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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 999
    ऋषिः - असितः काश्यपो देवलो वा देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
    35

    य꣡त्सो꣢म चि꣣त्र꣢मु꣣꣬क्थ्यं꣢꣯ दि꣣व्यं꣡ पार्थि꣢꣯वं꣣ व꣡सु꣢ । त꣡न्नः꣢ पुना꣣न꣡ आ भ꣢꣯र ॥९९९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य꣢त् । सो꣣म । चित्र꣢म् । उ꣣क्थ्यम्꣢ । दि꣣व्य꣢म् । पा꣡र्थि꣢꣯वम् । व꣡सु꣢꣯ । तत् । नः꣣ । पुनानः꣢ । आ । भ꣣र ॥९९९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यत्सोम चित्रमुक्थ्यं दिव्यं पार्थिवं वसु । तन्नः पुनान आ भर ॥९९९॥


    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । सोम । चित्रम् । उक्थ्यम् । दिव्यम् । पार्थिवम् । वसु । तत् । नः । पुनानः । आ । भर ॥९९९॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 999
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 13; मन्त्र » 1
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 6; खण्ड » 4; सूक्त » 3; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    प्रथम मन्त्र में परमात्मा और आचार्य से प्रार्थना की गयी है।

    पदार्थ

    हे (सोम) दिव्य आनन्द, विद्या आदि परम ऐश्वर्य से युक्त जगदीश्वर वा आचार्य ! (यत्) जो (चित्रम्) अद्भुत, (उक्थ्यम्) प्रशंसनीय, (दिव्यम्) योगसिद्धि,मोक्ष आदि दिव्य, तथा (पार्थिवम्) सोना, हीरे, मोती, चक्रवर्त्ती राज्य आदि भौतिक (वसु) धन है, (तत्) उस धन को, आप (नः) हमें (पुनानः) पवित्र करते हुए (आ भर) प्रदान कीजिए ॥१॥

    भावार्थ

    परमात्मा की कृपा को प्राप्त हुए और आचार्य द्वारा तरह-तरह की आध्यात्मिक तथा भौतिक विद्याओं में पारङ्गत किये हुए हम सकल दिव्य एवं पार्थिव धन को एकत्र कर सकते हैं ॥१॥

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    पदार्थ

    (सोम) हे शान्तस्वरूप परमात्मन्! (यत्) जो (चित्रम्) चायनीय जीवन में या अन्तरात्मा में धारण करने योग्य (उक्थ्यम्) प्रशंसनीय (दिव्यं पार्थिवं वसु) दिव्य भी है पार्थिव भी है मोक्ष में प्राप्त होने योग्य अमृतधन तथा पार्थिव—इस पृथिवी से उत्पन्न शरीर में प्राप्त होने वाला अध्यात्मधन ध्यान से प्राप्त होने योग्य है (तत्-नः) उसे हमारे लिए (पुनानः-आभर) पवित्र करता हुआ आभरित कर॥१॥

    विशेष

    ऋषिः—असितो देवलो वा (राग बन्धन से रहित या परमात्मदेव को अपने अन्दर लाने वाला)॥ देवता—सोमः (शान्तस्वरूप परमात्मा)॥ छन्दः—गायत्री॥<br>

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    विषय

    अद्भुत प्रशस्त धन

    पदार्थ

    (दिव्यम्) = द्युलोक-सम्बन्धी तथा (पार्थिवम्) = पृथिवीलोक-सम्बन्धी हे (सोम) = सोम ! (यत्) = जो (चित्रम्) = अद्भुत अथवा ज्ञान देनेवाला [चित्+र] (उक्थ्यम्) = प्रशंसनीय – स्तुति के योग्य (वसु) = ऐश्वर्य है (तत्) = उसे (नः) = हमें (पुनानः) = पवित्र करते हुए (आभर) = प्राप्त कराइए।

    ‘सोम' नाम उस प्रभु का है जो सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को जन्म देनेवाले हैं, जो ऐश्वर्य के पुञ्ज हैं, शान्त व अमृतस्वरूप हैं । वे हमें द्युलोक-सम्बन्धी ऐश्वर्य, अर्थात् ज्ञान प्राप्त कराएँ । शरीर में मस्तिष्क ही द्युलोक है। वे हमें पार्थिव ऐश्वर्य, अर्थात् शारीरिक बल भी दें । 'पृथिवी' शरीर है। इन दोनों वसुओं को प्राप्त कराते हुए वे हमें पवित्र बना दें।

    ज्ञान और शक्ति का समन्वय ही मनुष्य को पवित्र जीवनवाला बनाता है।

    ‘सोम' का अर्थ शरीर में उत्पन्न शक्ति भी है । वह शारीरिक बल का मूल तो है ही उससे मनुष्य की ज्ञानाग्नि भी दीप्त होती है । इस प्रकार यह सोम शरीर में रोगादि मलों को न आने देकर तथा मस्तिष्क में अन्धकार को न आने देकर हमारे जीवन को बड़ा पवित्र बना देता है। 

