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अथर्ववेद के काण्ड - 1 के सूक्त 29 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 29/ मन्त्र 4
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - अभीवर्तमणिः, ब्रह्मणस्पतिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - राष्ट्र अभिवर्धन सूक्त
    93

    अ॑भीव॒र्तो अ॑भिभ॒वः स॑पत्न॒क्षय॑णो म॒णिः। रा॒ष्ट्राय॒ मह्यं॑ बध्यतां स॒पत्ने॑भ्यः परा॒भुवे॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒भि॒ऽव॒र्त: । अ॒भि॒ऽभ॒व: । स॒प॒त्न॒ऽक्षय॑ण: । म॒णि: । रा॒ष्ट्रा॒य॑ । मह्य॑म् । ब॒ध्य॒ता॒म् । स॒ऽपत्ने॑भ्य: । प॒रा॒ऽभुवे॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अभीवर्तो अभिभवः सपत्नक्षयणो मणिः। राष्ट्राय मह्यं बध्यतां सपत्नेभ्यः पराभुवे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अभिऽवर्त: । अभिऽभव: । सपत्नऽक्षयण: । मणि: । राष्ट्राय । मह्यम् । बध्यताम् । सऽपत्नेभ्य: । पराऽभुवे ॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 1; सूक्त » 29; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    राजतिलकयज्ञ के लिये उपदेश।

    पदार्थ

    (अभिवर्तः) शत्रुओं का जीतनेवाला और (अभिभवः) हरानेवाला और (सपत्नक्षयणः) प्रतिपक्षियों का नाश करनेवाला (मणिः) मणि [प्रशंसनीय सामर्थ्य] रत्न आदि राज्य चिह्न (मह्यम्) मुझपर (राष्ट्राय) राज्य की वृद्धि के लिये और (सपत्नेभ्यः) वैरियों को (पराभुवे) दबाने के लिये (बध्यताम्) बाँधा जावे ॥४॥

    भावार्थ

    राज्यलक्ष्मी का प्रभाव जताने के लिये राजा मणि रत्न आदि को धारण करके अपना सामर्थ्य बढ़ावे और राजसभा में राजसिंहासन पर विराजे कि जिससे शत्रुदल भयभीत होकर आज्ञाकारी बने रहें और राज्य में ऐश्वर्य की सदा वृद्धि होवे ॥४॥

    टिप्पणी

    ४−अभिवर्तः। म० १। जयशीलः। अभिभवः। अभि+भू−अप् अभिभविता। सपत्न−क्षयणः। नन्दिग्रहिपचादिभ्यो ल्युणिन्यचः। पा० ३।१।१३४। इति सपत्नपूर्वात् क्षि क्षये−कर्तरि ल्यु। शत्रूणां क्षयकरः। मणिः। म० १। रत्नम्। प्रशस्तं सामर्थ्यम्। राष्ट्राय। म० १। राज्यवर्धनाय। मह्यम्। मदर्थम्। बध्यताम्। बन्ध बन्धने, कर्मणि लोट्। धार्यताम्। सपत्नेभ्यः। शत्रुभ्यः। पराभुवे। परा+भू−भावे क्विप्। पराभवनाय ॥

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    विषय

    सपत्नक्षयण मणि

    पदार्थ

    १. यह (मणिः) = सोमकणरूप मणि (अभीवर्त:) = शरीर में रोगों व मन की आवञ्छनीय वृत्तियों का अभिवर्त करनेवाली होती है-उनपर आक्रमण करके उन्हें दूर भगा देती है। (अभिभव:) = यह बाह्य शत्रुओं और अशुभ व्यवहार करनेवालों को भी अभिभूत करती है। (सपत्नक्षयण:) = शरीर के पति बनने की कामनावाले हमारे सपत्नभूत रोगकृमिरूप शत्रुओं को यह नष्ट करती है। २. यह मणि (मह्यम्) = मेरे लिए तथा (राष्ट्राय) = राष्ट्र के लिए राष्ट्र की उन्नति के लिए (बाध्यताम्) = शरीर में ही बद्ध की जाए। शरीर में ही सुरक्षितरूप से स्थापित हो। रोगों के दूर होने पर ही मेरे जीवन की उन्नति सम्भव होती है। [मशकेभ्यः धूमः मच्छरों के निवारण के लिए धुंआ है]। इसका स्थापन इसलिए भी आवश्यक है कि इससे शक्तिसम्पन्न बनकर ही युवक (पराभुवे) = शत्रुओं का पराभव करने में समर्थ होंगे और शत्रुओं के पराभूत होने पर ही राष्ट्रोन्नति सम्भव होती है।

