अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 21/ मन्त्र 4
ऋषिः - अथर्वा
देवता - इन्द्रः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - शत्रुनिवारण सूक्त
86
अपे॑न्द्र द्विष॒तो मनो॑ ऽप॒ जिज्या॑सतो व॒धम्। वि म॒हच्छर्म॑ यच्छ॒ वरी॑यो यावया व॒धम् ॥
स्वर सहित पद पाठअप॑ । इ॒न्द्र॒ । द्वि॒ष॒त: । मन॑: । अप॑ । जिज्या॑सत: । व॒धम् ।वि । म॒हत् । शर्म॑ । य॒च्छ॒ । वरी॑य: । य॒व॒य॒ । व॒धम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
अपेन्द्र द्विषतो मनो ऽप जिज्यासतो वधम्। वि महच्छर्म यच्छ वरीयो यावया वधम् ॥
स्वर रहित पद पाठअप । इन्द्र । द्विषत: । मन: । अप । जिज्यासत: । वधम् ।वि । महत् । शर्म । यच्छ । वरीय: । यवय । वधम् ॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
राजनीति और शान्तिस्थापन का उपदेश।
पदार्थ
(इन्द्र) हे बड़े ऐश्वर्यवाले राजन् (द्विषतः) वैरी के (मनः) मन को (अप=अपकृत्य) तोड़कर और (जिज्यासतः) [हमारी] आयु की हानि चाहनेहारे शत्रु के (वधम्) प्रहार को (अप=अपकृत्य) छिन्न-भिन्न करके (महत् शर्म) [अपना] विस्तीर्ण शरण (वियच्छ) [हमें] दान कर और (वधम्) [शत्रु के] प्रहार को (वरीयः) बहुत दूर (यावय) फेंक दे ॥४॥
भावार्थ
परमेश्वर के विश्वास से मनुष्य अपने पुरुषार्थ और बुद्धिबल से शत्रु को निरुत्साही करके विजयी होवें ॥४॥
टिप्पणी
टिप्पणी−पिछले आधे मन्त्र के लिये १।२०।३। देखो ॥ इति चतुर्थोऽनुवाकः ॥ ४−अप। अपकृत्य, तिरस्कृत्य। द्विषतः। द्विष अप्रीतौ−शतृ। अप्रीतिकरस्य शत्रोः। मनः। १।१।२। अन्तःकरणं हृदयम् आत्मबलम्। जिज्यासतः। धातोः कर्मणः समानकर्तृकादिच्छायां वा। पा० ३।१।७। इति ज्या वयोहानौ−सन् प्रत्ययः। सन्यङोः। पा० ६।१।९। इति द्विर्वचने हलादिः शेषे ह्रस्वे च कृते। सन्यतः। पा० ७।४।७८। इति अभ्यासाकारस्य इत्वम्। सन्नन्तस्य धातुसंज्ञायां लटः शतृ। वयोहानिमिच्छतः, अस्मान् जेतुमिच्छतः पुरुषस्य। वधम्। १।२०।१। प्रहारम्। अन्यद् व्याख्यातम्। १।२०।३ ॥
विषय
'द्वेष, आयुष्यनाश व वध' से दूर
पदार्थ
१.हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशाली प्रभो! (द्विषत: मनः अप) = द्वेष करनेवाले के मन को हमसे दूर कीजिए, अर्थात् हम अपने मन में किसी के प्रति द्वेष न करें, (जिग्यासत:) = [ज्या बयोहानी] आयुष्य का नाश करनेवाले के (वधम्) = वध को (अप) = हमसे दूर कीजिए। हम किसी के आयुष्यनाश की वृत्तिवाले न हों। २. हे प्रभो! आप हमारे लिए (महत्) = शर्म महनीय सुख को (यच्छ) = प्राप्त कराइए और (वधम्) = वध को (वरीय: यावय) = हमसे बहुत दूर कीजिए। हमारे मन में किसी के वध इत्यादि का विचार ही उत्पन्न न हो। ३. जहाँ राजा का कर्तव्य है कि वह राष्ट्र की अन्त:-बाह्य शत्रुओं से रक्षा करे, वहाँ प्रत्येक प्रजावर्ग का भी यह कर्तव्य है कि वह अपने जीवन में से द्वेष आदि भावना को दूर करके सारा व्यवहार करे।
