अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 44/ मन्त्र 10
मि॒त्रश्च॑ त्वा॒ वरु॑णश्चानु॒प्रेय॑तुराञ्जन। तौ त्वा॑नु॒गत्य॑ दू॒रं भो॒गाय॒ पुन॒रोह॑तुः ॥
स्वर सहित पद पाठस्वर रहित मन्त्र
मित्रश्च त्वा वरुणश्चानुप्रेयतुराञ्जन। तौ त्वानुगत्य दूरं भोगाय पुनरोहतुः ॥
स्वर रहित पद पाठभाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
ब्रह्म की उपासना का उपदेश।
पदार्थ
(आञ्जन) हे आञ्जन ! [संसार के प्रकट करनेवाले ब्रह्म] [मेरे] (मित्रः) प्राणः (च च) और (वरुणः) अपान दोनों (त्वा अनुप्रेयतुः) तेरे पीछे-आगे चले गये हैं। (तौ) वे दोनों (दूरम्) दूर तक (अनुगत्य) पीछे चलकर (त्वा) तुझको (भोगाय) सुख भोगने के लिये (पुनः) फिर (आ ऊहतुः) ले आये हैं ॥१०॥
भावार्थ
जो मनुष्य प्राण और अपान अर्थात् पूरे सामर्थ्य से परमात्मा को दूर-दूर तक खोजते हैं, वे ही उसको अपने समीप पाकर आनन्द भोगते हैं ॥१०॥
टिप्पणी
१०−(मित्रः) मम प्राणः (च) (त्वा) त्वां परमात्मानम् (वरुणः) अपानः (च) (अनुप्रेयतुः) इण् गतौ-लिट्। अनुसृत्य अग्रे जग्मतुः (आञ्जन) म०१। संसारस्य व्यक्तीकारक ब्रह्म (तौ) प्राणापानौ (त्वा) त्वाम् (अनुगत्य) अनुसृत्य (भोगाय) सुखानुभवाय (पुनः) (आ ऊहतुः) वह प्रापणे-लिट्। आनीतवन्तौ ॥
भाषार्थ
(आञ्जन) हे संसार को अभिव्यक्त तथा कान्तिमान् करनेवाले परमेश्वर! (मित्रः च) सर्वभूत मैत्रीसम्पन्न व्यक्ति, (वरुणः च) और निज दुष्कर्मों का निवारण करनेवाला व्यक्ति—ये दोनों (त्वा) आप के (अनु) अनुकूल (प्रेयतुः) प्रयाण करते हैं, अपना अचार-व्यवहार रखते हैं। (तौ) वे दोनों (दूरम्) दूर तक (त्वा) आप के (अनुगत्य) अनुकूल चल कर [और आगे चलने में असमर्थ हो जाते हैं, इसलिये पुनर्जन्म पाकर वे] (भोगाय) अवशिष्ट कर्मों के फलभोग के लिये (पुनः) फिर (ओहतुः) शरीरों का वहन करते हैं।
टिप्पणी
[ओहतुः= आ ऊहतुः (वह प्रापणे, लिट्)। अभिप्राय यह है कि सर्वभूतमैत्री तथा अपापविद्ध होना—ये आपके सद्गुण हैं। परन्तु ये ही दो सद्गुण व्यक्ति को मोक्ष का अधिकारी नहीं बना सकते। मोक्ष के लिये योगाङ्गों का पूर्ण अनुष्ठान आवश्यक है। इसलिये इन पूर्वोक्त व्यक्तियों को पुनः शरीर धारण कर भोग भोगने पड़ते हैं। इस सूक्त में आञ्जन पद द्वारा मुख्यरूप में परमेश्वर का वर्णन हुआ है, और आञ्जन-औषध का गौणरूप में। अंग्रेजी में औषधरूप आञ्जन को Antimony कहते हैं। रोगों में Antimony और Antimony के समासों (compounds) का प्रयोग होता है, Antimony के समास, यथा—"Antimonium arsenieum; Antimonium chlorid, Antimonium jodatum; Antimonium sulph; Antimonium tast आदि।]
विषय
मित्र और वरुण
पदार्थ
१. हे (आञ्जन) = शरीर को नीरोगता व निष्पापता से अलंकृत करनेवाले वीर्य! (मित्रः च वरुण: च) = मित्र और वरुण-स्नेह व निर्दृषता के भाव (त्वा अनुप्रेयतु:) = तेरे पीछे गतिवाले होते हैं। वीर्य का रक्षण होने पर स्नेह व नितेषता का हमारे जीवनों में विकास होता है। २. (तौ) = वे स्नेह व निषता के भाव (त्वा अनुगत्य) = तेरा अनुगमन करके दूर (भोगाय) = बहुत दूर तक वास्तविक आनन्द की प्राप्ति के लिए (पुन: आ ऊहतुः) = फिर से शरीर में समन्तात् प्राप्त कराते हैं। ये स्नेह व निषता के भाव वीर्यरक्षण में सहायक होते हैं। वीर्यरक्षण से ये उत्पन्न होते हैं, फिर उत्पन्न होकर ये वीर्यरक्षण के साधक बनते हैं।
