचन बोलता हुआ आनन्दधारा में बहता है॥३॥

    टिप्पणी

    [*96. “सप्तिः-अश्वनाम” [निघं॰ ११.४]।]

    विशेष

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    विषय

    चाक्षुष अग्नि

    पदार्थ

    यह सोम (कलशान् अभि) = सोलह कलाओं के आधारभूत शरीरों का लक्ष्य करके (असर्जि) = निर्मित हुआ है। यह शरीर को विफल नहीं होने देता। यह शरीर में होनेवाली कमियों को दूर करके उसे सदा सकल=पूर्ण बनाये रखता है। २. (मीढ्वान्) = इस प्रकार यह सब सुखों की वर्षा करनेवाला है। अङ्ग-प्रत्यङ्ग का, सब इन्द्रियों का ठीक होना ही 'सु-ख' है । ३. (सप्तिः न) = घोड़े के समान (वाजयुः) = शक्ति को यह हमारे साथ जोड़नेवाला है। सोमपान हमें इतनी शक्ति देता है कि हम घोड़े के समान अपने कर्त्तव्य मार्ग का आक्रमण करते हुए कभी थकते नहीं । ४. (पुनान:) = यह हमारे हृदयों में वेदवाणी का आविर्भाव करते हुए (असिष्यदत्) = हमारे शरीर में प्रवाहित होता है। सोमरक्षा से ज्ञानाग्नि दीप्त होती है और हृदय निर्मल, अतः हम प्रभु की वाणी को सुन पाते हैं। ज्ञानवृद्धि करके यह हमें ‘चाक्षुष' बनाता है और हमारी उन्नति का कारण बनकर हमें 'अग्नि' बनाता है ।

    भावार्थ

    शरीर की न्यूनताओं को दूर करने के लिए ही प्रभु ने सोम की सृष्टि की है।
     

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    विषय

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    भावार्थ

    (मीढ्वान्) आनन्दघन, वह सोम (वाजयुः) संग्राम में जाने हारे (सप्तिः न) अश्व के समान (कलशान् अभि) सकल देहों में (असर्जि) प्रकट होता है। और (पुनानः) सब मलों को दूर करता हुआ (वाचम्) वाणी को (जनयन्) प्रकट करता हुआ (असिष्यदत्) द्रवित होता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१ आकृष्टामाषाः। २ अमहीयुः। ३ मेध्यातिथिः। ४, १२ बृहन्मतिः। ५ भृगुर्वारुणिर्जमदग्निः। ६ सुतंभर आत्रेयः। ७ गृत्समदः। ८, २१ गोतमो राहूगणः। ९, १३ वसिष्ठः। १० दृढच्युत आगस्त्यः। ११ सप्तर्षयः। १४ रेभः काश्यपः। १५ पुरुहन्मा। १६ असितः काश्यपो देवलो वा। १७ शक्तिरुरुश्च क्रमेण। १८ अग्निः। १९ प्रतर्दनो दैवोदासिः। २० प्रयोगो भार्गव अग्निर्वा पावको बार्हस्पत्यः, अथर्वाग्नी गृहपतियविष्ठौ सहसः स्तौ तयोर्वान्यतरः। देवता—१—५, १०–१२, १६-१९ पवमानः सोमः। ६, २० अग्निः। ७ मित्रावरुणो। ८, १३-१५, २१ इन्द्रः। ९ इन्द्राग्नी ॥ छन्द:—१,६, जगती। २–५, ७–१०, १२, १६, २० गायत्री। ११ बृहती सतोबृहती च क्रमेण। १३ विराट्। १४ अतिजगती। १५ प्रागाधं। १७ ककुप् च सतोबृहती च क्रमेण। १८ उष्णिक्। १९ त्रिष्टुप्। २१ अनुष्टुप्। स्वरः—१,६, १४ निषादः। २—५, ७—१०, १२, १६, २० षड्जः। ११, १३, १५, १७ मध्यमः। १८ ऋषभः। १९ धैवतः। २१ गान्धारः॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ पुनः परमात्मविषयमाह।

    पदार्थः

    (मीढ्वान्) आनन्दरसस्य सेक्ता। [मिह सेचने, लिटः क्वसुः।] (वाजयुः) वाजम् आत्मबलं स्तोतॄणां कामयमानः। [छन्दसि परेच्छायां क्यच्, ‘क्याच्छन्दसि’ इति उः प्रत्ययः।] पवमानः सोमः पावकः रसनिधिः परमेश्वरः (कलशान् अभि) अन्नमय-प्राणमय-मनोमयादिकोशान् अभिलक्ष्य (असर्जि) विसृष्टोऽस्ति, (सप्तिः न) यथा अश्वः संग्राममभिलक्ष्य विसृज्यते तद्वत्। (पुनानः) पवित्रतां सम्पादयन् सः (असिष्यदत्) अन्तरात्मं स्यन्दते ॥३॥ अत्रोपमालङ्कारः ॥३॥

    भावार्थः

    परमात्मोपासनेनानन्दरस आत्मबलमन्तःकरणस्य पावित्र्यमात्मो- त्थानसन्देशश्च प्राप्यते ॥३॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ९।१०६।१२, ‘मी॒ळहे सप्ति॒र्न वा॑ज॒युः’ इति द्वितीयः पादः।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    The joyful soul, lends speed and vigour to the bodies like a swift horse in a battle field. It glides on lifting its voice of protest, and casting aside all moral impurities.

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    Meaning

    Soma, vibrant spirit of divinity, rushes to the heart core of realised souls like instant energy radiating to the centre of its target in the human battle of survival and distinguished search for immortality, there stimulating, creating and sanctifying hymns of adoration, and there in the soul it abides. (Rg. 9-106-12)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (वाजयुः) ઉપાસકોને માટે અમૃત અન્નભોગને ચાહતાં (मीढ्वान् सप्तिः न) વીર્ય સિંચનમાં સમર્થ ઘોડાની સમાન-ઉછળતાં સમાન (कलशान् अभि असर्जि) ઉપાસકોનાં કલકલ શબ્દવાળા હૃદયના પ્રત્યે હૃદયમાં નિષ્પન્ન સાક્ષાત્ કરવામાં આવે છે. (पुनानः) ઉપાસકોને પવિત્ર કરીને (वाचं जनयन् असिष्यदत्) આશીર્વચન બોલીને આનંદધારામાં વહન કરે છે. (૩)

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमेश्वराच्या उपासनेने आनंदरस, आत्मबल, अंत:करणाची पवित्रता व आत्मोत्थानाचा संदेश प्राप्त होतो. ॥३॥

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