भावार्थ
हम अपने मनों से द्वेष व दूसरों के आयुष्य-नाश की भावना व बध को दूर करें और इसप्रकार उत्तम नागरिक बनें।
विशेष
विशेष-सूक्त के आरम्भ में कहा है कि उत्तम व्यवस्था से राजा राष्ट्र में अभय का सञ्चार करे [१]। लोगों के हृदय भी द्वेष व वध आदि की भावनाओं से रहित हों[४]। यह द्वेष से शून्य होना हमें हृदय की जलन व पीलापन आदि रोगों से बचाएगा। इन रोगों के दूरीकरण के लिए सूर्यकिरणों का भी अत्यधिक महत्त्व है।
भाषार्थ
(इन्द्र) हे सम्राट् ! (द्विषतः) द्वेष करनेवाले के (मनः) मन अर्थात विचार को (अप) अपगत कर, (जिज्यासतः) हमारी वयोहानि चाहनेवाले के (वधम्) वधकारी आयुध को या मन के विचार का (अप ) अपगत कर दे। (महत् शर्म वि यच्छ) और महासुख विशेषरूप में हमें प्रदान कर। (वरीयः) उरुत्तर (वधम्) वघ को (यावय) हमसे पृथक् कर।
टिप्पणी
[मन्त्र में वधम् के दो अर्थ प्रतीत होते हैं, वध अर्थात् हनन तथा बध का साधन आयुध। शर्म सुखनाम (निघं० ३।६ ) तथा गृहनाम (निघ० ३।४), गृह का अभिप्राय है आश्रय।]
विषय
राजा के कर्तव्य ।
भावार्थ
हे इन्द्र ! राजन् ! ( द्विषतः ) द्वेष करने हारे, हमसे प्रेम से व्यवहार न करने वाले ( जिज्यासतः ) हमारी सदा हानि चाहने वाले शत्रु के ( मनः ) मनको या उसके सोचे हुए, गुप्त मन्त्रणारूप षड्यन्त्र को (अप) दूर कर, विफल या नष्ट कर और (वधम्) विनाशक हथियार या आक्रमण को भी (अप) परे हटा । ( महत् शर्म यच्छ ) हमें बड़ा भारी रक्षास्थान प्रदान कर और ( वरीयः ) शत्रु के भारी (वधं) आघात को ( यवय ) दूर कर। राजा विघातक शत्रु के गुप्त षड्यन्त्रों और आक्रमणों का विनाश करे और प्रजा की दुर्गरचना से रक्षा करे। इति चतुर्थोऽनुवाकः॥
टिप्पणी
( तृ० ) ‘विमन्योः शर्म’ इति ऋ०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। ऋग्वेदे शासो भारद्वाज ऋषिः। इन्द्रो देवता। अनुष्टुप् छन्दः। चतुर्ऋचं सूक्तम्।
इंग्लिश (4)
Subject
People’s Ruler
Meaning
Indra, overcome the plan and mind of the jealous. Throw out the deadly weapon of the violator of life. Give us peace, freedom and felicity of high order and great possibilities. Eliminate the deadly weapon and strike of even the highest calibre of the enemy.
Translation
May you frustrate the purpose of him.who hates us, deprive him of his’ weapon who seeks to overpower us, grant us full security against his fury and wrath, and ward off his weapon. (Also Rg. X.152.5)
Translation
O ruler; extir-pate the mind-the evil designs of our enemies and the men who are engaged in hunting own lives, drive away then deadly weapons from us ; bless us with great happiness and keep away from us the dreadful slaughter.
