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अथर्ववेद के काण्ड - 19 के सूक्त 3 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 3/ मन्त्र 2
    ऋषिः - अथर्वाङ्गिराः देवता - अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - जातवेदा सूक्त
    83

    यस्ते॑ अ॒प्सु म॑हि॒मा यो वने॑षु॒ य ओष॑धीषु प॒शुष्व॒प्स्वन्तः। अग्ने॒ सर्वा॑स्त॒न्वः सं र॑भस्व॒ ताभि॑र्न॒ एहि॑ द्रविणो॒दा अज॑स्रः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यः। ते॒। अ॒प्ऽसु। म॒हि॒मा। यः। वने॑षु। यः। ओष॑धीषु। प॒शुषु॑। अ॒प्ऽसु। अ॒न्तः। अग्ने॑। सर्वाः॑। त॒न्वः᳡। सम्। र॒भ॒स्व॒। ताभिः॑। नः॒। आ। इ॒हि॒। द्र॒वि॒णः॒ऽदाः। अज॑स्रः ॥३.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यस्ते अप्सु महिमा यो वनेषु य ओषधीषु पशुष्वप्स्वन्तः। अग्ने सर्वास्तन्वः सं रभस्व ताभिर्न एहि द्रविणोदा अजस्रः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यः। ते। अप्ऽसु। महिमा। यः। वनेषु। यः। ओषधीषु। पशुषु। अप्ऽसु। अन्तः। अग्ने। सर्वाः। तन्वः। सम्। रभस्व। ताभिः। नः। आ। इहि। द्रविणःऽदाः। अजस्रः ॥३.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अग्नि के गुणों का उपदेश।

    पदार्थ

    (यः) जो (ते) तेरा (महिमा) महत्त्व (अप्सु) जलों में, (यः) जो (वनेषु) वनों में, (यः) जो (ओषधीषु) ओषधियों [अन्न सोमलता आदि] में, (पशुषु) जीवों में और (अप्सु अन्तः) अन्तरिक्ष के बीच है। (अग्ने) हे अग्नि ! (सर्वाः) सब (तन्वः) उपकार शक्तियों को (सं रभस्व) एकत्र ग्रहण कर और (ताभिः) उन [उपकारशक्तियों] के साथ (द्रविणोदाः) सम्पत्तिदाता (अजस्रः) लगातार वर्तमान तू (नः) हमको (आ) आकर (इहि) प्राप्त हो ॥२॥

    भावार्थ

    विद्वान् लोग सब पदार्थों के बीच अग्नि अर्थात् बिजुली आदि के प्रभाव को खोजें और उसकी अनेक उपयोगिताओं को काम में लाकर धन प्राप्त कर सुखी होवें ॥२॥

    टिप्पणी

    २−(यः) ते तव (अप्सु) उदकेषु (महिमा) महत्त्वम्। प्रभावः (यः) (वनेषु) अरण्येषु (यः) (ओषधीषु) अन्नसोमलतादिषु (पशुषु) प्राणिषु (अप्सु) अन्तरिक्षे (अन्तः) मध्ये (अग्ने) हे विद्युदादिपावक (सर्वाः) समस्ताः (तन्वः) उपकृतीः (सं रभस्व) संकलय (ताभिः) तनूभिः। उपकृतिभिः (नः) अस्मान् (आ) आगत्य (इहि) प्राप्नुहि (द्रविणोदाः) सम्पत्तिदाता (अजस्रः) निरन्तरः सन् ॥

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    विषय

    'द्रविणोदा' अग्नि

    पदार्थ

    १. हे (अग्ने) = अग्निदेव! (यः) = जो (ते) = तेरी महिमा महत्त्वपूर्ण सामर्थ्य (अप्सु) = जलों में है, (यः) = जो तेरी महिमा (वनेषु) = वनों में वनाग्नि के रूप से है, (य:) = और जो तेरी महिमा (ओषधीषु) = ओषधियों में फलपाक का कारण बनती है, जो (पशुषु) = पशुओं में प्राणियों में वैश्वानर रूप से तेरी महिमा है, जो (अप्सु अन्त:) = अन्तरिक्षस्थ जलों में-मेघों में विद्युत् रूप से तेरी महिमा है। हे अग्ने! तु उन (सर्वा:) = सब (तन्व:) = अपने महिमारूप शरीरों को (संरभस्व) = हममें संकलित कर। (ताभि:) = अपने उन महत्त्वों से (न:) = हमारे लिए (अजस्त्र:) = निरन्तर (द्रविणोदा:) = उस-उस अंग के लिए आवश्यक द्रविणों को देनेवाला होता हुआ (एहि) = हमें प्राप्त हो।

