अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 9/ मन्त्र 16
ऋषिः - काङ्कायनः
देवता - अर्बुदिः
छन्दः - त्र्यवसाना पञ्चपदा विराडुपरिष्टाज्ज्योतिस्त्रिष्टुप्
सूक्तम् - शत्रुनिवारण सूक्त
64
ख॒डूरे॑ऽधिचङ्क्र॒मां खर्वि॑कां खर्ववा॒सिनी॑म्। य उ॑दा॒रा अ॒न्तर्हि॑ता गन्धर्वाप्स॒रस॑श्च॒ ये स॒र्पा इ॑तरज॒ना रक्षां॑सि ॥
स्वर सहित पद पाठख॒डूरे॑ । अ॒धि॒ऽच॒ङ्क॒माम् । खर्वि॑काम् । ख॒र्व॒ऽवा॒सिनी॑म् । ये । उ॒त्ऽआ॒रा: । अ॒न्त:ऽहि॑ता: । ग॒न्ध॒र्व॒ऽअ॒प्स॒रस॑: । च॒ । ये । स॒र्पा: । इ॒त॒र॒ऽज॒ना: । रक्षां॑सि ॥११.१६॥
स्वर रहित मन्त्र
खडूरेऽधिचङ्क्रमां खर्विकां खर्ववासिनीम्। य उदारा अन्तर्हिता गन्धर्वाप्सरसश्च ये सर्पा इतरजना रक्षांसि ॥
स्वर रहित पद पाठखडूरे । अधिऽचङ्कमाम् । खर्विकाम् । खर्वऽवासिनीम् । ये । उत्ऽआरा: । अन्त:ऽहिता: । गन्धर्वऽअप्सरस: । च । ये । सर्पा: । इतरऽजना: । रक्षांसि ॥११.१६॥
भाष्य भाग
हिन्दी (5)
विषय
राजा और प्रजा के कर्त्तव्य का उपदेश।
पदार्थ
(खडूरे) खङ्ग [तरवार] पर (अधिचङ्क्रमाम्) निधड़क चढ़ जानेवाली, (खर्विकाम्) अभिमानिनी, (खर्ववासिनीम्) खर्वों [बहुत गिनती मनुष्यों] में रहनेवाली [सेना] को और (ये) जो (उदाराः) उदार [दानशील] (च) और (ये) जो (अन्तर्हिताः) अन्तःकरण से हितकारी (गन्धर्वाप्सरसः) गन्धर्व [पृथिवी के धारण करनेवाले] और अप्सर [प्रजाओं वा आकाश में चलनेवाले विवेकी लोग हैं, उनको, दिखा-म० १५] और [जो] (सर्पाः) सर्प [के समान हिंसक], (इतरजनाः) पामरजन (रक्षांसि) राक्षस हैं [उनको, कँपा दे-म० १८] ॥१६॥
भावार्थ
इस मन्त्र में (दर्शय) [दिखा] मन्त्र १५ से और (उत् वेपय) (कँपा दे) क्रिया पद-मन्त्र १८ से लाया गया है। राजा अपनी सुनीति से सुशिक्षित वीर सेना और हितैषी, भूमिविद्या और आकाशविद्या जाननेवाले विज्ञानियों द्वारा दुष्टों को दण्ड देवे, जिससे शत्रु लोग पृथिवी वा आकाशमार्ग से कष्ट न दे सकें ॥१६॥
टिप्पणी
१६−(खडूरे) मीनातेरूरन् उ० १।६७। खड भेदने-ऊरन्। खङ्गे। तरवारौ (अधिचङ्क्रमाम्) क्रमु पादविक्षेपे, यङ्लुकि नुक्-पचाद्यच्। यङोऽचि च। पा० २।४।७३। यङो लुक्। भृशमधिक्रमणशीलाम् (खर्विकाम्) खर्व दर्पे-ण्वुल्। अभिमानिनीम् (खर्ववासिनीम्) खर्वेषु संख्याविशेषेषु निवसन्तीं सेनाम् (ये) (उदाराः) दानशीलाः (अन्तर्हिताः) अन्तःकरणेन हितकारिणः (गन्धर्वाप्सरसः) अ० ११।६।४। गां पृथिवीं धरन्ति ये ते गन्धर्वाः। अप्सु प्रजासु आकाशे वा सरन्ति ये ते अप्सरसः। ते सर्वे विवेकिनः (च) (ये) (सर्पाः) सर्ववत् क्रूराः (इतरजनाः) पामरलोकाः (रक्षांसि) राक्षसाः ॥
विषय
विविध मायावी प्रयोग
पदार्थ
१. (खडूरे) = आकाश के दूरदेश में (अधि) = ऊपर (चक्रमाम्) = चक्रमणशील-इधर-उधर प्रादुर्भूत होती हुई (खर्विकाम्) = छोटी-छोटी (खर्ववासिनीम्) = कुछ चीखती-सी हुई[वासयते to scream] माया को तू शत्रुओं को दिखा। (ये) = जो (उदारा:) = विशाल योजनाएँ हैं, उन्हें शत्रुओं के लिए प्रदर्शित कर (च) = और (ये अन्तर्हिता:) = जो भीतर छिपे हुए (गन्धर्वाप्सरस:) = पृथिवी का धारण करनेवाले [गां धारयन्ति] व जलों में विचरनेवाले [अप्सु सरन्ति] (सर्पा:) = कुटिल चालवाले, (इतरजना:) = अन्य लोग हैं, (रक्षांसि) = राक्षसी वृत्तिवाले क्रूर लोग हैं, उन्हें तू शत्रुओं के लिए दिखला। २. (चतुर्दष्ट्रान् श्याबदतः कुम्भमुष्कान्) = चार-चार दाड़ोंवाले, काले-काले दाँतोवाले, घड़े के समान बड़े-बड़े अण्डकोशोंवाले (असृङ्मुखान्) = रुधिर लिप्त मुखोंवाले भंयकर रूपों को शत्रुओं को दिखा। (ये च) = और जो (स्वभ्यसा:) = स्वयं भयंकर (उभ्यसा:) = दूसरों में भय उत्पन्न करने में समर्थ हैं, उन्हें शत्रुओं को दिखा।