    भावार्थ

    यह अभीवर्तमणि रोगकृमिरूप सपत्नों को समाप्त करके वैयक्तिक उन्नति का साधन बनती है और युवकों को राष्ट्र के शत्रुओं के पराभव के लिए शक्तिसम्पन्न बनाकर राष्ट्रोन्नति का कारण होती है।

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    भाषार्थ

    (अभीवर्तः) शत्रु की ओर प्रवृत्त हुआ, (सपत्नक्षयण:) शत्रु का क्षय करनेवाला, (मणिः) सेनाधिपति रूप पुरुष रत्न ( अभिभवः) शत्रु का पराभव करता है । (राष्ट्राय) राष्ट्रोन्नति करने के लिये, (सपत्नेभ्यः पराभूवे) तथा शत्रुओं के पराभव के लिये, ( मह्यम् ) मेरे साथ (बध्यताम् ) दृढ़ बन्धन में वह बद्ध हो जाय।

    टिप्पणी

    [मन्त्र में राष्ट्रपति अपने साथ सेनाधिपति के दृढ़ बन्धन की अभिलाषा करता है।]

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    विषय

    युद्ध सम्बन्धी अभीवर्त शक्ति का वर्णन।

    भावार्थ

    ( अभिवर्तः मणिः ) आक्रमण आदि की शक्ति (सपत्नक्षयणः ) शत्रुओं का नाशकारी और ( अभिभवः ) उनका पराजय करने वाली है। उसको (मह्यम्) मुझ राजा के ( राष्ट्राय ) राष्ट्र की उन्नति के लिये ( बध्यतां ) हे ब्राह्मणस्पति ! उत्तम रूप से व्यवस्था द्वारा दृढ़ कर, सुबद्ध कर । जिससे ( सपत्नेभ्यः ) शत्रुओं का (पराभुवे) पराजय हो।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषिः। अभीवर्त्तमणिमुद्दिश्य ब्रह्मणस्पतिर्देवता। चन्द्रमसं राजानमभिलक्ष्य ह्वह्मणस्पतेः स्तुतिः। अनुष्टुप् छन्दः। षडृचं सूक्तम् ॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Rise of the Rashtra

    Meaning

    This spirit of the exalted nation and this crystal character of the people is the jewel wealth of the republic, superior to all individual constituents, subduer of jealousies and saboteurs and destroyer of the negative forces of adversaries. O Brahmanaspati, visionary high priest of the nation’s law, let it be vested in me as the ruling sceptre for the common wealth’s progress and for subduing of the adversaries.

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    Translation

    All-conquering, all-subduing, and the destroyer of rivals, let this muscle (of mine) be injected with the fluid from and ampoule. These vaccines are in our nations interest. They are the cures against epidemic disasters.

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    Translation

    The sound of Brahma Saman and its application in yajna the destroyer of evil tendencies and a victory over evil designs. Be bound on me for regal sway and defeat of our foes.

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    Translation

    Slayer of rivals, vanquisher, may that victorious kingly sway, he assumed by me for the protection of my kingdom and conquest of mine enemies.