    भावार्थ

    सोम हमें दिव्य व पार्थिव वसु प्राप्त कराए और हमारे जीवनों को पवित्र बना दे।

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    विषय

    missing

    भावार्थ

    हे (सोम) सर्वोत्पादक ! (पुनानः) तू सर्वव्यापक परमेश्वर (नः) हमें (यत्) जो (चित्रं) संग्रह करने योग्य उत्तम अद्भुत् (दिव्यं) दिव्यगुण सम्पन्न, (पार्थिवम्) इस पृथ्वी पर (वसु) धन है (तत्) वह (आभर) प्राप्त करा।

    टिप्पणी

    ‘पुनान आयुषु’ ‘योनिमासदत्’ इति ऋ०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—त्रय ऋषिगणाः। २ काश्यपः ३, ४, १३ असितः काश्यपो देवलो वा। ५ अवत्सारः। ६, १६ जमदग्निः। ७ अरुणो वैतहव्यः। ८ उरुचक्रिरात्रेयः ९ कुरुसुतिः काण्वः। १० भरद्वाजो बार्हस्पत्यः। ११ भृगुर्वारुणिर्जमदग्निर्वा १२ मनुराप्सवः सप्तर्षयो वा। १४, १६, २। गोतमो राहूगणः। १७ ऊर्ध्वसद्मा कृतयशाश्च क्रमेण। १८ त्रित आप्तयः । १९ रेभसूनू काश्यपौ। २० मन्युर्वासिष्ठ २१ वसुश्रुत आत्रेयः। २२ नृमेधः॥ देवता—१-६, ११-१३, १६–२०, पवमानः सोमः। ७, २१ अग्निः। मित्रावरुणौ। ९, १४, १५, २२, २३ इन्द्रः। १० इन्द्राग्नी॥ छन्द:—१, ७ नगती। २–६, ८–११, १३, १६ गायत्री। २। १२ बृहती। १४, १५, २१ पङ्क्तिः। १७ ककुप सतोबृहती च क्रमेण। १८, २२ उष्णिक्। १८, २३ अनुष्टुप्। २० त्रिष्टुप्। स्वर १, ७ निषादः। २-६, ८–११, १३, १६ षड्जः। १२ मध्यमः। १४, १५, २१ पञ्चमः। १७ ऋषभः मध्यमश्च क्रमेण। १८, २२ ऋषभः। १९, २३ गान्धारः। २० धैवतः॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    तत्रादौ परमात्मानमाचार्यं च प्रार्थयते।

    पदार्थः

    हे (सोम) दिव्यानन्दविद्यादिपरमैश्वर्ययुक्त जगदीश्वर आचार्य वा ! (यत् चित्रम्) अद्भुतम्, (उक्थ्यम्) प्रशंसनीयम्, (दिव्यम्) योगसिद्धिमोक्षादिकम् अलौकिकम् (पार्थिवम्) भौतिकं च सुवर्णहीरकमुक्ताचक्रवर्तिराज्यादिकम् (वसु) धनं विद्यते (तत्) धनम्, त्वम् (नः) अस्मान् (पुनानः) पवित्रयन् (आ भर) आहर ॥१॥

    भावार्थः

    परमात्मनः कृपां प्राप्ता आचार्यद्वारा च विविधास्वाध्यात्मिकीषु भौतिकीषु च विद्यासु पारं गमिता वयं सर्वं दिव्यं पार्थिवं च धनमर्जयितुं शक्नुमः ॥१॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ९।१९।१।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O Purifying God, bring to us the wondrous, laudable, excellent treasure, that exists in earth !

    Translator Comment

    See verse 411.

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    Meaning

    O Soma, lord of peace, purity and power, purify for us the wealth, honour and excellence both worldly and heavenly which is wonderfully versatile, valuable and admirable, pray sanctify it and bless us with the sacred gift. (Rg. 9-19-1)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (सोम) શાન્ત સ્વરૂપ પરમાત્મન્ ! (यत्) જે (चित्रम्) અનેક પ્રકારનું જીવનમાં અથવા અન્તરાત્મામાં ધારણ કરવા યોગ્ય (उक्थ्यम्) પ્રશંસનીય (दिव्यं पार्थिवं वसु) દિવ્ય પણ છે, પાર્થિવ પણ છે, મોક્ષમાં પ્રાપ્ત થવા યોગ્ય અમૃતધન તથા પાર્થિવ આ પૃથિવીથી ઉત્પન્ન શરીરમાં પ્રાપ્ત થનાર અધ્યાત્મધન ધ્યાનથી પ્રાપ્ત થવા યોગ્ય છે. (तत् नः) તેને અમારે માટે (पुनानः आभर) પવિત્ર કરીને ભરપૂર કરી દે. (૧)

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमेश्वराच्या कृपेने व आचार्याद्वारे वेगवेगळ्या आध्यात्मिक व भौतिक विद्यांमध्ये पारंगत असलेले आम्ही संपूर्ण दिव्य व पार्थिव धन एकत्र करू शकतो. ॥१॥

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