भावार्थ
वीर्य का रक्षण होने पर हममें स्नेह व निषता के भावों का वर्धन होता है। फिर ये भाव वीर्यरक्षण में सहायक बनते हैं।
विषय
तारक ‘आञ्जन’ का वर्णन।
भावार्थ
हे (आञ्जन) ज्ञानप्रकाशक ब्रह्मन् ! (मित्रः च) सबका मित्र न्यायाधीश ! और (वरुणः च) सबको पापों से वारण करने वाला दण्डकर्त्ता दोनों (त्वा अनु प्रेयतुः) तेरे ही पीछे पीछे गमन करते हैं। (तैः) वे दोनें (त्वा) तेरे (अनुगत्य) पीछे पीछे चलकर (दूरम्) बहुत दूरतक (भोगाय) सुखभोग के लिये या राष्ट्र के परिपालन के लिये (पुनः) बार बार तुझे (आ उहतुः) अपने ऊपर अधिष्ठाता रूप से बहन करते या धारण करते हैं।
टिप्पणी
(च) ‘पुनरोहतु’ इति पैप्प० सं०, ‘पुनः। रोहतु’ इति पदपाठः। पुनः आ ऊहतु इति शं० पा०। ‘पुनर्-आ-हत्तम्’ इति ह्विटनिकामितः। ‘ओहताम्’ इति क्वचित्। ‘पुनराहतुः’ इति सायणाभिमतः।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भृगुर्ऋषिः। मन्त्रोक्तमाञ्जनं देवता। ९ वरुणो देवता। ४ चतुष्पदा शाङ्कुमती उष्णिक्। ५ त्रिपदा निचद् विषमा। गायत्री १-३, ६-१० अनुष्टुभः॥ दशर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Bhaishajyam
Meaning
O Anjana, Mitra, the man of love and friendship, and Varuna, man of judgement and wisdom, both follow you and your message. Let both of them go far in accordance with your will and law, and when they have gone far enough, let them come back again to enjoy the beauty and pleasure of this life in body.
Subject
Ointment
Translation
Mitra and Varuna, both, have gone after thee, O Ointment; they having gone far after thee, brought thee back for enjoyment (bhoga).
Translation
O Omnipotent Lord, if I speak Apah in vain, if J speak Aghnya in vain and if I speak Varuna in vain, please save us from that aimless talks.
Translation
O Anjana, let oxygen and hydrogen follow thee faithfully and chasing thee for long, let them once again carry on their burden of usefulness for the welfare of the people at large.
Footnote
(a) This verse appears to refer to some chemical process, where antimony or graphite may be utilized along with oxygen and hydrogen for some useful purpose. Let the scientists make a thorough research into it. (b) Mitra—the affinity for mixing with other things in nature is a well-known property of oxygen. Varun—the selective affinity of hydrogen is also apparent.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१०−(मित्रः) मम प्राणः (च) (त्वा) त्वां परमात्मानम् (वरुणः) अपानः (च) (अनुप्रेयतुः) इण् गतौ-लिट्। अनुसृत्य अग्रे जग्मतुः (आञ्जन) म०१। संसारस्य व्यक्तीकारक ब्रह्म (तौ) प्राणापानौ (त्वा) त्वाम् (अनुगत्य) अनुसृत्य (भोगाय) सुखानुभवाय (पुनः) (आ ऊहतुः) वह प्रापणे-लिट्। आनीतवन्तौ ॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
Misc Websites, Smt. Premlata Agarwal & Sri Ashish Joshi
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
Sri Amit Upadhyay
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
Sri Dharampal Arya
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal