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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 998
ऋषिः - सप्तर्षयः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - बृहती
स्वरः - मध्यमः
काण्ड नाम -
18
अ꣣नूपे꣢꣫ गोमा꣣न्गो꣡भि꣢रक्षाः꣣ सो꣡मो꣢ दु꣣ग्धा꣡भि꣢रक्षाः । स꣣मुद्रं꣢꣫ न सं꣣व꣡र꣢णान्यग्मन्म꣣न्दी꣡ मदा꣢꣯य तोशते ॥९९८॥
स्वर सहित पद पाठअ꣣नूपे꣢ । गो꣡मा꣢꣯न् । गो꣡भिः꣢꣯ । अ꣣क्षारि꣡ति꣢ । सो꣡मः꣢꣯ । दु꣣ग्धा꣡भिः꣢ । अ꣣क्षारि꣡ति꣢ । स꣣मुद्र꣢म् । स꣣म् । उद्र꣢म् । न । सं꣣व꣡र꣢णानि । स꣣म् । व꣡र꣢꣯णानि । अ꣣ग्मन् । मन्दी꣢ । म꣡दा꣢꣯य । तो꣣शते ॥९९८॥
स्वर रहित मन्त्र
अनूपे गोमान्गोभिरक्षाः सोमो दुग्धाभिरक्षाः । समुद्रं न संवरणान्यग्मन्मन्दी मदाय तोशते ॥९९८॥
स्वर रहित पद पाठ
अनूपे । गोमान् । गोभिः । अक्षारिति । सोमः । दुग्धाभिः । अक्षारिति । समुद्रम् । सम् । उद्रम् । न । संवरणानि । सम् । वरणानि । अग्मन् । मन्दी । मदाय । तोशते ॥९९८॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 998
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 12; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 6; खण्ड » 4; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 12; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 6; खण्ड » 4; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अगले मन्त्र में दुधारू गायों का वर्णन है।
पदार्थ
(यदा) जब (गोमान्) गायों का स्वामी (गोभिः) गायों के साथ (अनूपे) अधिक जलवाले देश में (अक्षाः) निवास करता है, तब (दुग्धाभिः) दुही हुई भी गायों से (सोमः) दूध (अक्षाः) झरता रहता है, अर्थात् गायों में इतना अधिक दूध होता है कि दुह लेने के बाद भी पर्याप्त दूध थनों में बचा होकर चूता रहता है। (समुद्रं न) समुद्र में जैसे (संवरणानि) नदियों के जल पहुँचते हैं, वैसे ही गायों के दूध विशाल कड़ाह आदि में (अग्मन्) जाते हैं। (मन्दी) हर्षदायक गोदुग्ध-रूप सोम (मदाय) गोस्वामियों के हर्ष के लिए (तोशते) दुहने के समय शब्द करता है ॥२॥ यहाँ उपमालङ्कार है। ’रक्षाः’ की आवृत्ति में यमक है ॥२॥
भावार्थ
जिस घर या परिवार में बहुत दूध देनेवाली धेनुएँ हैं, वहाँ के निवासी यथेच्छ गाय के दूध, दही, मक्खन आदि का सेवन करते हुए और गाय के घी से यज्ञ करते हुए तथा परमात्मा का ध्यान करते हुए सदा खूब प्रसन्न रहते हैं ॥२॥
पदार्थ
(गोमान् गोभिः-अनूपे-अक्षाः) गौओं वाला गोपाल गौओं के साथ जैसे अनूप देश—जलाधान स्थान की ओर प्रस्थान करता है*73 ऐसे (सोमः-दुग्धाभिः-अक्षाः) शान्तस्वरूप परमात्मा उपासकों द्वारा प्रपूरित की हुई उपासनारस धाराओं के साथ व्याप्त होता है प्राप्त होता है (संवरणानि समुद्रं न-अग्मन्) जैसे रिक्त स्थान को भरने वाले जल अन्त में समुद्र की ओर चले जाते हैं ऐसे (मन्दी मदाय तोशते) हर्ष आनन्ददाता परमात्मा हर्ष आनन्दप्रवाह पहुँचाने के लिए सन्तोषयितव्य उपासक के अन्दर*74॥२॥
टिप्पणी
[*73. लुप्तोपमावाचकालङ्कारः।] [*74. ‘तोशते—तोष्टयितव्ये’ तुश सन्तोषे वैदिकधातुः, यद्वा वर्णव्यत्ययश्छान्दसः।]
विशेष
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विषय
अनूप में विहरण
पदार्थ
