अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 29/ मन्त्र 2
ऋषिः - वसिष्ठः
देवता - अभीवर्तमणिः, ब्रह्मणस्पतिः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - राष्ट्र अभिवर्धन सूक्त
132
अ॑भि॒वृत्य॑ स॒पत्ना॑न॒भि या नो॒ अरा॑तयः। अ॒भि पृ॑त॒न्यन्तं॑ तिष्ठा॒भि यो नो॑ दुर॒स्यति॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒भि॒ऽवृत्य॑ । स॒ऽपत्ना॑न् । अ॒भि । या: । न॒: । अरा॑तय: ।अ॒भि । पृ॒त॒न्यन्त॑म् । ति॒ष्ठ॒ । अ॒भि । य: । न॒: । दु॒र॒स्यति॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अभिवृत्य सपत्नानभि या नो अरातयः। अभि पृतन्यन्तं तिष्ठाभि यो नो दुरस्यति ॥
स्वर रहित पद पाठअभिऽवृत्य । सऽपत्नान् । अभि । या: । न: । अरातय: ।अभि । पृतन्यन्तम् । तिष्ठ । अभि । य: । न: । दुरस्यति ॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
राजतिलकयज्ञ के लिये उपदेश।
पदार्थ
[हे ब्रह्मणस्पते] (सपत्नान्) [हमारे] प्रतिपक्षियों को और (याः) जो (नः) हमारी (अरातयः) कर न देनेहारी प्रजाएँ हैं, [उनको] (अभि) सर्वथा (अभिवृत्य) जीतकर (पृतन्यन्तम्) सेना चढ़ा कर लानेवाले शत्रु को [और उस पुरुष को] (यः) जो (नः) हमसे (दुरस्यति) दुष्ट आचरण करे, (अभि) सर्वथा (अभि तिष्ठ) तू दबा ले ॥२॥
भावार्थ
राजा परमेश्वर पर श्रद्धा करके अपने स्वदेशी और विदेशी दोनों प्रकार के शत्रुओं को यथायोग्य दण्ड देकर वश में रक्खें ॥२॥
टिप्पणी
टिप्पणी−(अरातयः) शब्द का अर्थ ऋ० १०।१७४।२। में सायणाचार्य ने भी अदानशील प्रजा किया है ॥२−अभि-वृत्य। अभि+वृतु−ल्यप्। अभिभूय, पराजित्य। सपत्नान्। १।९।१। प्रतियोगिनः स्वदेशिनः शत्रून्। अभि। अभितः। सर्वथा। याः। ताः याः। अरातयः। १।२।२। अदानशीलाः प्रजाः। इति सायणोऽपि ऋ० १०।१७४।२। अभि+तिष्ठ। अभिभव, पराजय, त्वं ब्रह्मणस्पते। पृतन्यन्तम्। १।३१।२। सुप आत्मनः क्यच्। पा० ३।१।८। इति पृतना क्यच्−शतृ। पृतनाः सेना आत्मानमिच्छन्तं युयुत्सुम्। यः=तम् यः। नः। अस्मान्। दुरस्यति। दुरस्युर्द्रविणस्युर्वृषण्यति रिषण्यति। पा० ७।४।३६। इति क्यचि दुष्टशब्दस्य दुरस् भावो निपात्यते। दुष्टीयति दुष्टम्। अनिष्टं कर्तुमिच्छति ॥
विषय
की आन्तर व बाह्य शत्रुओं का पराभव
पदार्थ
१. शरीर में सुरक्षित होने पर यह सोम रोग-कृमियों को नष्ट करता है। ये रोग-कृमि इस शरीर के पति बनने की कामना करते हैं, अत: ये हमारे 'सपत्न' कहलाते हैं। इन (सपत्नान्) = हमारे शत्रुभूत रोग-कृमियों को (अभिवृत्य) = आक्रमण के द्वारा पराभूत करके और (या:) = जो (न:) = हमारे प्रति (दुरस्यति) = अशुभ आचरण करता है, उसे भी (अभि) = [वृत्य]-दूर करके (पृतन्यन्तम्) = जो परस्पर सेना से आक्रमण करता है, उसका भी (अभितिष्ठ) = मुकाबला कर-बाह्य शत्रुओं को रोकने के लिए भी हमें शक्तिशाली बना। (य:) = जो (न:) = हमारे प्रति (दुरस्यति) = अशुभ आचरण करता है, उसे भी (अभि) = [वृत्य]-तू दूर करनेवाला हो। २. यह सोम शरीर में होनेवाले रोगों तथा मन में होनेवाली कृपणता आदि वृत्तियों का अभिवर्तन [पराभव करके दूर] करता है, इससे भी इसका नाम 'अभीवर्तमणि' हो गया है। यह 'अभीवर्तमणि' शरीर के रोगों व मन के दोषों को दूर करती है। इसके साथ यह हमें वह तेजस्विता भी प्राप्त कराती है, जिससे कि हम आक्रमण करनेवालों व अशुभ व्यवहार करनेवालों का पराजय कर पाते हैं।