    Footnote

    Me, my, mine all refer to the king

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ४−अभिवर्तः। म० १। जयशीलः। अभिभवः। अभि+भू−अप् अभिभविता। सपत्न−क्षयणः। नन्दिग्रहिपचादिभ्यो ल्युणिन्यचः। पा० ३।१।१३४। इति सपत्नपूर्वात् क्षि क्षये−कर्तरि ल्यु। शत्रूणां क्षयकरः। मणिः। म० १। रत्नम्। प्रशस्तं सामर्थ्यम्। राष्ट्राय। म० १। राज्यवर्धनाय। मह्यम्। मदर्थम्। बध्यताम्। बन्ध बन्धने, कर्मणि लोट्। धार्यताम्। सपत्नेभ्यः। शत्रुभ्यः। पराभुवे। परा+भू−भावे क्विप्। पराभवनाय ॥

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    बंगाली (3)

    पदार्थ

    (অভিবর্তাঃ) শত্রুজয়ী (অভি ভবঃ) শত্রু শাসক, (সপত্র ক্ষয়ণঃ) প্রতি পক্ষের বিনাশকর্তা (মণিঃ) প্রশংসনীয় সামর্থ (মহ্যম্) আমাকে (রাষ্ট্রায়) রাষ্ট্রের জন্য এবং (সপত্নেভ্যঃ) শত্রুদের (পরাভূবে) জয় করিবার জন্য (বধাতাম্) বন্ধন করি।।

    भावार्थ

    শত্রুজয়ী, শত্রুশাসক এবং প্রতিপক্ষের বিনাশক সামর্থ আমাকে রাষ্ট্রের উন্নতির জন্য এবং শত্রুদের পরাজয়ের জন্য সঞ্চয় করি।।

    मन्त्र (बांग्ला)

    অভীবর্তো অভিভবঃ সপত্ন ক্ষয়ণো মণিঃ। রাষ্ট্রায় মাহ্যং বধ্যতাং সপত্নেভ্যঃ পরাভুবে।।

    ऋषि | देवता | छन्द

    বসিষ্ঠঃ। ব্রহ্মণস্পতিঃ, অভীবর্তমণিঃ। অনুষ্টুপ্

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    मन्त्र विषय

    (রাজসূয়যজ্ঞোপদেশঃ) রাজতিলক যজ্ঞের জন্য উপদেশ।

    भाषार्थ

    (অভিবর্তঃ) শত্রুদের জয়কারী এবং (অভিভবঃ) পরাজিতকারী এবং (সপত্নক্ষয়ণঃ) প্রতিপক্ষদের বিনাশকারী (মণিঃ) মণি [প্রশংসনীয় সামর্থ্য] রত্ন আদি রাজ্য চিহ্ন (মহ্যম্) আমাতে (রাষ্ট্রায়) রাজ্যের বৃদ্ধির জন্য এবং (সপত্নেভ্যঃ) শত্রুদের (পরাভুবে) পরাভূত/পরাজিত করার জন্য (বধ্যতাম্) বন্ধন করা হবে/হোক ॥৪॥

    भावार्थ

    রাজ্যলক্ষ্মীর প্রভাব বিস্তারের জন্য রাজামণি রত্ন আদিকে ধারণ করে নিজের সামর্থ্য বৃদ্ধি করবেন/করুক এবং রাজসভায় রাজসিংহাসনে বিরাজ করবেন/করুক, যাতে শত্রুদল ভয়ভীত হয়ে আজ্ঞাকারী হয়ে থাকে এবং রাজ্যে ঐশ্বর্যের সদা বৃদ্ধি হয় ॥৪॥

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    भाषार्थ

    (অভীবর্তঃ) শত্রুর দিকে প্রবৃত্ত হওয়া, (সপত্নক্ষয়ণঃ) শত্রুর ক্ষয়কারী (মণিঃ) সেনাধিপতি রূপ পুরুষ রত্ন (অভিভবঃ) শত্রুর তিরস্কার করে। (রাষ্ট্রায়) রাষ্ট্রোন্নতি করার জন্য, (সপত্নেভ্যঃ পরাভুবে) এবং শত্রুদের পরাজিত করার জন্য, (মহ্যম্) আমার সাথে (বধ্যতাম্) দৃঢ় বন্ধনে সে বদ্ধ হোক/হয়ে যাক।

    टिप्पणी

    [মন্ত্রে রাষ্ট্রপতি নিজের সাথে সেনাধিপতির দৃঢ় বন্ধনের অভিলাষা করে।]

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