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अथर्ववेद के काण्ड - 1 के सूक्त 21 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 21/ मन्त्र 3
    ऋषिः - अथर्वा देवता - इन्द्रः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - शत्रुनिवारण सूक्त
    143

    वि रक्षो॒ वि मृधो॑ जहि॒ वि वृ॒त्रस्य॒ हनू॑ रुज। वि म॒न्युमि॑न्द्र वृत्रहन्न॒मित्र॑स्याभि॒दास॑तः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वि । रक्ष॑: । वि । मृध॑: । ज॒हि॒ । वि । वृ॒त्रस्य॑ । हनू॒ इति॑ । रु॒ज॒ । वि । म॒न्युम् । इ॒न्द्र॒ । वृ॒त्र॒ऽह॒न् । ‍अ॒मित्र॑स्य । अ॒भि॒ऽदास॑त: ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वि रक्षो वि मृधो जहि वि वृत्रस्य हनू रुज। वि मन्युमिन्द्र वृत्रहन्नमित्रस्याभिदासतः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वि । रक्ष: । वि । मृध: । जहि । वि । वृत्रस्य । हनू इति । रुज । वि । मन्युम् । इन्द्र । वृत्रऽहन् । ‍अमित्रस्य । अभिऽदासत: ॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 1; सूक्त » 21; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    राजनीति और शान्तिस्थापन का उपदेश।

    पदार्थ

    (रक्षः=रक्षांसि) राक्षसों और (मृधः) हिंसकों को (वि वि) सर्वथा (जहि) तू मार डाल, (वृत्रस्य) शत्रु के (हनू) दोनों जावड़ों को (विरुज) तोड़ दे (वृत्रहन्) हे अन्धकार मिटानेहारे (इन्द्र) बड़े ऐश्वर्यवाले राजन् ! (अभिदासतः) चढ़ाई करनेहारे (अमित्रस्य) पीडाप्रद शत्रु के (मन्युम्) कोप को (वि=विरुज) भङ्ग कर दे ॥३॥

    भावार्थ

    १−राजा को पुरुषार्थी होकर शत्रुओं का नाश करके और प्रजा में शान्ति फैलाकर आनन्द भोगना चाहिये ॥ २−सर्वरक्षक परमेश्वर के प्रताप से मनुष्य अपने बाहिरी और भीतरी शत्रुओं को निर्बल करें ॥३॥

    टिप्पणी

    ३−रक्ष। रक्ष पालने−असुन्। रक्षो रक्षितव्यमस्मात्−निरु० ४।१८। जातावेकवचनम्। राक्षसम्। शत्रुम्। वि। विशेषण, सर्वथा। मृधः। म० २। मर्धयितॄन्, हिंसकान्। जहि। म० २। नाशय। वृत्रस्य। म० १। शत्रोः। हनू। शॄस्वृस्निहि०। उ० १।१०। इति हन वधे−उ प्रत्ययः। हन्ति कठोर−द्रव्यादिकमिति हनुः। कपोलद्वयोपरिमुखभागौ। रुज। रुजो भङ्गे तुदादिः। भङ्गधि। विदारय। वि−विरुज। मन्युम्। १।१०।१। क्रोधं, कोपम्। वृत्र-हन्। म० १। हे अन्धकारनाशक ! अमित्रस्य। १।१९।२। पीडकस्य, शत्रोः। अभि-दासतः। दसु उत् क्षेपे−शतृ। उपक्षपयतः, उत्-क्षेपणशीलस्य ॥

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    विषय

    वृत्रों का विनाश

    पदार्थ

    १. हे (इन्द्र) = शत्रुनाशक ! राष्ट्र के ऐश्वर्य को बढ़ानेवाले राजन् ! (रक्षः) = अपने रमण के लिए औरों का क्षय करनेवाले, औरों का नाश करके अपने भोगों को बढ़ानेवाले पुरुषों को (विजहि) = विशेषरूप से नष्ट कीजिए। (मृधः) = प्राणघातक पुरुषों को तो अलग कौजिए ही। (वृत्रस्य) = औरों की उन्नति में सदा रोड़ा अटकानेवाले के (हन: विरूज) = जबड़ों को तोड़ दीजिए, अर्थात् उनकी शक्ति को कम कीजिए। २. हे (वृत्रहन्) = वृत्रों का विनाश करनेवाले राजन्! (अभिदासतः अमित्रस्य) = हमें अपना दास बनानेवाले शत्रु के (मन्युम्) = उत्साह को (वि) = विनष्ट कीजिए। उसपर आक्रमण करके ऐसा दिखाइए कि उसका हमपर आक्रमण करने का उत्साह ही नष्ट हो जाए।

