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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 966
    ऋषिः - असितः काश्यपो देवलो वा देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
    21

    प꣡व꣢स्व वृत्र꣣ह꣡न्त꣢म उ꣣क्थे꣡भि꣢रनु꣣मा꣡द्यः꣢ । शु꣡चिः꣢ पाव꣣को꣡ अद्भु꣢꣯तः ॥९६६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प꣡व꣢꣯स्व । वृ꣣त्र꣡हन्त꣢मः । वृ꣣त्र । ह꣡न्त꣢꣯मः । उ꣣क्थे꣡भिः꣢ । अ꣣नुमा꣡द्यः꣢ । अ꣣नु । मा꣡द्यः꣢꣯ । शु꣡चिः꣢꣯ । पा꣣व꣢कः । अ꣡द्भु꣢꣯तः । अत् । भुतः ॥९६६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पवस्व वृत्रहन्तम उक्थेभिरनुमाद्यः । शुचिः पावको अद्भुतः ॥९६६॥


    स्वर रहित पद पाठ

    पवस्व । वृत्रहन्तमः । वृत्र । हन्तमः । उक्थेभिः । अनुमाद्यः । अनु । माद्यः । शुचिः । पावकः । अद्भुतः । अत् । भुतः ॥९६६॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 966
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 3; मन्त्र » 6
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 6; खण्ड » 1; सूक्त » 3; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में पुनः परमात्मा से प्रार्थना करते हैं।

    पदार्थ

    हे सोम ! हे रसागार, परमाह्लादक, जगदाधार परमेश्वर ! (वृत्रहन्तमः) पापों को अतिशय नष्ट करनेवाले, (उक्थेभिः) स्तोत्रों से (अनुमाद्यः) प्रसन्न करने योग्य, (शुचिः) पवित्र, (पावकः) पवित्र करनेवाले, (अद्भुतः) आश्चर्यकारी गुण-कर्म-स्वभाववाले आप, हम उपासकों को (पवस्व) पवित्र कीजिए ॥६॥

    भावार्थ

    जो स्वयं पापों का सबसे बढ़कर विनाशक, पवित्र और अद्भुत है, वह अन्यों को भी निष्पाप, पवित्र अन्तःकरणवाला और अद्भुत क्यों न करे ? ॥६॥

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    पदार्थ

    (वृत्रहन्तमः) हे शान्तस्वरूप परमात्मन्! तू मेरे अन्दर के पापों का अत्यन्त हननकर्ता (उक्थेभिः-अनुमाद्यः) प्रशस्त वचनों द्वारा निरन्तर स्तुति योग्य (शुचिः) स्वयं पवित्र (पावकः) उपासक को पवित्र करने वाला (अद्भुतः) विरला—अपूर्व है॥६॥

    विशेष

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    विषय

    विशिष्ट जीवन

    पदार्थ

    प्रभु एक प्रचारक [परिव्राजक] के लिए आदेश देते हैं कि तू १. (वृत्रहन्तम:) = ज्ञान की आवरणभूत वासना को सर्वाधिक विनष्ट करनेवाला बन । काम को पराजित करके ही तू लोगों को कामविजय का उपदेश दे सकेगा । २. (उक्थेभिः) = स्तोत्रों के द्वारा पवस्व-तू अपने जीवन को पवित्र कर । वासना का पराजय प्रभु-स्मरण से ही होगा। प्रभु के बिना काम का ध्वंस कौन करेगा ? ३. (अनुमाद्यः) = तेरा जीवन ऐसा हो कि लोग तेरे जीवन को देखकर सदा प्रशंसात्मक शब्द ही बोलें । ४. (शुचिः) = तू पवित्र जीवनवाला हो – शुभ गुण तेरे जीवन को दीप्त बनाएँ, ५. (पावकः) = तू अपने सम्पर्क से, प्रेरणा से औरों के जीवन को भी पवित्र बनानेवाला हो । ६. (अद्भुत:) = तेरा जीवन कुछ विलक्षणता व विशेषता को लिये हुए हो [अभूतपूर्व:]। अन्यों जैसा-प्राकृत जीवन होने पर तू औरों पर क्या प्रभाव डाल पाएगा? विशेषतावाला जीवन ही औरों के लिए आदर्श हो सकता है।

    भावार्थ

    प्रचारक को वासनाओं से ऊपर, स्तोत्रों से सदा अपने को पवित्र करनेवाला, प्रशंसनीय, पवित्र, पावन व विशिष्ट जीवनवाला होना चाहिए ।

