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अथर्ववेद के काण्ड - 19 के सूक्त 44 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 44/ मन्त्र 9
    ऋषिः - भृगुः देवता - वरुणः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - भैषज्य सूक्त
    45

    यदा॑पो अ॒घ्न्या इति॒ वरु॒णेति॒ यदू॑चि॒म। तस्मा॑त्सहस्रवीर्य मु॒ञ्च नः॒ पर्यंह॑सः ॥

    स्वर सहित पद पाठ


    स्वर रहित मन्त्र

    यदापो अघ्न्या इति वरुणेति यदूचिम। तस्मात्सहस्रवीर्य मुञ्च नः पर्यंहसः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 44; मन्त्र » 9
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    ब्रह्म की उपासना का उपदेश।

    पदार्थ

    (यत्) क्योंकि (आपः) प्राण और (अघ्न्याः) न मारने योग्य गौएँ हैं, (इति) इसलिये, (वरुण) हे वरुण ! [सर्वश्रेष्ठ परमात्मन्] (इति) इसलिये, (यत्) जो कुछ [असत्य] (ऊचिम) हमने बोला है। (सहस्रवीर्य) हे सहस्रप्रकार के पराक्रमवाले ! [ईश्वर] (तस्मात्) उस (अंहसः) पाप से (नः) हमें (परि) सर्वथा (मुञ्च) छुड़ा ॥९॥

    भावार्थ

    मनुष्य अपने प्राणों, गौओं और परमात्मा का शपथ करके कभी असत्य न बोलें और न कभी पाप करें ॥९॥

    टिप्पणी

    इस मन्त्र का पहिला भाग आ चुका है-अ०७।८३।२, और कुछ भेद से यजुर्वेद में है-२०।१८॥९−(यत्) यस्मात् (आपः) प्राणाः (अघ्न्याः) अहन्तव्या गावः (इति) अनेन प्रकारेण (वरुण) हे सर्वोत्कृष्ट (इति) एवम् (यत्) अनृतम् (ऊचिम) वयं कथितवन्तः। अन्यत् पूर्ववत् ॥

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    भाषार्थ

    (वरुण) हे पापनिवारक वरणीय परमेश्वर! (यद्) जो (आपः इति) प्राणों की, और (यद् अघ्न्या इति) जो गौओं की (ऊचिम्) हम सौगन्ध खाते हैं, (तस्मात्) उस (अंहसः) अनृतवचनरूप सौगन्ध से, (सहस्रवीर्य) हे हजारों सामर्थ्यों वाले परमेश्वर! (नः) हमें (परि मुञ्च) सर्वथा छुड़ाइये।

    टिप्पणी

    [लोग झूठी सौगन्ध खाते हैं। यथा—“अद्या मुरीय यदि यातुधानो अस्मि” (ऋ० ७.१०४.१५)। अर्थात् “मैं आज ही मर जाऊँ, यदि मैं यातना देनेवाला हूँ”। यह सौगन्ध प्राण-सम्बन्धी अर्थात् जीवन सम्बन्धी है। आपः=प्राणाः (मन्त्र १)। इसी प्रकार लोग “गोमाता” की भी सौगन्ध खाते हैं। यथा—“मुझे दूध-पूत की सौगन्द है, यदि मैंने अमुक काम किया हो”। मन्त्र ८ के अनुसार सौगन्ध खाना अनृतकथन है, क्योंकि सौगन्ध सत्य नहीं होतीं। ऐसे अनृतकथनों से बचे रहने के लिये शक्तिमान् परमेश्वर से सहायता की प्रार्थना की गई है।]

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    विषय

    'आपः, अध्या, वरुण'

    पदार्थ

    १. हे आञ्जन मणे [वीर्य]! तू (आप:) = शरीर में सर्वत्र व्याप्त होनेवाला है। (अघ्न्याः इति) = हे वीर्यकणोतुम अहन्तव्य हो-न नष्ट करने योग्य हो अत: 'अन्या' इति इस नामवाले हो। ('वरुण इति') = सब 'आधि-व्याधियों का निवारण करनेवाले' होने से तुम्हें वरुण नाम से (ऊचिम) = कहते हैं। २. (तस्मात) = उस कारण से-'वरुण' होने से हे (सहस्त्रवीर्य) = अनन्त शक्तिवाली वीर्यमणे! तु (न:) = हमें (अंहसः) = पापों से (परिमुञ्च) = सर्वथा मुक्तकर।

    भावार्थ

    शरीर में व्यास होने से वीर्य 'आप:' कहलाता है। न नष्ट करने योग्य होने से यह अन्या' है। पापों व कष्टों का निवारण करने से यह 'वरुण' है।

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    विषय

    तारक ‘आञ्जन’ का वर्णन।

    भावार्थ

    (आपः) आप्त पुरुष जलों के समान स्वच्छ अन्तःकरण वाले हैं, ये (अध्न्याः इति) कभी भी न मारने योग्य सदा आदरणीय लोग हमारे साक्षी हैं और (वरुण इति) हे वरुण सर्वश्रेष्ठ प्रभो ! तू ही हमारे समस्त कार्यो का साक्षी है (इति) इस प्रकार (यद्) जब हम (यत्) जो कुछ (ऊचिम) अपना अपराध स्वीकार करें तो (तस्मात्) उस (अंहसः) अपराध से, हे (सहस्रवीर्यं) सहस्रों शक्तियों वाले तू (नः) हमें (मुञ्च) मुक्त कर। इसका स्पष्टीकरण देखो अथर्व० ७। ८३। २॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भृगुर्ऋषिः। मन्त्रोक्तमाञ्जनं देवता। ९ वरुणो देवता। ४ चतुष्पदा शाङ्कुमती उष्णिक्। ५ त्रिपदा निचद् विषमा। गायत्री १-३, ६-१० अनुष्टुभः॥ दशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Bhaishajyam

    Meaning

    Whatever thus we have spoken of our actions to men of enlightenment, whatever thus we have spoken of the inviolable Mother Nature or the mother cow, from all that sin and evil, O Varuna, lord of infinite power and mercy, pray save us.

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    Translation

    In that we have said O waters, O inviolable, O Varuna, from that sin, may you of thousand fold strength; free us completely.

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    Translation

    O Varuna (All-worshipable God) this man speaks many lies. ‘O Refulgent omnipotent Lord, please save us from that vils act.

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    Translation

    O most Adorable God, whoever there are noble persons of unimpeachable character and who are unworthy to be harmed, and whatever we say and admit our failings; Ietest Thou, the Omnipotent God, free us for all that sin.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    इस मन्त्र का पहिला भाग आ चुका है-अ०७।८३।२, और कुछ भेद से यजुर्वेद में है-२०।१८॥९−(यत्) यस्मात् (आपः) प्राणाः (अघ्न्याः) अहन्तव्या गावः (इति) अनेन प्रकारेण (वरुण) हे सर्वोत्कृष्ट (इति) एवम् (यत्) अनृतम् (ऊचिम) वयं कथितवन्तः। अन्यत् पूर्ववत् ॥

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