भावार्थ
यह 'अभीवर्तमणि' हमारे आन्तर व बाह्य शत्रुओं का पराभव करती है।
भाषार्थ
[हे अभीवर्त सेनाधिपति !] (सपत्नान्) मुझ राजा की, सपत्नी के समान वर्तमान परस्पर विद्रोही प्रजाजनों को ( अभिवृत्य) घेरकर, ( या: नो अरातयः) जो राज्य-कर नहीं देते अतः हमारे शत्रु हैं उन्हें (अभि, वृत्य) घेरकर, (यः नो दुरस्यति) जो हमारे साथ दुष्टकर्म [ युद्ध ] करना चाहता है (अभि, वृत्य) उसे भी घेरकर, तथा (पृतन्यन्तम्) सेना का संग्रह करना चाहते हुए को (अभि, वृत्य) घेरकर (तिष्ठ) उस-उसका तू अधिष्ठाता हो जा। उन्हें निजपादाधीन कर।
टिप्पणी
[अभिवृत्य= अभि + वृञ् आवरणे। पृतन्यन्तम् = पृतनां सेनाम् आत्मनः इच्छन्तम्, पृतना+ क्यच्। कव्यध्वरपृतनस्यर्चि लोपः (अष्टा० ७।४।३९) इत्याकारलोपः। दुरस्यति= दुष्टं कर्म कर्तुमिच्छति, दुष्टशब्दस्य दुरस् भावः (अष्टा० ७।४।३६) । सपत्नान् = एक ही राजा के राज्य में वर्तमान परस्पर विद्रोही प्रजाजन।]
विषय
युद्ध सम्बन्धी अभीवर्त शक्ति का वर्णन।
भावार्थ
हे ब्रह्मणस्पते ! तू अभीवर्त मणिद्वारा ( सपत्नान् ) हमारी इष्ट सम्पत्ति के स्वामी हो जाने का दावा करने वाले शत्रुओं कों ( अभिवृत्य ) चारों तरफ से घेरकर, तथा ( नः ) हमारे ( याः अरातयः ) जो कर देने से इन्कार करने वाले अधीनस्थ राष्ट्र हैं उनको भी अभीवर्तमणि द्वारा घेरकर उन्हें वश करके, तदुपरान्त ( पृतन्यन्तम् ) सेनाओं द्वारा चढ़ाई करने वाले शत्रु राजा कों (अभि तिष्ठ) तू दबा दे, और ( यः ) जो ( नः ) हमें ( दुरस्पति ) दुःखकारी दशा में डालना चाहता है उस क्रूर नीच पुरुष को भी ( अभि तिष्ठ ) तू दबा दे, कुचल दे । अथात् शत्रुओं को घेरने, अधीन राष्ट्रों को वश करने, सेना द्वारा चढ़ाई करने, शत्रुओं का मुकाबला करने और क्रूरों का विनाश करने की शक्ति को ही ‘अभीवर्त्त’ मणि कहा गया है ।
टिप्पणी
‘या नो इरस्यति इति’ ऋ०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः। अभीवर्त्तमणिमुद्दिश्य ब्रह्मणस्पतिर्देवता। चन्द्रमसं राजानमभिलक्ष्य ह्वह्मणस्पतेः स्तुतिः। अनुष्टुप् छन्दः। षडृचं सूक्तम् ॥
इंग्लिश (4)
Subject
Rise of the Rashtra
Meaning
O Brahmanaspati, ruler and commander of the human nation, having surrounded and cornered the adversaries, selfish exploiters, whoever want to wage war against us, or who hate, envy and want to damage us, break down their force and power, subdue them and rule over them as part of the nation.
Translation
Conquering our rivals, conquering those enemies who do not pay our dues, and conquering those who invade us, may you defeat him who reviles us.
Translation
O Brahmanaspati, the Sun increases your strength, the moon also exalt your vigour, all other physical forces of the universe increase your power, so that you be victorious over your weaknesses.
Translation
O King, subduing those who rival us, subduing all who refuse to. pay taxes, withstand the man who menaces, and him who seeks to injure us!
