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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 993
    ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - इन्द्राग्नी छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
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    ता꣢भि꣣रा꣡ ग꣢च्छतं न꣣रो꣢पे꣣द꣡ꣳ सव꣢꣯नꣳ सु꣣त꣢म् । इ꣡न्द्रा꣢ग्नी꣣ सो꣡म꣢पीतये ॥९९३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ता꣡भिः꣢꣯ । आ । ग꣣च्छतम् । नरा । उ꣡प꣢꣯ । इ꣣द꣢म् । स꣡व꣢꣯नम् । सु꣣त꣢म् । इ꣡न्द्रा꣢꣯ग्नी । इ꣡न्द्र꣢꣯ । अ꣣ग्नीइ꣡ति꣢ । सो꣡म꣢꣯पीतये । सो꣡म꣢꣯ । पी꣣तये ॥९९३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ताभिरा गच्छतं नरोपेदꣳ सवनꣳ सुतम् । इन्द्राग्नी सोमपीतये ॥९९३॥


    स्वर रहित पद पाठ

    ताभिः । आ । गच्छतम् । नरा । उप । इदम् । सवनम् । सुतम् । इन्द्राग्नी । इन्द्र । अग्नीइति । सोमपीतये । सोम । पीतये ॥९९३॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 993
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 10; मन्त्र » 3
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 6; खण्ड » 3; सूक्त » 4; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में फिर वही विषय है।

    पदार्थ

    हे (नरा) नेता (इन्द्राग्नी) आत्मा और मन एवं राजा और सेनापति ! (इदं सवनम् उप सुतम्) तुम्हारे लिए यह उद्बोधन स्तोत्र गाया गया है। तुम (ताभिः) उन पूर्वमन्त्रोक्त लाख उदात्त कामनाओं के साथ(सोमपीतये) वीररस के पानार्थ (आगच्छतम्) आओ ॥३॥

    भावार्थ

    मनुष्य के आत्मा में तथा राजा एवं सेनाध्यक्ष में जो बहुत सी महत्त्वाकाङ्क्षाएँ रहती हैं, वे वीरता से ही सिद्ध की जा सकती हैं। आध्यात्मिक उत्कर्ष भी वीरता से ही सम्भव है, आलसीपन से नहीं ॥३॥ इस खण्ड में अग्नि की स्तुति द्वारा परमात्मा की स्तुति का वर्णन करने से, मित्र-वरुण नाम से परमात्मा-जीवात्मा एवं प्राण-अपान का वर्णन होने से, इन्द्र नाम से जीवात्मा को उद्बोधन होने से, इन्द्राग्नी नाम से आत्मा और मन को उद्बोधन होने से तथा प्रसङ्गतः मित्र-वरुण नाम से राष्ट्रपति एवं प्रधानमन्त्री तथा अध्यापक एवं उपदेशक और इन्द्राग्नी नाम से राजा एवं सेनापति के भी कर्त्तव्य आदि कथित होने से इस खण्ड की पूर्व खण्ड के साथ सङ्गति है, यह जानना चाहिए ॥ षष्ठ अध्याय में तृतीय खण्ड समाप्त ॥

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    पदार्थ

    (नरा-इन्द्राग्नी) हे जीवननेता ऐश्वर्यवन् और ज्ञानप्रकाशस्वरूप परमात्मन्! (इदं सवनं सुतम्-उप) इस निष्पादनस्थान हृदय तथा निष्पन्न उपासनारस की ओर (ताभिः-आगच्छतम्) उन अपनी अध्यात्म-सम्पदाओं और ज्ञानप्रकाशधाराओं के साथ आओ (सोमपीतये) उपासनारस पान करने स्वीकार करने के लिए॥३॥

    विशेष

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    विषय

    यज्ञमय जीवन व सोमपान

    पदार्थ

    १. हे (नरा) = हमें उन्नति - पथ पर आगे और आगे ले-चलनेवाले (इन्द्राग्नी) = प्राणापानो ! (ताभिः) = अपनी अत्यन्त स्पृहणीय शक्तियों के साथ–भद्र से संयोग व अभद्र से वियोगकारिणी शक्तियों के साथ (इदम्) = इस (सुतम्) = प्रजाओं के साथ ही उत्पन्न किये गये (सवनम्) = यज्ञ के (उपागच्छतम्) = समीप आइए, अर्थात् प्राणापान की साधना करते हुए हम यज्ञमय जीवनवाले हों। २. हे प्राणापानो! आप (सोमपीतये) = सोम का पान करने के लिए होओ। आपकी साधना के द्वारा मैं सोम को शरीर में ही व्याप्त कर सकूँ ।

    भावार्थ

    प्राणापान की साधना के दो लाभ हैं – १. जीवन यज्ञमय बनता है, २. सोम शरीर में ही खप जाता है ।

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    विषय

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    भावार्थ

    हे (नरौ) दोनों नेताओ ! (ताभिः) आप पूर्वोक्न विवेचक शक्तियों साथ ही (इदं) इस (सुतं) उत्पादित (सवनं) यज्ञ में (सोमपीतये) उत्तम आनन्दप्रद, सोमरस, या धर्मपथ प्राप्त कराने के लिये (उप आ गच्छतं) आइये।

