अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 62/ मन्त्र 1
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - ब्रह्मणस्पतिः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - सर्वप्रिय सूक्त
108
प्रि॒यं मा॑ कृणु दे॒वेषु॑ प्रि॒यं राज॑सु मा कृणु। प्रि॒यं सर्व॑स्य॒ पश्य॑त उ॒त शू॒द्र उ॒तार्ये॑ ॥
स्वर सहित पद पाठप्रि॒यम्। मा॒। कृ॒णु॒। दे॒वेषु॑। प्रि॒यम्। राज॑ऽसु। मा॒। कृ॒णु॒। प्रि॒यम्। सर्व॑स्य। पश्य॑त। उ॒त। शू॒द्रे। उ॒त। आर्ये॑ ॥६२.१॥
स्वर रहित मन्त्र
प्रियं मा कृणु देवेषु प्रियं राजसु मा कृणु। प्रियं सर्वस्य पश्यत उत शूद्र उतार्ये ॥
स्वर रहित पद पाठप्रियम्। मा। कृणु। देवेषु। प्रियम्। राजऽसु। मा। कृणु। प्रियम्। सर्वस्य। पश्यत। उत। शूद्रे। उत। आर्ये ॥६२.१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (1)
विषय
विद्वानों के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थ
[हे परमात्मन् !] (मा) मुझे (देवेषु) ब्राह्मणों [ज्ञानियों] में (प्रियम्) प्रिय (कृणु) कर, (मा) मुझे (राजसु) राजाओं में (प्रियम्) प्रिय (कृणु) कर। (उत) और (आर्ये) वैश्य में (उत) और (शूद्रे) शूद्र में और (सर्वस्य) सब (पश्यतः) देखनेवाले [जीव] का (प्रियम्) प्रिय [कर] ॥२॥
भावार्थ
जैसे परमेश्वर सब ब्राह्मण आदि से निष्पक्ष होकर प्रीति करता है, वैसे ही विद्वानों को सब संसार से प्रीति करनी चाहिये ॥१॥
टिप्पणी
इस मन्त्र का मिलान अथ० १९।३२।८ और निम्नलिखित मन्त्र से करो-यजु० १८।४८ ॥ रुचे॑ नो धेहि ब्राह्म॒णेषु॒ रुच॒ राज॑सु नस्कृधि। रुचं॒ विश्ये॑षु शू॒द्रेषु॒ मयि॑ धेहि रु॒चा रुच॑म् ॥ [हे जगदीश्वर !] (नः) हमारी (रुचम्) प्रीति को (ब्राह्मणेषु) ब्राह्मणों [वेदवेत्ताओं] में (धेहि) धारण कर, (नः) हमारी (रुचम्) प्रीति को (राजसु) राजाओं में (कृधि) कर। (रुचम्) [हमारी] प्रीति को (विश्येषु) मनुष्यों के हितकारी वैश्यों में और (शूद्रेषु) शोकयुक्त शूद्रों में [कर], (मयि) मुझमें (रुचा) [मेरी] प्रीति के साथ (रुचम्) [उनकी] प्रीति को (धेहि) धर ॥१−(प्रियम्) हितकरम् (मा) माम् (कृणु) कुरु (देवेषु) ब्राह्मणेषु। वेदज्ञेषु (प्रियम्) (राजसु) क्षत्रियेषु (मा) (कृणु) (प्रियम्) (सर्वस्य) समस्तस्य (पश्यतः) दृष्टिवतो जीवस्य (उत) अपि च (शूद्रे) शुचेर्दश्च। उ० २।१९। शुच शोके-रक्प्रत्ययः, दश्चान्तादेशो धातोर्दीर्घश्च। शोचनीये मूर्खे (उत) (आर्ये) अ० १९।३२।८। आर्यशब्द उत्तमवर्णब्राह्मणक्षत्रियवैश्यवाचकत्वादत्र वैश्यवाची। वैश्ये ॥
इंग्लिश (1)
Subject
Loved of all
Meaning
O lord, make me dear to all divines and brilliant people, make me dear to all brilliant ruling leaders, make me dear favourite of all who can see and discriminate, dear to all whether they are nobles or poor dependants or sub servients.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
इस मन्त्र का मिलान अथ० १९।३२।८ और निम्नलिखित मन्त्र से करो-यजु० १८।४८ ॥ रुचे॑ नो धेहि ब्राह्म॒णेषु॒ रुच॒ राज॑सु नस्कृधि। रुचं॒ विश्ये॑षु शू॒द्रेषु॒ मयि॑ धेहि रु॒चा रुच॑म् ॥ [हे जगदीश्वर !] (नः) हमारी (रुचम्) प्रीति को (ब्राह्मणेषु) ब्राह्मणों [वेदवेत्ताओं] में (धेहि) धारण कर, (नः) हमारी (रुचम्) प्रीति को (राजसु) राजाओं में (कृधि) कर। (रुचम्) [हमारी] प्रीति को (विश्येषु) मनुष्यों के हितकारी वैश्यों में और (शूद्रेषु) शोकयुक्त शूद्रों में [कर], (मयि) मुझमें (रुचा) [मेरी] प्रीति के साथ (रुचम्) [उनकी] प्रीति को (धेहि) धर ॥१−(प्रियम्) हितकरम् (मा) माम् (कृणु) कुरु (देवेषु) ब्राह्मणेषु। वेदज्ञेषु (प्रियम्) (राजसु) क्षत्रियेषु (मा) (कृणु) (प्रियम्) (सर्वस्य) समस्तस्य (पश्यतः) दृष्टिवतो जीवस्य (उत) अपि च (शूद्रे) शुचेर्दश्च। उ० २।१९। शुच शोके-रक्प्रत्ययः, दश्चान्तादेशो धातोर्दीर्घश्च। शोचनीये मूर्खे (उत) (आर्ये) अ० १९।३२।८। आर्यशब्द उत्तमवर्णब्राह्मणक्षत्रियवैश्यवाचकत्वादत्र वैश्यवाची। वैश्ये ॥
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