Translation
O King, turn thou the foeman’s thought away, drive away his dart who fain would conquer us. Grant us thy great protection; keep his deadly weapon far away. (94)
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
टिप्पणी−पिछले आधे मन्त्र के लिये १।२०।३। देखो ॥ इति चतुर्थोऽनुवाकः ॥ ४−अप। अपकृत्य, तिरस्कृत्य। द्विषतः। द्विष अप्रीतौ−शतृ। अप्रीतिकरस्य शत्रोः। मनः। १।१।२। अन्तःकरणं हृदयम् आत्मबलम्। जिज्यासतः। धातोः कर्मणः समानकर्तृकादिच्छायां वा। पा० ३।१।७। इति ज्या वयोहानौ−सन् प्रत्ययः। सन्यङोः। पा० ६।१।९। इति द्विर्वचने हलादिः शेषे ह्रस्वे च कृते। सन्यतः। पा० ७।४।७८। इति अभ्यासाकारस्य इत्वम्। सन्नन्तस्य धातुसंज्ञायां लटः शतृ। वयोहानिमिच्छतः, अस्मान् जेतुमिच्छतः पुरुषस्य। वधम्। १।२०।१। प्रहारम्। अन्यद् व्याख्यातम्। १।२०।३ ॥
बंगाली (3)
पदार्थ
(ইন্দ্র) ঐশ্বর্যবান রাজন! (দ্বিসতঃ) বৈরীর মনকে (অপ) ভঙ্গ করিয়া (জিজ্যাসতঃ) আমাদের আয়ু হ্রাসেচ্ছু শত্রুর (বধম্) আঘাতকে (অপ) ছিন্ন ভিন্ন করিয়া (মহৎ) শ্রেষ্ঠ (শর্ম) আশ্রয় (বিয়চ্ছ) দান কর (বধম্) শত্রুর আঘাতকে (বরীয়ঃ) বহু দূরে (য়াবয়) নিক্ষেপ কর।।
भावार्थ
হে ঐশ্বর্যবান রাজন! আমাদের শত্রুদের সংকল্পকে ভঙ্গ করিয়া এবং আমাদের আয়ু হ্রাসেচ্ছু বৈরীদের আঘাতকে ছিন্ন ভিন্ন করিয়া তোমার অভয় আশ্রয়কে দান কর। শত্রুর আঘাতকে বহু দূরে নিক্ষেপ কর।।
मन्त्र (बांग्ला)
অপেন্দ্র দ্বিষতো মনোঽপ জিজ্যাসতো বধম্ । বি মহচ্ছম য়চ্ছ বরীয়ো য়াবয়া বধম্।।
ऋषि | देवता | छन्द
অর্থবা। ইন্দ্ৰঃ। অনুষ্টুপ্
मन्त्र विषय
(রাজনীতিস্বস্তিস্থাপনোপদেশঃ) রাজনীতি এবং শান্তিস্থাপনের উপদেশ
भाषार्थ
(ইন্দ্র) হে বৃহৎ ঐশ্বর্যবান রাজন ! (দ্বিষতঃ) শত্রুর/বিদ্বেষীর (মনঃ) মনকে (অপ=অপকৃত্য) বিধ্বস্ত করে এবং (জিজ্যাসতঃ) [আমাদের] আয়ুর হানি কামনাকারী শত্রুর (বধম্) প্রহারকে (অপ=অপকৃত্য) ছিন্ন-ভিন্ন করে (মহৎ শর্ম) [নিজের] বিস্তীর্ণ শরণ (বিয়চ্ছ) [আমাদের] দান করো এবং (বধম্) [শত্রুর] প্রহারকে (বরীয়ঃ) বহুভাবে দূরে (যাবয়) নিক্ষিপ্ত করে দাও ॥৪॥
भावार्थ
পরমেশ্বরের প্রতি বিশ্বাস দ্বারা মনুষ্য নিজের পুরুষার্থ এবং বুদ্ধিবল দ্বারা শত্রুকে নিরুৎসাহী করে বিজয়ী হবে/হোক ॥৪॥ টিপ্পণী−পরবর্তী অর্ধেক মন্ত্রের জন্য ১।২০।৩। দেখুন॥
भाषार्थ
(ইন্দ্র) হে সম্রাট ! (দ্বিষতঃ) হিংসকদের/বিদ্বেষীদের (মনঃ) মন অর্থাৎ বিচারকে (অপ) বিনষ্ট/দূর/অপগত করো, (জিজ্যাসতঃ) আমাদের ক্ষতি কামনাকারীদের (বধম্) বধকারী অস্ত্র বা মনের বিচারের (অপ) বিনষ্ট করো। (মহৎ শর্ম বি যচ্ছ) এবং মহাসুখ বিশেষরূপে আমাদের প্রদান করো। (বরীয়ঃ) উরুতর/বিস্তৃত (বধম্) বধকে (যাবয়) আমাদের থেকে পৃথক করো।
टिप्पणी
[মন্ত্রে বধম্-এর দুটি অর্থ প্রতীত হয়, বধ অর্থাৎ হনন তথা বধের সাধন অস্ত্র। শর্ম সুখনাম (নিঘং০ ৩।৬), তথা গৃহনাম (নিঘং০ ৩।৪), গৃহের অভিপ্রায় হলো আশ্রয়।]
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