    भावार्थ

    राजा राक्षसी वृत्तिवाले, हिंसक, उन्नतिविघातक पुरुषों को दूर करे, बाह्य आक्रान्ताओं को भी समाप्त करे।

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    भाषार्थ

    (रक्षः) राक्षस स्वभाववाले शत्रु राजा का (विजहि) हनन कर, (मृधः) उसके संग्राम करनेवाले सैनिकों का (वि जहि ) हनन कर, ( वृत्रस्य) हमें घेरनेवाले सेनापति की (हनु) दोनों हुनुओं का (रुज) भंग कर। (वृत्रहन्) हम पर घेरा डालनेवाले का हनन करनेवाले, (अभिदासतः) हमारा उपक्षय करनेवाले (अमित्रस्य) शत्रु के (मन्युम्) क्रोध को ( इन्द्र) हे सम्राट्! (वि) विगत कर। अथवा विरुजः; रुजो भंगे (तुदादि:)

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    विषय

    राजा के कर्तव्य ।

    भावार्थ

    हे ( इन्द्र ) राजन् ! ( रक्षः ) राक्षस, जिससे राष्ट्र को बचाना आवश्यक है ऐसे हानिकारक पुरुष एवं पदार्थ, रोग व्याधि, कुप्रथा आदि को ( वि जहि ) विनाश कर । हे ( वृत्रहन् ) राष्ट्र के घेरने हारे और विघ्नकारी पुरुष के नाशक ! आप ( वृत्रस्य ) सर्वत्र विघ्नकारी और घेरने हारे उस दुष्ट पुरुष के ( हनू ) दाढों को या प्रहार के साधनों को ( वि रुज ) अच्छी प्रकार तोड़ डाल । हे राजन् ! ( अमिदासतः ) हमारे क्षयकारी या हमें गुलाम बनाने की चेष्टा करने वाले ( अमित्रस्य ) शत्रु के ( मन्युं ) क्रोध, गर्व और अभिमान को ( विरुज ) चूर कर दे।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। ऋग्वेदे शासो भारद्वाज ऋषिः। इन्द्रो देवता। अनुष्टुप् छन्दः। चतुर्ऋचं सूक्तम्।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    People’s Ruler

    Meaning

    Indra, destroy the forces of negativity and destruction, eliminate violence, hate and enmity, break the jaws of evil and darkness. O destroyer of darkness and evil, break down the pride and passion of enmity and of the enemies of freedom who subject people to slavery.

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    Translation

    O resplendent Lord, destroy our enemies; humble those who are in array against us; send him to the deep dungeon who seeks to harm us. (Also Rg. X.152.4)

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    Translation

    O' ruler ; you are the dispeller of evils. Please drive away the evils and disease from our nation, break the Jaws of Vritra, the Powerful enemy. O mighty one! Suppress the proud and wrath of the man who comes to subjugate us.

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    Translation

    Strike down the fiend, strike down the foes, break thou asunder the enemy’s jaws. O King, the dispeller of darkness, quell the wrath of the assailing foe!

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३−रक्ष। रक्ष पालने−असुन्। रक्षो रक्षितव्यमस्मात्−निरु० ४।१८। जातावेकवचनम्। राक्षसम्। शत्रुम्। वि। विशेषण, सर्वथा। मृधः। म० २। मर्धयितॄन्, हिंसकान्। जहि। म० २। नाशय। वृत्रस्य। म० १। शत्रोः। हनू। शॄस्वृस्निहि०। उ० १।१०। इति हन वधे−उ प्रत्ययः। हन्ति कठोर−द्रव्यादिकमिति हनुः। कपोलद्वयोपरिमुखभागौ। रुज। रुजो भङ्गे तुदादिः। भङ्गधि। विदारय। वि−विरुज। मन्युम्। १।१०।१। क्रोधं, कोपम्। वृत्र-हन्। म० १। हे अन्धकारनाशक ! अमित्रस्य। १।१९।२। पीडकस्य, शत्रोः। अभि-दासतः। दसु उत् क्षेपे−शतृ। उपक्षपयतः, उत्-क्षेपणशीलस्य ॥

