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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 947
    ऋषिः - प्रयोगो भार्गवः देवता - अग्निः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
    19

    अ꣣यं꣡ यथा꣢꣯ न आ꣣भु꣢व꣣त्त्व꣡ष्टा꣢ रू꣣पे꣢व꣣ त꣡क्ष्या꣢ । अ꣣स्य꣢꣫ क्रत्वा꣣ य꣡श꣢स्वतः ॥९४७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ꣣य꣢म् । य꣡था꣢꣯ । नः꣣ । आ꣣भु꣡व꣢त् । आ꣣ । भु꣡व꣢꣯त् । त्व꣡ष्टा꣢꣯ । रू꣣पा꣢ । इ꣣व । त꣡क्ष्या꣢꣯ । अ꣣स्य꣢ । क्र꣡त्वा꣢꣯ । य꣡श꣢꣯स्वतः ॥९४७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अयं यथा न आभुवत्त्वष्टा रूपेव तक्ष्या । अस्य क्रत्वा यशस्वतः ॥९४७॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अयम् । यथा । नः । आभुवत् । आ । भुवत् । त्वष्टा । रूपा । इव । तक्ष्या । अस्य । क्रत्वा । यशस्वतः ॥९४७॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 947
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 20; मन्त्र » 2
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 6; सूक्त » 5; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में यह कहा गया है कि क्यों हम परमेश्वर के अभिमुख हों।

    पदार्थ

    हम परमेश्वर के अभिमुख होवें (यथा) जिससे, वह (नः) हममें, हमारे जीवनों में (आभुवत्) रम जाए, (त्वष्टा) बढ़ई (तक्ष्या रूपा इव) जैसे घड़े जानेवाले रूपों में रम जाता है। हम (यशस्वतः) यशस्वी (अस्य) इस परमेश्वर के (क्रत्वा) ज्ञान एवं कर्म से, संयुक्त होवें ॥२॥ यहाँ उपमालङ्कार है ॥२॥

    भावार्थ

    जगदीश्वर यदि हमारे जीवनों में व्याप्त हो जाता है तो सदा ही अच्छे-बुरे के विवेक से युक्त हम पुण्य कर्मों को ही करते हुए कीर्तिशाली होते हैं ॥२॥

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    पदार्थ

    (अयम्) यह अग्रणेता ज्ञानप्रकाशस्वरूप परमात्मा (नः-आभुवत्) हम पर अधिकार करता है (यथा त्वष्टा) तक्षक—बढई (तक्ष्या रूपा-इव) घड़ने योग्य वस्तुओं पर अधिकार करता है (अस्य यशस्वतः) इस यशस्वी परमात्मा के (क्रत्वा) प्रज्ञान—आदेश के अनुसार हम चलें॥२॥

    विशेष

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    विषय

    हमारे जीवन का शिल्पी

    पदार्थ

    गत मन्त्र में वर्णित ‘अग्नि' को यहाँ ‘अयं' इस सर्वनाम शब्द से परामृष्ट करके कहते हैं कि (इव) = जैसे (त्वष्टा) = एक शिल्पी [बढ़ई] (रूपा) - लकड़ी में नानाविध रूपों का निर्माण करता है, उसी प्रकार (त्वष्टा यथा) = शिल्पी की (अयम्) = यह प्रभुरूप अग्नि (नः) = हमारे (तक्ष्या) = निर्माण करने योग्य रूपों व वस्तुओं को (आभुवत्) = समन्तात् उत्पन्न करता है। हमारे लिए उस प्रभु ने किस सुन्दर वस्तु का निर्माण नहीं किया ? २. (अस्य) = इस प्रभु के ही क्(रत्वा) = प्रज्ञान व कर्म (यशस्वत:) = हमें यशवाला करते हैं। प्रभु का दिया हुआ ज्ञान व बल हमें यशस्वी बनाता है।

    हमारा निर्माण तो प्रभु को करना है – 'मेरा वह वह रूप प्रभु से निर्मित हो रहा है', यह भावना हमारे जीवन के महान् उत्कर्ष का कारण बनती है । इस भावना से हमारे अन्दर परमेश्वरार्पण बुद्धि जागरित होती है । इस बुद्धि के जागरित होने पर हम प्रभु के ज्ञान व प्रभु की शक्ति से सम्पन्न हो यशस्वी बनते हैं । 'मेरा ज्ञान, मेरी शक्ति व मेरा यश न होकर प्रभु का है' यह भावना हमें निरहंकार बनाती है ।