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
टिप्पणी−(अरातयः) शब्द का अर्थ ऋ० १०।१७४।२। में सायणाचार्य ने भी अदानशील प्रजा किया है ॥२−अभि-वृत्य। अभि+वृतु−ल्यप्। अभिभूय, पराजित्य। सपत्नान्। १।९।१। प्रतियोगिनः स्वदेशिनः शत्रून्। अभि। अभितः। सर्वथा। याः। ताः याः। अरातयः। १।२।२। अदानशीलाः प्रजाः। इति सायणोऽपि ऋ० १०।१७४।२। अभि+तिष्ठ। अभिभव, पराजय, त्वं ब्रह्मणस्पते। पृतन्यन्तम्। १।३१।२। सुप आत्मनः क्यच्। पा० ३।१।८। इति पृतना क्यच्−शतृ। पृतनाः सेना आत्मानमिच्छन्तं युयुत्सुम्। यः=तम् यः। नः। अस्मान्। दुरस्यति। दुरस्युर्द्रविणस्युर्वृषण्यति रिषण्यति। पा० ७।४।३६। इति क्यचि दुष्टशब्दस्य दुरस् भावो निपात्यते। दुष्टीयति दुष्टम्। अनिष्टं कर्तुमिच्छति ॥
बंगाली (3)
पदार्थ
(সপত্নান্) আমার প্রতিপক্ষ শত্রুগণকে এবং (য়া) যে (নঃ) আমাদের (আরাতয়ঃ) কর দেয় না এরূপ প্রজা তাহাদিগকে (অভি) সর্বদা (অভিবৃত্য) জয় করিয়া (পৃতন্যন্তম্) সসৈন্যে আক্রমণকারী শত্রুকে (য়ঃ) যে (নঃ) আমাদের প্রতি (দুরস্যতি) দুষ্ট আচরণ করে (অভি) সর্বদা (অভিতিষ্ঠ) তুমি দমন কর।।
भावार्थ
হে বেদের রক্ষক পরমাত্মন! যাহারা আমাদের প্রতিপক্ষ শত্রু, যে সব প্রজা আমাদিগকে কর দান করে না, যে সব শত্রু সসৈন্যে আক্রমণ করে, যাহারা আমাদের প্রতি দুষ্ট আচরণ করে তুমি তাহাদিগকে সর্বদা দমন কর।।
मन्त्र (बांग्ला)
অভিবৃত্য সপত্ন্যানভি য়া নো অরাতয়ঃ । অভিপৃতন্যং তিষ্ঠাভি য়ো নোদুরস্যতি।।
ऋषि | देवता | छन्द
বসিষ্ঠঃ। ব্রহ্মণল্পতিঃ, অভীবর্তমণিঃ। অনুষ্টুপ্
मन्त्र विषय
(রাজসূয়যজ্ঞোপদেশঃ) রাজতিলক যজ্ঞের জন্য উপদেশ।
भाषार्थ
[হে ব্রহ্মণস্পতে !] (সপত্নান্) [আমাদের] প্রতিপক্ষকে এবং (যাঃ) যারা (নঃ) আমাদের (অরাতয়ঃ) কর প্রদান করে না এমন/অদানশীল প্রজাগণ রয়েছে, [তাদেরকে] (অভি) সর্বথা (অভিবৃত্য) জয় করে (প্রতন্যন্তম্) সেনা আরোহন করে আগত শত্রুকে [এবং সেই পুরুষকে] (যঃ) যে (নঃ) আমাদের সাথে (দুরস্যতি) দুষ্ট আচরণ করবে/করে, (অভি) সর্বথা (অভি তিষ্ঠ) তুমি দমন করো ॥২॥
भावार्थ
রাজা পরমেশ্বরের প্রতি শ্রদ্ধা করে নিজের স্বদেশী এবং বিদেশী উভয় প্রকারের শত্রুদেরকে যথাযোগ্য দণ্ড দিয়ে বশে রাখবেন॥২॥ টিপ্পণী−(অরাতয়ঃ) শব্দের অর্থ ঋ০ ১০।১৭৪।২। মন্ত্রে সায়ণাচার্যও অদানশীল প্রজা করেছেন ॥
भाषार्थ
[হে অভীবর্ত সেনাধিপতি !] (সপত্নান্) আমার রাজার, সপত্নীর সমান বর্তমান পরস্পর বিদ্রোহী প্রজাদের (অভিবৃত্য) ঘিরে, (যাঃ নো অরাতয়ঃ) যে রাজ্য-কর দেয় না অতএব আমাদের শত্রু তাঁদের (অভি, বৃত্য) ঘিরে, (যঃ নো দুরস্যতি) যারা আমাদের সাথে দুষ্টকর্ম [যুদ্ধ] করতে চায় (অভি, বৃত্য) তাঁকেও ঘিরে, এবং (পৃতন্যন্তম্) সেনাদের সংগ্রহের কামনাকারীদের (অভি, বৃত্য) ঘিরে (তিষ্ঠ) তাঁর-তাঁর তুমি অধিষ্ঠাতা হয়ে যাও। তাঁদের নিজপাদাধীন করো।
टिप्पणी
[অভিবৃত্য =অভি + বৃত্র্ আবরণে। পৃতন্যন্তম্ = পৃতনাং সেনাম্ আত্মনঃ ইচ্ছন্তম্, পৃতনা+ক্যচ্। কব্যধ্বরপৃতনস্যর্চি লোপঃ (অষ্টা০ ৭।৪।৩৯) ইত্যাকারলোপঃ। দুরস্যতি = দুষ্টং কর্ম কর্তুমিচ্ছতি, দুষ্টশব্দস্য দুরস্ ভাবঃ (অষ্টা০ ৭।৪।৩৬)। সপত্নান্= একটাই রাজার রাজ্যে বর্তমান পরস্পর বিরোধী প্রজা।]
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