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अथर्ववेद के काण्ड - 19 के सूक्त 30 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 30/ मन्त्र 4
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - दर्भमणिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - दर्भमणि सूक्त
    41

    स॑पत्न॒क्षय॑णं दर्भ द्विष॒तस्तप॑नं हृ॒दः। म॒णिं क्ष॒त्रस्य॒ वर्ध॑नं तनू॒पानं॑ कृणोमि ते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स॒प॒त्न॒ऽक्षय॑णम्। द॒र्भ॒। द्वि॒ष॒तः। तप॑नम्। हृ॒दः। म॒णिम्। क्ष॒त्रस्य॑। वर्ध॑नम्। त॒नू॒ऽपान॑म्। कृ॒णो॒मि॒। ते॒ ॥३०.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सपत्नक्षयणं दर्भ द्विषतस्तपनं हृदः। मणिं क्षत्रस्य वर्धनं तनूपानं कृणोमि ते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सपत्नऽक्षयणम्। दर्भ। द्विषतः। तपनम्। हृदः। मणिम्। क्षत्रस्य। वर्धनम्। तनूऽपानम्। कृणोमि। ते ॥३०.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 30; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    सेनापति के लक्षणों का उपदेश।

    पदार्थ

    (दर्भ) हे दर्भ ! [शत्रुविदारक सेनापति] (ते=त्वाम्) तुझको (सपत्नक्षयणम्) वैरियों का नाश करनेवाला, (द्विषतः) शत्रु के (हृदः) हृदय का (तपनम्) तपानेवाला, (क्षत्रस्य) राज्य का (मणिम्) श्रेष्ठ (वर्धनम्) बढ़ानेवाला और (तनूपानम्) शरीरों की रक्षा करनेवाला (कृणोमि) मैं बनाता हूँ ॥४॥

    भावार्थ

    शूर प्रतापी सेनापति को अधिकार दिया जावे कि वह शत्रु के जीतने और राज्य की उन्नति करने में सदा प्रयत्न करे ॥४॥

    टिप्पणी

    ४−(सपत्नक्षयणम्) शत्रूणां नाशकम् (दर्भ) हे शत्रुविदारक सेनापते (द्विषतः) वैरिणः (तपनम्) तापकम् (हृदः) हृदयस्य (मणिम्) प्रशंसनीयम् (क्षत्रस्य) राज्यस्य (वर्धनम्) वर्धकम् (तनूपानम्) शरीराणां पातारं रक्षितारम् (कृणोमि) करोमि (ते) त्वामित्यर्थः ॥

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    विषय

    सपत्नक्षयणं-द्विषतस्तपनम्

    पदार्थ

    १. हे (दर्भ) = वीर्यमणे! तू (सपत्नक्षयणम्) = रोगरूप सपत्नों का क्षय करनेवाला है। (द्विषतः) = हमसे प्रीति न करनेवाले राग-द्वेष आदि के (हृदः) = हृदयों को तू (तपनम्) = सन्तप्त करनेवाला है, अर्थात् इनको समाप्त करनेवाला है। २. तू (क्षत्रस्य वर्धनम्) = क्षतों से त्राण करनेवाले बल का बढ़ानेवाला है। (मणिम्) = तू मणि के तुल्य है। (ते) = तेरे द्वारा ही मैं (तनूपानम्) = शरीर का रक्षण (कृणोमि) = करता हूँ। अथवा शरीर में तेरा पान करता हूँ। शरीर में तुझे सुरक्षित करता हुआ मैं अपने को रक्षित करता हूँ।

    भावार्थ

    रोगरूप सपत्नों का नाश करनेवाली इस दर्भमणि [वीर्य] को मैं शरीर में सुरक्षित करता हुआ, इसके द्वारा अपना रक्षण करता हूँ।

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    भाषार्थ

    (सपत्नक्षयणम्) आन्तरिक-विद्रोहियों का क्षय करनेवाले; (द्विषतः) द्वेषी=अमित्रों के (हृदः) हृदयों को (तपनम्) संतप्त करनेवाले; (क्षत्रस्य) रक्षक सैनिकवर्ग या क्षत-विक्षत से त्राण करनेवाले सैनिकवर्ग की (वर्धनम्) वृद्धि करनेवाले; (दर्भ=दर्भम्) शत्रुविदारक (मणिम्) शिरोमणि सेनापति को (ते) हे राजन्! या हे प्रजाजन! तेरे (तनूपानम्) शरीर का रक्षक (कृणोमि) मैं करता हूँ।

    टिप्पणी

    [क्षत्रस्य= क्षदति रक्षतीति क्षत्रम्। क्षतात् त्रायत इत्यपि (उणा० ४.१६८)।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Darbha Mani

    Meaning

    Darbha, the jewel destroyer of adversaries, heart burner of jealous enemies, O man, O Ruler, I make the promoter of the social order, protector of the body politic, for you.

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    Translation

    Destroyer of rivals, O darbha, and burner of hater's heat, augmenter or ruling power, I make your blessing protector of my body.

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    Translation

    I, the medical men make this Darbha for you, O man, the guard of body, the destroyer of diseases, consumer of the spirit of ailments torturing you and invigorator of protecting powers.

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    Translation

    I (the engineer) make thee, O darbha, the means of destruction of the enemies, the boiler of the hearts of the foes, the radiating contrivance, the means of increasing the striking power of the Kshatriya, and protecting his body.

    Footnote

    (1-4) The capacity of the radio-powered darbha-mani for protection and destruction is indicated here.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ४−(सपत्नक्षयणम्) शत्रूणां नाशकम् (दर्भ) हे शत्रुविदारक सेनापते (द्विषतः) वैरिणः (तपनम्) तापकम् (हृदः) हृदयस्य (मणिम्) प्रशंसनीयम् (क्षत्रस्य) राज्यस्य (वर्धनम्) वर्धकम् (तनूपानम्) शरीराणां पातारं रक्षितारम् (कृणोमि) करोमि (ते) त्वामित्यर्थः ॥

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