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अथर्ववेद के काण्ड - 15 के सूक्त 4 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 3
    ऋषिः - अध्यात्म अथवा व्रात्य देवता - द्विपदा प्राजापत्या जगती छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
    68

    वा॑स॒न्तावे॑नं॒मासौ॒ प्राच्या॑ दि॒शो गो॑पायतो बृ॒हच्च॑ रथन्त॒रं चानु॑ तिष्ठतो॒ य ए॒वं वेद॑॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वा॒स॒न्तौ । ए॒न॒म् । मासौ॑ । प्राच्या॑: । दि॒श: । गो॒पा॒य॒त॒: । बृ॒हत् । च॒ । र॒थ॒म्ऽत॒रम् । च॒ । अनु॑ । ति॒ष्ठ॒त॒: । य: । ए॒वम् । वेद॑ ॥४.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वासन्तावेनंमासौ प्राच्या दिशो गोपायतो बृहच्च रथन्तरं चानु तिष्ठतो य एवं वेद॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वासन्तौ । एनम् । मासौ । प्राच्या: । दिश: । गोपायत: । बृहत् । च । रथम्ऽतरम् । च । अनु । तिष्ठत: । य: । एवम् । वेद ॥४.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 4; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    परमेश्वर के रक्षा गुण का उपदेश।

    पदार्थ

    (वासन्तौ) वसन्तऋतुवाले (मासौ) दो महीने (प्राच्याः दिशः) पूर्व दिशा से (एनम्) उस [विद्वान्]की (गोपायतः) रक्षा करते हैं, [और दोनों] (बृहत्) बृहत् [बड़ा आकाश] (च च) और (रथन्तरम्) रथन्तर [रमणीय गुणों द्वारा पार होने योग्य जगत्] [उसके लिये] (अनुतिष्ठतः) विहित कार्य करते हैं, (यः) जो [विद्वान्] (एवम्) व्यापक [व्रात्यपरमात्मा] को (वेद) जानता है ॥३॥

    भावार्थ

    विद्वान् लोग निश्चयकरके मानते हैं कि जो मनुष्य परमात्मा में विश्वास करता है, वह पुरुषार्थी जनपूर्वादि दिशाओं और वसन्त आदि ऋतुओं में सुरक्षित रहता है ॥१-३॥

    टिप्पणी

    ३−(एनम्)विद्वांसम् (गोपायतः) रक्षतः (अनुतिष्ठतः) सहवर्तेते। विहितकर्म कुरुतः (यः)विद्वान् (एवम्) इण् गतौ-वन्। व्यापकं व्रात्यं परमात्मानम् (वेद) जानाति। अन्यत्पूर्ववत्-म० १, २ ॥

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    विषय

    प्राच्याः दिशः

    पदार्थ

    १. (तस्मै) = उस व्रात्य के लिए (प्राच्याः दिश:) = पूर्व दिशा से सब देव (वासन्तौ मासौ) = वसन्त ऋतु के दो मासों को (गोसारौ अकुर्वन्) = रक्षक बनाते हैं (च) = तथा (बृहत् रथन्तरं च) = हदय की विशालता तथा शरीर-रथ से जीवन-यात्रा को पूर्ण करने की प्रवृत्ति को (अनुष्ठातारौ) = विहित कार्यसाधक बनाते हैं। (एनम्) = इस व्रात्य को (वासन्तौ मासौ) = वसन्त ऋतु के दो मास (प्राच्याः दिशः गोपायत:) = पूर्व दिशा से रक्षित करते हैं (च) = तथा (बृहत् रथन्तरं च) = हृदय की विशालता तथा शरीर-रथ से भव-सागर को तैरने की प्रवृत्ति (अनुतिष्ठत:) = उसके कर्तव्य-कर्मों को करनेवाले होते हैं। इस व्यक्ति के ये कर्तव्य साधक होते हैं, (य:) = जो (एवं वेद) = इस तत्त्व को समझ लेता है, वह 'बृहत् और रथन्तर' के महत्त्व को जान लेता है।

    भावार्थ

    व्रात्य को वसन्त के दो मास पूर्व दिशा से रक्षित करते हैं और बृहत् तथा रथन्तर' इसे कर्तव्य-कर्मों में प्रवृत्त करते हैं।

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    भाषार्थ

    (वासन्तौ) वसन्त ऋतुसम्बन्धी (मासौ) दो मास (प्राच्याः दिशः) पूर्व दिशा से (एनम्) इस श्रद्धालु को (गोपायतः) रक्षा करते हैं, (बृहत् च) और बृहत् सामगान (च रथन्तरम्) तथा रथन्तर सामगान (अनुतिष्ठतः) इस के अनुष्ठानों में सहायक होते हैं (यः) जो कि (एवम्) इस प्रकार के तथ्य को (वेद) जान लेता और तदनुसार जीवन बनाता है।

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    विषय

    व्रात्य प्रजापति का राजतन्त्र।

    भावार्थ

    (प्राच्याः दिशः) प्राची दिशा में (तस्मै) उस व्रात्य के (वासन्तौ मासौ) वसन्त ऋतु के दोनों मासों को (गोप्तारौ अकुर्वन्) देवों ने रक्षक कल्पित किया। (बृहत् च रथन्तरं च) बृहत् और रथन्तर दोनों को (अनुष्ठातारौ) अनुष्ठाता, कर्मकर भृत्य या सेवक कल्पित किया। (यः एवं वेद) जो पुरुष व्रात्य प्रजापति के इस स्वरूप का भली प्रकार साक्षात् कर लेता है (एनं) उसको (वासन्तौ मासौ) वसन्त के दोनों मास (प्राच्या दिशः) प्राची दिशा से (गोपायतः) रक्षा करते हैं। (बृहत् च) बृहत् और (रथन्तरं च) रथन्तर दोनों (अनु तिष्ठतः) उसकी सेवा करते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १, ५, ६ (द्वि०) दैवी जगती, २, ३, ४ (प्र०) प्राजापत्या गायत्र्य, १ (द्वि०), ३ (द्वि०) आर्च्यनुष्टुभौ, १ (तृ०), ४ (तृ०) द्विपदा प्राजापत्या जगती, २ (द्वि०) प्राजापत्या पंक्तिः, २ (तृ०) आर्ची जगती, ३ (तृ०) भौमार्ची त्रिष्टुप, ४ (द्वि०) साम्नी त्रिष्टुप, ५ (द्वि०) प्राजापत्या बृहती, ५ (तृ०), ६ (तु०) द्विपदा आर्ची पंक्तिः, ६ (द्वि०) आर्ची उष्णिक्। अष्टादशर्चं चतुर्थ पर्यायसूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Vratya-Prajapati daivatam

    Meaning

    The two spring months, from the eastern quarter protect him, and Brhat and Rathantara Samans fulfil his wish and will, whoever knows this.

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    Translation

    The two spring-months protect (him) from the eastern quarter and the brhat and the rathantara Samans attend him, who knows it thus.

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    Translation

    The two months of spring season protect and Brihat with Rathantara superintends from eastern directions the man who possesses this knowledge.

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    Translation

    For him from the southern region.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३−(एनम्)विद्वांसम् (गोपायतः) रक्षतः (अनुतिष्ठतः) सहवर्तेते। विहितकर्म कुरुतः (यः)विद्वान् (एवम्) इण् गतौ-वन्। व्यापकं व्रात्यं परमात्मानम् (वेद) जानाति। अन्यत्पूर्ववत्-म० १, २ ॥

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