    भावार्थ

    विविध स्थानों में रहता हुआ अग्नि हमें अपनी महिमाओं से अंग-प्रत्यंग के लिए आवश्यक द्रविणों का देनेवाला हो।

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    भाषार्थ

    (अग्ने) हे जातवेदः अग्नि! (ते) तेरी (यः महिमा) जो महिमा (अप्सु) जलों में है, (यः) जो (वनेषु) वनों में, (यः) और जो (ओषधीषु) ओषधियों में, (पशुषु) पशुओं में और (अप्सु) प्राणों के (अन्तः) भीतर तेरी महिमा है, उन (सर्वाः तन्वः) सब अपने विस्तारों का (संरभस्व= संलभस्व) हमें लाभ प्रदान कर। (ताभिः) उन विस्तारों द्वारा (अजस्रः) सदा (द्रविणोदाः) धन प्रदान करता हुआ तू (नः) हमें (एहि) प्राप्त होता रहे।

    टिप्पणी

    [जलों में अग्नि विद्युत्-रूप है। वनों के काष्ठों में आग के रूप में, ओषधियों में स्वास्थ्यकर रूप में, पशुओं में जाठराग्नि तथा शारीरिक गर्मी के रूप में, प्राणों में प्राणशक्ति के रूप में अग्नि की महिमा विस्तृत है। अग्नि के प्रयोगों के द्वारा वस्तुओं का निर्माण कर अग्नि के द्वारा धनोपार्जन होता है। अजस्रः=अ+जसु (हिंसायाम्)+रः=अहिंसित, सदा विद्यमान। अप्सु=प्राणेषु “सप्तापः स्वपतो लोकमीयुः” (यजुः० ३४.५५)।]

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    विषय

    जातवेदा अग्नि, परमेश्वर का वर्णन।

    भावार्थ

    हे (अग्ने) अग्ने ! (ते) तेरा (यः) जो (अप्सु) जल में (महिमा) महान्, महत्वपूर्ण सामर्थ्य है और (यः) जो (वनेषु) वनों में और वनस्पतियों में जो तेरा महान् सामर्थ्य है, (यः ओषधीषु) और जो ओषधियों में और (पशुषु) पशुओं में, और (अप्सु) प्रजाओं में या अपों, नदियों, जलधारा और लोक लोकान्तरों में तेरा महान् सामर्थ्य है हे अग्ने ! तू (सर्वाः) समस्त (तन्वः) रूपों को (सरभस्व) उत्तम रीति से प्रकट कर। और (ताभिः) उन सहित (नः) हमें द्रविण, धन, ऐश्वर्य के प्रदाता और (अजस्रः) अविनाशी, रूपमें (एहि) प्राप्त हो।

    टिप्पणी

    ‘तन्वा' इति बहुत्र। ‘संभरस्व’ इति क्वचित्।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वाङ्गिरा ऋषिः। अग्निर्देवता। १-५ अनुष्टुभः। २ भुरिक, चतुॠचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Jataveda

    Meaning

    O Agni, vital heat energy all pervasive, whatever your power, grandeur and efficacy in waters, in forests, in herbs, in animals, and in the living energy of pranas, come and bless us with those powers and efficacies, giver of wealth, unaging divinity.

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    Translation

    What majesty of yours is there in the waters, in the forests, in the medicinal plants, i in the animals, and within the waters (held in midspace, i.e., the clouds); O fire divine, collect all your forms together, and with those may you come to us, à constant bestower of wealth.

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    Translation

    Let this fire operate its all the broad functioned which as its grandeur is present in luminous objects, which in forests, which in herbs, which in animals, which in waters and which one in firmament ; let this come to one utility being the producer of wealth and incessant with all those forms.

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    Translation

    O electricity, whatever thy grandeur there is in floods, in forests, in medicinal herbs, in cattle and in waters, expose all thy forms well and come to us, giving continuous flow of wealth thereby.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २−(यः) ते तव (अप्सु) उदकेषु (महिमा) महत्त्वम्। प्रभावः (यः) (वनेषु) अरण्येषु (यः) (ओषधीषु) अन्नसोमलतादिषु (पशुषु) प्राणिषु (अप्सु) अन्तरिक्षे (अन्तः) मध्ये (अग्ने) हे विद्युदादिपावक (सर्वाः) समस्ताः (तन्वः) उपकृतीः (सं रभस्व) संकलय (ताभिः) तनूभिः। उपकृतिभिः (नः) अस्मान् (आ) आगत्य (इहि) प्राप्नुहि (द्रविणोदाः) सम्पत्तिदाता (अजस्रः) निरन्तरः सन् ॥

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