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    विषय

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    भावार्थ

    हे (वृत्रहन्तम) विध्नों और काम, क्रोध आदि आभ्यन्तर, तामस आवरणों को नाश करने में सबसे उत्तम ! तू (उक्थेभिः) उत्तम वचनों द्वारा (अनुमाद्यः) आदर करने योग्य (शुचिः) शुद्ध, कान्तिमान् (अद्भुतः) आश्चर्यजनक, (पावकः) समस्त प्रजा को पवित्र, निष्पाप बनानेहारा होकर (पवस्व) और ज्ञान कर सर्वत्र भ्रमण कर प्रदान कर।

    टिप्पणी

    ‘सुतस्य मध्वः’ इति ऋ०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—त्रय ऋषिगणाः। २ काश्यपः ३, ४, १३ असितः काश्यपो देवलो वा। ५ अवत्सारः। ६, १६ जमदग्निः। ७ अरुणो वैतहव्यः। ८ उरुचक्रिरात्रेयः ९ कुरुसुतिः काण्वः। १० भरद्वाजो बार्हस्पत्यः। ११ भृगुर्वारुणिर्जमदग्निर्वा १२ मनुराप्सवः सप्तर्षयो वा। १४, १६, २। गोतमो राहूगणः। १७ ऊर्ध्वसद्मा कृतयशाश्च क्रमेण। १८ त्रित आप्तयः । १९ रेभसूनू काश्यपौ। २० मन्युर्वासिष्ठ २१ वसुश्रुत आत्रेयः। २२ नृमेधः॥ देवता—१-६, ११-१३, १६–२०, पवमानः सोमः। ७, २१ अग्निः। मित्रावरुणौ। ९, १४, १५, २२, २३ इन्द्रः। १० इन्द्राग्नी॥ छन्द:—१, ७ नगती। २–६, ८–११, १३, १६ गायत्री। २। १२ बृहती। १४, १५, २१ पङ्क्तिः। १७ ककुप सतोबृहती च क्रमेण। १८, २२ उष्णिक्। १८, २३ अनुष्टुप्। २० त्रिष्टुप्। स्वर १, ७ निषादः। २-६, ८–११, १३, १६ षड्जः। १२ मध्यमः। १४, १५, २१ पञ्चमः। १७ ऋषभः मध्यमश्च क्रमेण। १८, २२ ऋषभः। १९, २३ गान्धारः। २० धैवतः॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ पुनः परमात्मानं प्रार्थयते।

    पदार्थः

    हे सोम ! हे रसागार परमाह्लादक जगदाधार परमेश ! (वृत्रहन्तमः) पापानामतिशयेन हन्ता, (उक्थेभिः) स्तोत्रैः (अनुमाद्यः) प्रसादनीयः, (शुचिः) पवित्रः, (पावकः) पवित्रयिता, (अद्भुतः) आश्चर्यकरगुणकर्म- स्वभावः त्वम् (पवस्व) उपासकानस्मान् पुनीहि ॥६॥

    भावार्थः

    यः स्वयं पापानां हन्तृतमः पवित्रोऽद्भुतोऽस्ति सोऽन्यानपि निष्पापान् पवित्रान्तःकरणानद्भुतांश्च कुतो न कुर्यात् ? ॥६॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ९।२४।६ ‘वृत्रहन्तमो॒क्थेभि॑’ इति पाठः।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O pupil, the controller of the internal base passions of lust and anger, worthy of adulation through nice words, pure, wonderful purifier, roam about every where and spread knowledge !

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    Meaning

    Flow into the heart, beatify the soul, O greatest destroyer of the dirt and darkness of life, in response to our songs of adoration. O Spirit of absolute joy, you are pure, sanctifier and absolutely sublime. (Rg. 9-24-6)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (वृत्रहन्तमः) શાન્ત સ્વરૂપ પરમાત્મન્ ! તું મારા અંદરનાં પાપોનો અત્યન્ત હનનકર્ત્તા (उक्थेभिः अनुमाद्यः) પ્રશસ્ત વચનો દ્વારા નિરંતર સ્તુતિ યોગ (शुचिः) સ્વયં પવિત્ર (पावकः) ઉપાસકને પવિત્ર કરનાર (अद्भुतः) વિરલ-અપૂર્વ છે. (૬)

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जो स्वत: पापांचा सर्वात मोठा विनाशक, पवित्र व अद्भुत आहे, तो इतरांनाही निष्पाप पवित्र अंत:करणयुक्त व अद्भुत का करणार नाही? ॥६॥

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