भावार्थ
शत्रुओं को भयभीत करने के लिए विविध मायावी प्रयोगों का प्रदर्शन किया किया जाए |
भाषार्थ
(खडूरे) भेदनीति और मन्थन में (अधि चङ्क्रमाम्) अधिक गति वाली सैनिक-टुकड़ी को, (खर्विकाम्) पराक्रम में गर्वीली को; तथा (खर्ववासिनीम्) गर्वीली शत्रु सेना का छेदन करनी सैनिक-टुकड़ी को, तथा (ये) जो (उदाराः) उदारा भाव (अन्तर्हिताः) अभी छिपाएं रखे हैं, अभी प्रकट नहीं किये, (ये) तथा जो (गन्धर्वासरसः च) पृथिवी-पति अपने साथी हैं, और जो अन्तरिक्ष में सरण करने वाली सैनिक-टुकड़ियां हैं, (सर्पाः) सर्पों के सदृश शत्रुओं में छिप कर, विष फैलाने वाले तथा (इतरजनाः) तत्सदृश अन्य जन हैं, (रक्षांसि) और राक्षसी स्वभाव वाले सैनिक हैं, उन्हें [प्रदर्शय (१५) प्रदर्शित कर]
टिप्पणी
[खडूरे = खडि भेदने (चुरादि); खडि मन्थे (भ्वादि) खडूरे = खड् + उरन् (औणादिक प्रत्यय)। खर्विकाम् = खर्व दर्पे (भ्वादि)। खर्ववासिनाम्= खर्व (दर्प) + वस छेदने१ (चुरादि)। गन्धर्वाः = गौः पृथिवीनाम (निघं १।१) + धृञ् (धारणे), पृथ्वी का धारण करने वाले राजा। सर्पाः = विषैले व्यक्ति (अथर्व ८।५।१३-१६)][१.छेदनार्थक ''वस्" धातु से "वसा" शब्द निष्पन्न है, जिसका अर्थ है चर्बी। पशु को काट कर, छिन्नभिन्न कर, चर्बी प्राप्त होती है।]
विषय
महासेना-संचालन और युद्ध।
भावार्थ
(खडूरे) आकाश में दूर तक (चंकमाम्) जाने वाली (खर्विकाम्) खर्व रूप वाली, छोटी सी (खर्ववासिनीम् = खर्ववाशिनीम्) विकृत शब्द करने वाली माया को भी दर्शा। (ये) जो (उदाराः) ऊपर चमत्कारकारी पदार्थ (अन्तर्हिताः) भीतर छिपे हुए हों और (ये) जो (गन्धर्वाप्सरसश्च) वे गन्धर्व और अप्सराएं, नवयुवक और रूपवती स्त्रियें और (सर्पाः इतरजनाः रक्षांसि) नाग, इतरजन, नीच भयंकर लोग और राक्षस, क्रूर लोग इन सब को समय समय पर दर्शा। और माया से ही (चतुर्दष्ट्रान्) चार चार दाढ़ों वाले, (श्यावदतः) काले काले दांतों वाले, (कुम्भमुष्कान्) घड़े के समान बड़े बड़े अण्डकोशों वाले, (असृङ्मुखान्) मुंह में लहू लिये हुए नाना भयंकर ऐसे रूपों को दिखा (ये) जो (स्वभ्यसाः) स्वयं भयंकर और (उद्भयसाः) दूसरों में भय उत्पन्न करने में समर्थ हों।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कांकायन ऋषिः। मन्त्रोक्ता अर्बुदिर्देवता। १ सप्तपदा विराट् शक्वरी त्र्यवसाना, ३ परोष्णिक्, ४ त्र्यवसाना उष्णिग्बृहतीगर्भा परा त्रिष्टुप् षट्पदातिजगती, ९, ११, १४, २३, २६ पथ्यापंक्तिः, १५, २२, २४, २५ त्र्यवसाना सप्तपदा शक्वरी, १६ व्यवसाना पञ्चपदा विराडुपरिष्टाज्ज्योतिस्त्रिष्टुप्, १७ त्रिपदा गायत्री, २, ५–८, १०, १२, १३, १७-२१ अनुष्टुभः। षडविंशर्चं सूक्तम्॥
मन्त्रार्थ
