अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 3/ मन्त्र 4
ऋषिः - अथर्वाङ्गिराः
देवता - अग्निः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - जातवेदा सूक्त
43
श्रुत्क॑र्णाय क॒वये॒ वेद्या॑य॒ वचो॑भिर्वा॒कैरुप॑ यामि रा॒तिम्। यतो॑ भ॒यमभ॑यं॒ तन्नो॑ अ॒स्त्वव॑ दे॒वानां॑ यज॒ हेडो॑ अग्ने ॥
स्वर सहित पद पाठश्रुत्ऽक॑र्णाय। क॒वये॑। वेद्या॑य। वचः॑ऽभिः। वा॒कैः। उप॑। या॒मि॒। रा॒तिम्। यतः॑। भ॒यम्। अभ॑यम्। तत्। नः॒। अ॒स्तु॒। अव॑। दे॒वाना॑म्। य॒ज॒। हेडः॑। अ॒ग्ने॒ ॥३.४॥
स्वर रहित मन्त्र
श्रुत्कर्णाय कवये वेद्याय वचोभिर्वाकैरुप यामि रातिम्। यतो भयमभयं तन्नो अस्त्वव देवानां यज हेडो अग्ने ॥
स्वर रहित पद पाठश्रुत्ऽकर्णाय। कवये। वेद्याय। वचःऽभिः। वाकैः। उप। यामि। रातिम्। यतः। भयम्। अभयम्। तत्। नः। अस्तु। अव। देवानाम्। यज। हेडः। अग्ने ॥३.४॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अग्नि के गुणों का उपदेश।
पदार्थ
(श्रुत्कर्णाय) सुनते हुए कानोंवाले, (कवये) बुद्धिमान् (वेद्याय) वेदों में निपुण पुरुष के लिये (वचोभिः) वचनों और (वाकैः) वेदवाक्यों द्वारा (रातिम्) धन [अर्थात् अग्निविद्या] को (उप) आदर कर के (यामि) मैं प्राप्त होता हूँ। (यतः) जिस से (भयम्) भय [हो], (तत्) उससे (नः) हमें (अभयम्) अभय (अस्तु) होवे, (अग्ने) हे विद्वान् पुरुष ! (देवानाम्) विद्वानों के (हेडः) क्रोध को (अव यज) दूर कर ॥४॥
भावार्थ
मनुष्यों को चाहिये कि शीघ्र सुननेवाले बुद्धिमान् होकर प्रयत्नपूर्वक अग्निविद्या प्राप्त करके ऐसा सुप्रयोग करें, जिस से सब विद्वान् लोग उनसे प्रसन्न रहें ॥४॥
टिप्पणी
४−(श्रुत्कर्णाय) श्रवणशीलकर्णयुक्ताय (कवये) मेधाविने (वेद्याय) तत्र साधुः। पा० ४।४।९४। इति यत्। वेदेषु निपुणाय (वचोभिः) वाक्यैः (वाकैः) वेदानामनुवाकैः (उप) पूजायाम् (यामि) प्राप्नोमि (रातिम्) धनम्। अग्निविद्यामित्यर्थः (यतः) यस्मात् कारणात् (भयम्) भयं भवतु (अभयम्) भयराहित्यम् (तत्) तस्मात् (नः) अस्मभ्यम् (अस्तु) (देवानाम्) विदुषाम् (अवयज) दूरीकुरु। शान्तय (हेडः) हेड अनादरे-असुन्। क्रोधम् (अग्ने) हे विद्वन् ॥
विषय
'महान् अग्नि' प्रभु से प्रार्थना
पदार्थ
१. हे (अग्ने) = अग्रणी प्रभो! (श्रत्कर्णाय) = जिसके कान हमारी प्रार्थना को सदा सुनते हैं, अथवा [श्रुत् ज्ञान से कर्ण कृ विक्षेपे] ज्ञान के द्वारा वासनाओं को विकीर्ण करनेवाले, (कवये) = सर्वज्ञ, (वेद्याय) = अन्तिम जानने योग्य (तत्) = उन आप [प्रभु] के लिए (वाकै:) = सम्यक् उच्चरित (वचोभि:) = वचनों से (रातिम् उपयामि) = अभिलक्षित फलदान की याचना करता है। २. यही याचना करता हैं कि हे अग्ने! (यत: भयम्) = जहाँ से भी भय है, (तत्) = वह सब भय का कारण (न:) = हमारे लिए (अभयम् अस्तु) = भय का कारण न रहे। हे प्रभो! आप सब (देवानाम्) = सूर्य, विद्युत, अग्नि आदि देवों के तथा विद्वानों के (हेड:) = हमारे प्रति क्रोध को (अवयज) = दूर कीजिए। इनका क्रोध हमें प्राप्त न हो। इनकी अनुकूलता होकर हमें स्वास्थ्य की शक्ति व ज्ञान प्राप्त हो।
भावार्थ
प्रभु से हमारी यही याचना है कि वे सब देवों के क्रोध को हमसे दूर करके हमें निर्भय करें। देवानुग्रह हमें शक्ति व ज्ञान प्राप्त कराए।
भाषार्थ
(श्रुत्कर्णाय) स्तुतियों-प्रार्थनाओं का श्रवण करनेवाले, (कवये) वेदकाव्यों के कवि, (वेद्याय) जिज्ञासितव्य तथा प्रापणीय परमेश्वर की प्राप्ति के लिये मैं (वचोभिः) निज वचनों द्वारा, तथा (वाकैः) वैदिक वाक्यों द्वारा (उप) उपासनापूर्वक (रातिम्) वरदान की (यामि) याचना करता हूँ। तथा याचना करता हूँ कि (यतः भयम्) जहाँ से भय की आशङ्का हो, (तत्) वह स्थान (नः) हमारे लिये (अभयम् अस्तु) भयरहित हो जाय। तथा (अग्ने) हे जगत् के अग्रणी! (देवानाम्) क्रीड़ाशील इन्द्रियों के (हेडः) क्रोध को (अव यज) हम में यज्ञ भावना उत्पन्न करके, नीचा कर दीजिये, शान्त कर दीजिये।
टिप्पणी