    भावार्थ

    मेरे जीवन का [त्वष्टा] शिल्पी वह प्रभु ही है ।

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    विषय

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    भावार्थ

    (त्वष्टा इव) जिस प्रकार तरखान शिल्पी (तक्ष्या) काट काट कर बनाने योग्य (रूपा) पदार्थों को बनाता है उसी प्रकार (यथा) यथावत् ठीक ठीक (अयं) यह (अग्निः) सबका अग्रणी, सबसे पूर्व विद्यमान ज्ञानवान् परमेश्वर भी (नः) हमारे लिये सब (रूपा) कान्तिमान् पदार्थों को (आभुवत्) बनाता है। हम लोग भी (यशस्वतः) समस्त महिमा वाले (अस्य) इसके ही (क्रत्वा) ज्ञान और कर्म सामर्थ्य के द्वारा उत्पन्न हुए हैं।

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१ आकृष्टामाषाः। २ अमहीयुः। ३ मेध्यातिथिः। ४, १२ बृहन्मतिः। ५ भृगुर्वारुणिर्जमदग्निः। ६ सुतंभर आत्रेयः। ७ गृत्समदः। ८, २१ गोतमो राहूगणः। ९, १३ वसिष्ठः। १० दृढच्युत आगस्त्यः। ११ सप्तर्षयः। १४ रेभः काश्यपः। १५ पुरुहन्मा। १६ असितः काश्यपो देवलो वा। १७ शक्तिरुरुश्च क्रमेण। १८ अग्निः। १९ प्रतर्दनो दैवोदासिः। २० प्रयोगो भार्गव अग्निर्वा पावको बार्हस्पत्यः, अथर्वाग्नी गृहपतियविष्ठौ सहसः स्तौ तयोर्वान्यतरः। देवता—१—५, १०–१२, १६-१९ पवमानः सोमः। ६, २० अग्निः। ७ मित्रावरुणो। ८, १३-१५, २१ इन्द्रः। ९ इन्द्राग्नी ॥ छन्द:—१,६, जगती। २–५, ७–१०, १२, १६, २० गायत्री। ११ बृहती सतोबृहती च क्रमेण। १३ विराट्। १४ अतिजगती। १५ प्रागाधं। १७ ककुप् च सतोबृहती च क्रमेण। १८ उष्णिक्। १९ त्रिष्टुप्। २१ अनुष्टुप्। स्वरः—१,६, १४ निषादः। २—५, ७—१०, १२, १६, २० षड्जः। ११, १३, १५, १७ मध्यमः। १८ ऋषभः। १९ धैवतः। २१ गान्धारः॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ कुतो वयं परमेश्वरस्याभिमुखाः स्यामेत्याह।

    पदार्थः

    वयमग्निं परमेश्वरमभिमुखाः भवेम (यथा) येन (अयम्) एषः परमेश्वरः (नः) अस्मान्, अस्माकं जीवनानीत्यर्थः (आभुवत्) व्याप्नुयात्। कथमिव ? (त्वष्टा) वर्धकिः (तक्ष्या रूपा इव) तक्षणीयानि रूपाणि यथा व्याप्नोति तथा। [शेश्छन्दसि बहुलम्। अ० ६।१।७० इति शेर्लोपः।] (यशस्वतः) कीर्तिमतः (अस्य) अग्नेः परमेश्वरस्य (क्रत्वा) क्रतुना प्रज्ञया कर्मणा वा, वयमनुगृहीताः स्याम ॥२॥ अत्रोपमालङ्कारः ॥२॥

    भावार्थः

    जगदीश्वरो यद्यस्माकं जीवनानि व्याप्नोति तर्हि सदैव सदसद्विवेकिनः पुण्यकर्माणः सन्तो वयं कीर्तिभाजो भवामः ॥२॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ८।१०२।८।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Just as a carpenter makes nice articles through cutting so does God properly create for us beautiful objects. We too have been created through the might of the same Glorious God.

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    Meaning

    Just as the artist creates all possible forms out of his plastic materials, giving them beauty, power and purpose full meaning, so does this Agni, universal artist, work on us, for us, and brings out our potentials and gives us forms of beauty, power and excellence as a family, community and common humanity for a purpose, a meaning and a direction. His actions are great, gracious and glorious. (Rg. 8-102-8)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (अयम्) એ અગ્રણી જ્ઞાનપ્રકાશ સ્વરૂપ પરમાત્મા (नः आभुवत्) અમારા પર અધિકાર રાખે છે. (यथा त्वष्टा) જેમ સુથાર (तक्ष्या रूपा इव) લાકડાની ઘડવા યોગ્ય વસ્તુઓ પર અધિકાર રાખે છે. (अस्य यशस्वतः) એ યશસ્વી પરમાત્માના (क्रत्वा) પ્રજ્ઞાન-આદેશ અનુસાર અમે ચાલીએ. (૨)

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जगदीश्वर जर आमच्या जीवनात व्याप्त झालेला असेल तर सदैव चांगल्या-वाईटाच्या विवेकाने युक्त होऊन आम्ही पुण्य कर्मच करत कीर्तिवान बनतो. ॥२॥

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