(खडू रे) भेदनीय ! शत्रु संघ में "खड भेदने" (चुरादि०) ततः-ऊरक् प्रत्ययः-औणादिको बाहुलकात् (उणादि. १।६७) (अधि चङक्रमाम्) अत्यन्त अधिक्रमण-आक्रमण करती हुई (खर्विकाम्) गर्व करने वाली- स्वबलाभिमानी (खर्ववासिनीम्) गर्व पूर्ण जनों में वसी हुई सेना को प्रदर्शित कर (ये अन्तर्हिता: उदाराः) जो छिपे हुए उभरने वाले स्फोटक पदार्थ (च) और (ये गन्धर्वाप्सरसः) गन्ध वाले गन्धक आदि और फैलने वाले वायु रूप- गैस के रूप में उड़ने वाले द्रव पदार्थ हैं (सर्पाः) सर्पण शील पंक्ति रूप धारा वाले हैं (इतरजनाः) इतरजन्यमान पदार्थ मिश्रण से उत्पन्न जो "चित्तभेक चूर्ण- भल्लातक सद्यः प्राणहर एतेषां वा धूमः” ( कौटिल्यार्थ औपनि० १४।१।५) (रक्षांसि ) रक्षा जिनसे करते हैं। ऐसे षियुक्त पदार्थों को दिखला ॥१६॥
विशेष
ऋषिः - काङ्कायनः (अधिक प्रगतिशील वैज्ञानिक) "ककि गत्यर्थ" [स्वादि०] कङ्क-ज्ञान में प्रगतिशील उससे भी अधिक आगे बढा हुआ काङ्कायनः। देवता-अबुदि: "अबु दो मेघ:" [निरु० ३|१०] मेघों में होने वाला अर्बुदि-विद्युत् विद्युत का प्रहारक बल तथा उसका प्रयोक्ता वैद्युतास्त्रप्रयोक्ता सेनाध्यक्ष “तदधीते तद्वेद” छान्दस इञ् प्रत्यय, आदिवृद्धि का अभाव भी छान्दस । तथा 'न्यर्बु''दि' भी आगे मन्त्रों में आता है वह भी मेघों में होने वाला स्तनयित्नु-गर्जन: शब्द-कडक तथा उसका प्रयोक्ता स्फोटकास्त्रप्रयोक्ता अर्बुदि के नीचे सेनानायक न्यर्बुदि है
इंग्लिश (4)
Subject
War, Victory and Peace
Meaning
Display the airforce, proud and bold, which shatters the proud and arrogant, armaments that are explosive, those that are yet unexposed, rulers of the earth on your side, forces on the move, Sarpas, other forces, and the Rakshas, absolute destroyers, and yet show your noble and generous intentions.
Translation
Her that strides upon the khadura, mutilated, wearing what is mutilated (?), the specters that are concealed ; and what Gandharvas and Apsarases (there are), serpents, other-folk, demons.
Translation
Make visible to them bird which is very small, and which lives in small place, flying in the sky and the hidden, explosive weapons be used. Also manage to let them see dreadful clouds, thundering lightning’s, snakes, wicked men and others (to cause a great fear in their mind).
Translation
Show to the enemy to frighten and defeat him, the army that can fearlessly tread on the sword, is full of pride, and millions in number, show to him the rulers of the earth who are charitable and benevolent in nature, and learned persons who know the science of flying in the air. Shake those who are violent like a serpent, low in mentality, and diabolic in nature.
Footnote
(16,17) वेपेय in both these verses is taken from the 18th verse.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१६−(खडूरे) मीनातेरूरन् उ० १।६७। खड भेदने-ऊरन्। खङ्गे। तरवारौ (अधिचङ्क्रमाम्) क्रमु पादविक्षेपे, यङ्लुकि नुक्-पचाद्यच्। यङोऽचि च। पा० २।४।७३। यङो लुक्। भृशमधिक्रमणशीलाम् (खर्विकाम्) खर्व दर्पे-ण्वुल्। अभिमानिनीम् (खर्ववासिनीम्) खर्वेषु संख्याविशेषेषु निवसन्तीं सेनाम् (ये) (उदाराः) दानशीलाः (अन्तर्हिताः) अन्तःकरणेन हितकारिणः (गन्धर्वाप्सरसः) अ० ११।६।४। गां पृथिवीं धरन्ति ये ते गन्धर्वाः। अप्सु प्रजासु आकाशे वा सरन्ति ये ते अप्सरसः। ते सर्वे विवेकिनः (च) (ये) (सर्पाः) सर्ववत् क्रूराः (इतरजनाः) पामरलोकाः (रक्षांसि) राक्षसाः ॥
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