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—त्रय ऋषिगणाः। २ काश्यपः ३, ४, १३ असितः काश्यपो देवलो वा। ५ अवत्सारः। ६, १६ जमदग्निः। ७ अरुणो वैतहव्यः। ८ उरुचक्रिरात्रेयः ९ कुरुसुतिः काण्वः। १० भरद्वाजो बार्हस्पत्यः। ११ भृगुर्वारुणिर्जमदग्निर्वा १२ मनुराप्सवः सप्तर्षयो वा। १४, १६, २। गोतमो राहूगणः। १७ ऊर्ध्वसद्मा कृतयशाश्च क्रमेण। १८ त्रित आप्तयः । १९ रेभसूनू काश्यपौ। २० मन्युर्वासिष्ठ २१ वसुश्रुत आत्रेयः। २२ नृमेधः॥ देवता—१-६, ११-१३, १६–२०, पवमानः सोमः। ७, २१ अग्निः। मित्रावरुणौ। ९, १४, १५, २२, २३ इन्द्रः। १० इन्द्राग्नी॥ छन्द:—१, ७ नगती। २–६, ८–११, १३, १६ गायत्री। २। १२ बृहती। १४, १५, २१ पङ्क्तिः। १७ ककुप सतोबृहती च क्रमेण। १८, २२ उष्णिक्। १८, २३ अनुष्टुप्। २० त्रिष्टुप्। स्वर १, ७ निषादः। २-६, ८–११, १३, १६ षड्जः। १२ मध्यमः। १४, १५, २१ पञ्चमः। १७ ऋषभः मध्यमश्च क्रमेण। १८, २२ ऋषभः। १९, २३ गान्धारः। २० धैवतः॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ पुनरपि स एव विषय उच्यते।

    पदार्थः

    हे (नरा) नरौ नेतारौ (इन्द्राग्नी) आत्ममनसी नृपतिसेनापती वा ! (इदं सवनम् उप सुतम्)युवाभ्याम् इदम् उद्बोधनस्तोत्रं गीतमस्ति। युवाम् (ताभिः) पूर्वमन्त्रोक्ताभिः नियुद्भिः लक्षसंख्यकाभिः उदात्ताभिः कामनाभिः सह (सोमपीतये) वीररसस्य पानाय (आ गच्छतम्) आयातम् ॥३॥२

    भावार्थः

    मनुष्यस्यात्मनि नृपतौ सेनाध्यक्षे वा या बह्व्यो महत्त्वाकाङ्क्षास्तिष्ठन्ति ता वीरतयैव साद्धुं शक्यन्ते। आध्यात्मिकोत्कर्षोऽपि वीरतयैव संभवति न त्वलसत्वेन ॥३॥ अस्मिन् खण्डेऽग्निस्तुत्या परमात्मस्तुतिवर्णनाद् मित्रावरुणनाम्ना परमात्मजीवात्मनोः प्राणापानयोश्च वर्णनाद्, इन्द्रनाम्ना जीवात्मन उद्बोधनाद्, इन्द्राग्निनाम्नाऽऽत्ममनसोरुद्बोधनात्, प्रसङ्गतश्च मित्रावरुणनाम्ना राष्ट्रपतिप्रधानमन्त्रिणोरध्यापकोपदेशकयोश्च, इन्द्राग्निनाम्ना च नृपतिसेनापत्योः कर्तव्यादिकथनादेतत्खण्डस्य पूर्वखण्डेन संगतिरस्तीति वेद्यम् ॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ६।६०।९। २. ऋग्भाष्ये दयानन्दर्षिर्मन्त्रमिमं विद्वत्पक्षे व्याख्यातवान्।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Ye heroes, teacher and preacher, come to this well-prepared Yajna with Your enviable characteristics, for leading us on the path of virtue !

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    Meaning

    Indra and Agni, leading lights, with those cherished gifts and powers come and join this yajnic session to drink of the soma of joy distilled. (Rg. 6-60-9)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    ભાવાર્થ : (नरा इन्द्राग्नी) હે જીવનનેતા ઐશ્વર્યવાન અને જ્ઞાનપ્રકાશ સ્વરૂપ પરમાત્મન્ ! (इदं सवनं सुतम् उप) એ નિષ્પાદન સ્થાન હૃદય તથા જ્ઞાનપ્રકાશ ધારાઓની તરફ (ताभिः आगच्छतम्) તે પોતાની અધ્યાત્મ સંપદાઓ અને જ્ઞાનપ્રકાશ ધારાઓની સાથે આવો (सोमपीतये) ઉપાસનારસ પાન કરવા-સ્વીકાર કરવા માટે-આવો. (૩)

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    माणसाच्या आत्म्यात व राजा आणि सेनाध्यक्षात ज्या अनेक महत्त्वांकाक्षा असतात, त्या वीरतेनेच सिद्ध करता येतात. आध्यात्मिक उत्कर्ष ही वीरतेनेच शक्य आहे, आळशीपणाने नव्हे. ॥३॥

    टिप्पणी

    या खंडात अग्नीच्या स्तुतीद्वारे परमात्म्याचे वर्णन करण्याने, मित्र-वरुण नावाने परमात्मा-जीवात्मा व प्राण अपानचे वर्णन असल्यामुळे, इन्द्र नावाने जीवात्म्याचे उद्बोधन असल्यामुळे व प्रसंगाप्रमाणे मित्र-वरुण नावाने राष्ट्रपती व प्रधानमंत्री तसेच अध्यापक व उपदेशक, तसेच इन्द्राग्नी नावाने राजा व सेनापतीचेही कर्तव्य इत्यादी सांगितल्यामुळे या खंडाची पूर्व खंडाबरोबर संगती आहे, हे जाणले पाहिजे

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