१. यजुर्वेद में कहा है ('तस्मिन् अपो मातरिश्वा दधाति'), अर्थात् जीव उस प्रभु में ही कर्मों को धारण करता है।' अनुगताः आपः यस्मिन्' जिसमें सब कर्म हो रहे हैं, इस व्युत्पत्ति से प्रभु को ‘अनूप' कहा है। एक (गोमान्) = उत्तम ज्ञानेन्द्रियोंवाला व्यक्ति (गोभिः) = वेदवाणियों के द्वारा (अनूपे) = उस सब कर्मों के आधार प्रभु में (अक्षाः) = व्याप्त होता है अथवा गति करता है, अर्थात् प्रशस्त इन्द्रियोंवाला बनकर वेदानुकूल कर्मों से उस प्रभु में निवास करनेवाला बनता है [क्षि=निवासे]।
२. (सोमः) = रुधिरादि क्रम से उत्पन्न हुआ हुआ सोम (दुग्धाभिः) = दूही गयी व अपने में प्रपूरित की गयी [दुह प्रपूरणे] (गोभिः) = वेदवाणियों से (अक्षा:) = शरीर में व्याप्त होता है, अर्थात् सोमरक्षा का सर्वोत्तम साधन इन्द्रियों को ज्ञान प्राप्ति में लगाये रखना ही है ।
३. (संवरणानि) = अपने को वासनाओं के आक्रमण से पूर्ण सुरक्षित [संवृ=to cover] करनेवाले ही (समुद्रं न) = समुद्र के समान उस प्रभु को (अग्मन्) = प्राप्त होते हैं । वासनाओं के आक्रमण से अपने को सुरक्षित करनेवाला व्यक्ति ही सोम का अपने में रक्षण व निरोध करता है और इस सुरक्षित सोम से प्रभु को पानेवाला बनता है ।
४. (मन्दी) = प्रभु-प्राप्ति के आनन्द का अनुभव करनेवाला यह व्यक्ति (मदाय) = सात्त्विक उल्लास को प्राप्त करने के लिए (तोशते) = वासनाओं का – काम, क्रोध, लोभ का विनाश करता है। इसी का परिणाम होता है कि इसके इस शरीररूप ऋषि आश्रम में सातों ऋषियों का उत्तम निवास होता है ('कर्णाविमौ नासिके चक्षणी मुखम्') – इन सबकी उत्तमता के कारण इस मन्त्र का ऋषि ‘सप्तर्षयः' नामवाला ही हो जाता है ।
भावार्थ
हम उत्तम ज्ञानमयी वेदवाणी को अपनाकर सदा प्रभु में कार्य करनेवाले हों। वास्तविक आनन्द के लिए वासनाओं का विनाश करें ।
विषय
missing
भावार्थ
जिस प्रकार (गोमान्) गोपाल (गोभिः) गौश्र के साथ उनको चराने के लिये (अनूपे) निम्न देश में (अक्षाः) जाता है उसी प्रकार (सोमः) व्यापक आनन्दरस (दुग्धाः) दुग्ध के समान ज्ञानपूर्ण आनन्दमय धाराओं के साथ निम्न, हृदयदेश में क्षरित होते हैं। (संवरणानि) जल जिस प्रकार (समुद्र न) समुद्र की तरफ बहते हैं उसी प्रकार उत्तमरूप से वरण करने योग्य, सेवन करने योग्य आनन्दरस भी समुद्ररूप विक्षोभ रहित आत्मा में प्रकट होते हैं और (मन्दी) आनन्द में मग्न आत्मा (मदाय) अति हर्ष प्राप्त करने के निमित्त (तोशते) आगे बढ़ता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः—त्रय ऋषिगणाः। २ काश्यपः ३, ४, १३ असितः काश्यपो देवलो वा। ५ अवत्सारः। ६, १६ जमदग्निः। ७ अरुणो वैतहव्यः। ८ उरुचक्रिरात्रेयः ९ कुरुसुतिः काण्वः। १० भरद्वाजो बार्हस्पत्यः। ११ भृगुर्वारुणिर्जमदग्निर्वा १२ मनुराप्सवः सप्तर्षयो वा। १४, १६, २। गोतमो राहूगणः। १७ ऊर्ध्वसद्मा कृतयशाश्च क्रमेण। १८ त्रित आप्तयः । १९ रेभसूनू काश्यपौ। २० मन्युर्वासिष्ठ २१ वसुश्रुत आत्रेयः। २२ नृमेधः॥ देवता—१-६, ११-१३, १६–२०, पवमानः सोमः। ७, २१ अग्निः। मित्रावरुणौ। ९, १४, १५, २२, २३ इन्द्रः। १० इन्द्राग्नी॥ छन्द:—१, ७ नगती। २–६, ८–११, १३, १६ गायत्री। २। १२ बृहती। १४, १५, २१ पङ्क्तिः। १७ ककुप सतोबृहती च क्रमेण। १८, २२ उष्णिक्। १८, २३ अनुष्टुप्। २० त्रिष्टुप्। स्वर १, ७ निषादः। २-६, ८–११, १३, १६ षड्जः। १२ मध्यमः। १४, १५, २१ पञ्चमः। १७ ऋषभः मध्यमश्च क्रमेण। १८, २२ ऋषभः। १९, २३ गान्धारः। २० धैवतः॥