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    बंगाली (3)

    पदार्थ

    (রক্ষঃ) রাক্ষস ও (মৃধঃ) হিংসকগণকে (বি বি) সর্বপ্রকারে (জহি) তুমি হনন কর, (বৃত্রস্য) শত্রুর (হনু) উভয় দন্ত পাটীকে (রুজ) ভাজ কর। (সূত্রহম্) হে বিঘ্ন বিনাশক (ইন্দ্র) ঐশ্বর্যশালী রাজন! (অভিদাসত) আক্রমকারী (অমিত্রস্য) পীড়াদায়ক শত্রুর (মন্যুং ) কোপকে (বিরুজ) ভঙ্গ কর।।

    भावार्थ

    হে বিঘ্ননাশক ও ঐশ্বর্যশালী রাজন! তুমি রাক্ষস ও হিংসকগণকে যে কোন প্রকারে হনন কর। আক্রমণকারী, পীড়াদায়ক শত্রুর কোপকে ভগ্ন কর।।

    मन्त्र (बांग्ला)

    বি রক্ষো বি মৃধো জহি বি বৃত্রস্য হনু রুজ। বি মন্যুমিন্দ্র বৃত্র হন্নমিত্রস্যাভিদাসতঃ।

    ऋषि | देवता | छन्द

    অর্থবা। ইন্দ্ৰঃ। অনুষ্টুপ্

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    मन्त्र विषय

    (রাজনীতিস্বস্তিস্থাপনোপদেশঃ) রাজনীতি এবং শান্তিস্থাপনের উপদেশ

    भाषार्थ

    (রক্ষঃ=রক্ষাংসি) রাক্ষসসমূহ এবং (মৃধঃ) হিংসকদের (বি বি) সর্বথা (জহি) তুমি বিনাশ করো, (বৃত্রস্য) শত্রুর (হনূ) উভয় চোয়ালকে (বিরুজ) ভেঙে দাও/ভঙ্গ/বিদারিত করো । (বৃত্রহন্) হে অন্ধকার দূরীভূতকারী/মোচনকারী (ইন্দ্র) বৃহৎ ঐশ্বর্যবান রাজন ! (অভিদাসতঃ) আক্রমণকারী (অমিত্রস্য) পীড়াপ্রদ শত্রুর (মন্যুম্) ক্রোধকে (বি=বিরুজ) ভঙ্গ করে দাও ॥৩॥

    भावार्थ

    ১−রাজাকে পুরুষার্থী হয়ে শত্রুদের নাশ করে এবং প্রজাদের মধ্যে শান্তি বিস্তার করে আনন্দ ভোগ করা উচিত ॥ ২−সর্বরক্ষক পরমেশ্বরের প্রতাপ দ্বারা মনুষ্য নিজের বাহ্যিক ও অভ্যন্তরীণ শত্রুদের নির্বল করবে/করুক ॥৩॥

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    भाषार्थ

    (রক্ষঃ) রাক্ষস স্বভাবের শত্রু রাজার (বিজহি) হনন করো, (মৃধঃ) তাঁর সংগ্রামকারী সৈনিকদের (বি জহি) হনন করো, (বৃত্রস্য) আমাদের অবরোধকারী, সেনাপতির (হনূ) দুই চোয়াল (রুজ) ভঙ্গ করো। (বৃত্রহন্) আমাদের অবরোধকারীর হননকারী, (অভিদাসতঃ) আমাদের ক্ষতিগ্রস্তকারী (অমিত্রস্য) শত্রুর (মন্যু) ক্রোধকে (ইন্দ্র) হে সম্রাট ! (বি) বিগত করো। অথবা বিরুজঃ; রুজো ভঙ্গে (তুদাদিঃ)

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