[श्रुत्कर्णाय= परमेश्वर “अकाय” है—“अकायमव्रणम्” (यजुः० ४०.८) इसलिए परमेश्वर के कान आदि इन्द्रियाँ नहीं। इसलिये “श्रुत्कर्ण” का अर्थ है "श्रुत् श्रवण करोतीति” श्रुत्=श्रु (श्रवणे)+क्विप्+तुक्। कर्णः=करोति इति कर्णः। उणादिकोश तथा निरुक्त में कर्णपद की व्युत्पत्तियाँ भी भिन्न-भिन्न हैं। अथवा “श्रुत्कर्णाय” में लुप्तोपमा है, अर्थात् कानों वाला व्यक्ति जैसे प्रार्थना-वचनों को सुनता है, वैसे परमेश्वर बिना कानों के प्रार्थना वचनों को सुनता है। यथा “स श्रृणोत्यकर्णः” (श्वेताश्व० उप० ३.१९)। यामि=याच्ञाकर्मा (निघं० ३.१९) देवानाम्=दिव् क्रिड़ा। विषयों में क्रीडनशील इन्द्रियाँ। तथा “नैनद् देवा आप्नुवन् पूर्वमर्षत्” (यजुः० ४०.४) की व्याख्या में (देवाः) चक्षु आदि इन्द्रियाँ (महर्षि दयानन्द)। हेडः= मन और आत्मा को विषयों की ओर बलात्कार से ले जाना, यह ऐन्द्रियिक क्रोध है। अवयज=जीवन को यज्ञ जानकर यज्ञिय भावना से जीवनयापन करना, यज्ञ है। इसके द्वारा देवों के क्रोध से मुक्ति मिलती है। मन्त्र में अग्नि पद के द्वारा “ईश्वरार्थ” प्रधान है।]
विषय
जातवेदा अग्नि, परमेश्वर का वर्णन।
भावार्थ
(श्रुत्कर्णाय) श्रवण करने हारे कान रूप, (कवये) कान्तदर्शी, (वेद्याय) परम रूप से ज्ञान करने योग्य, परमेश्वर से (वाकैः) नित्य पाठ करने योग्य अथवा (वाकैः =पाकैः) अच्छी प्रकार सुविचारित (वचोभिः) स्तुति वचनों और वेद मन्त्रों द्वारा (रातिम्) अभिलषित दान की (उपयामि) याचना करता हूं। और प्रार्थना करता हूं कि (यतः) जिधर से भी (भयम्) भय हो (तत्) उधर से (नः अभयम् अस्तु) हमें अभय हो ! हे (अग्ने) अग्रणी, नेतः ! प्रभो ! आप (देवानां) दिव्य पदार्थों, और विद्वानों अथवा क्रीड़ाशील पुरुषों के (हेडः) क्रोध को (अवयज) दूर कर। राजा और ईश्वर के पक्ष में समान है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वाङ्गिरा ऋषिः। अग्निर्देवता। १-५ अनुष्टुभः। २ भुरिक, चतुॠचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Jataveda
Meaning
O Agni, leading light of life, with words of prayer and adoration I come to you and ask for the gift of your generosity so that I may reach the lord divine, the poetic visionary worth knowing who listens to the seeker. Pray cast off the displeasure of divinities from us so that we may be free from the causes of fear and live fearless at peace.
Translation
To Him of listening ears, omnivisioned, and worthy of knowing, I approach with verses and hymns for fulfilment of my wishes. From wherd there is fear, may that be no fear to us. O adorable Lord, may you pacify the anger of the bounties of Nature (towards us).
Translation
I, the apt one attain into knowledge the property of fire for the man who has heard the learnings with his ears (i.e. learned) poet and who knows whatever is knowable through words and subjects of the Veda, so that the threat of danger from any side be danger less. Let this fire send for away the wrath (unfavorable functions) of the natural forces.
Translation
I (the devotee) approach Him, who is swift to listen, Wise and Worthy to be known, with suitable words of praise (i.e., with-mantras) for bounty. May be free from fear wherefrom there is danger. 6 all-leading God, keep away the wrath of the Devas from us.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
४−(श्रुत्कर्णाय) श्रवणशीलकर्णयुक्ताय (कवये) मेधाविने (वेद्याय) तत्र साधुः। पा० ४।४।९४। इति यत्। वेदेषु निपुणाय (वचोभिः) वाक्यैः (वाकैः) वेदानामनुवाकैः (उप) पूजायाम् (यामि) प्राप्नोमि (रातिम्) धनम्। अग्निविद्यामित्यर्थः (यतः) यस्मात् कारणात् (भयम्) भयं भवतु (अभयम्) भयराहित्यम् (तत्) तस्मात् (नः) अस्मभ्यम् (अस्तु) (देवानाम्) विदुषाम् (अवयज) दूरीकुरु। शान्तय (हेडः) हेड अनादरे-असुन्। क्रोधम् (अग्ने) हे विद्वन् ॥
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