संस्कृत (1)
विषयः
अथ दोग्ध्र्यो गावो वर्ण्यन्ते।
पदार्थः
यदा (गोमान्) गोस्वामी (गोभिः) धेनुभिः सह (अनूपे) जलप्रचुरे देशे (अक्षाः) क्षियति निवसति तदा (दुग्धाभिः) दुग्धाभ्योऽपि गोभ्यः। [पञ्चम्यर्थे तृतीया।] (सोमः) पयः (अक्षाः) क्षरति। एतावत् प्रचुरं गोदुग्धं गोषु भवति यद् दोहनानन्तरमपि पर्याप्तं पयः स्तनेष्ववशिष्यमाणः स्रवतीति भावः। (समुद्रं न) पयोधिं यथा (संवरणानि) नदीनाम् उदकानि गच्छन्ति, तद्वद् गवां दुग्धानि विशालं कटाहादिकम् (अग्मन्) गच्छन्ति। (मन्दी) हर्षकरः गोदुग्धरूपः सोमः (मदाय) गोस्वामिनां हर्षाय (तोशते) दोहनकाले शब्दं करोति। [तुस शब्दे भ्वादिः, सकारस्य शकारादेशश्छान्दसः] ॥२॥ एतन्मन्त्रस्य पूर्वार्धो यास्काचार्येणैवं व्याख्यातः [अनूपे गोमान् गोभिरक्षाः सोमो दुग्धाभिरक्षाः। क्षियति-निगमः पूर्वः, क्षरति-निगम उतरः इत्येके। अनूपे गोमान् गोभिर्यदा क्षियत्यथ सोमो दुग्धाभ्यः क्षरति। सर्वे क्षियति-निगमा इति शाकपूणिः। निरु० ५।१३। इति] ॥ अत्रोपमालङ्कारः। ‘रक्षाः’ इत्यस्यावृत्तौ च यमकम् ॥२॥
भावार्थः
यस्मिन् गृहे परिवारे वा प्रचुरदुग्धदात्र्यो धेनवः सन्ति तन्निवासिनो यथेच्छं गोदुग्धदधिनवनीतादिकं सेवमाना गव्येन घृतेन यज्ञांश्च कुर्वन्तः परमात्मानं च ध्यायन्तः सदा सुप्रसन्नास्तिष्ठन्ति ॥२॥
टिप्पणीः
१. ऋ० ९।१०७।९।
इंग्लिश (2)
Meaning
Just as a cowherd takes Kine for grazing to a low marshy place, so do the streams of delight, full of knowledge pure like milk, flow down to the heart. Just as waters flow to the ocean, so do spiritual joys flow to a calm soul. The soul, absorbed in happiness, goes forward for acquiring still greater happiness.
Meaning
Soma, divine master of holy speech, emerges in the depth of the heart with the voice of divinity and blesses the devotee with the revelation of the milk of spiritual sustenance. Just as streams of water flow and reach the sea, so is the divine stream and spirit of joy invoked and celebrated for the central bliss of the soul. (Rg. 9-107-9)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (गोमान् गोभिः अनूपे अक्षाः) ગાયોવાળો ગોપાલ-ગોવાળ જેમ ગાયોની સાથે અનૂપદેશજલપ્રધાન દેશ-સ્થાન તરફ પ્રસ્થાન કરે છે, તેમ (सोम दुग्धाभिः अक्षाः) શાન્ત સ્વરૂપ પરમાત્મા ઉપાસકો દ્વારા પ્રપૂરિત કરેલી ઉપાસનારસ ધારાઓની સાથે વ્યાપ્ત થાય છે-પ્રાપ્ત થાય છે. (संवरणानि समुद्रं न अग्मन्) જેમ ખાલી સ્થાનને ભરનાર જળ અન્તમાં સમુદ્રની તરફ ચાલ્યું જાય છે, તેમ (मन्दी मदाय तोशते) હર્ષ આનંદદાતા પરમાત્મા હર્ષ-આનંદ પ્રવાહ પહોંચાડવા માટે સંતોષી ઉપાસકની અંદર પ્રાપ્ત થાય છે. (૨)
मराठी (1)
भावार्थ
ज्या घरात किंवा परिवारात पुष्कळ दूध देणाऱ्या गायी असतात, तेथील लोक गायीचे दूध, दही, लोणी इत्यादीचे सेवन करत गाईच्या तुपाने यज्ञ करतात व परमात्म्याचे ध्यान करतात ते सदैव प्रसन्न असतात. ॥२॥
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