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अथर्ववेद के काण्ड - 2 के सूक्त 13 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 13/ मन्त्र 3
    ऋषिः - अथर्वा देवता - बृहस्पतिः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - दीर्घायुप्राप्ति सूक्त
    101

    परी॒दं वासो॑ अधिथाः स्व॒स्तयेऽभू॑र्गृष्टी॒नाम॑भिशस्ति॒पा उ॑। श॒तं च॒ जीव॑ श॒रदः॑ पुरू॒ची रा॒यश्च॒ पोष॑मुप॒संव्य॑यस्व ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    परि॑ । इ॒दम् । वास॑: । अ॒धि॒था॒: । स्व॒स्तये॑ । अभू॑: । गृ॒ष्टी॒नाम् । अ॒भि॒श॒स्ति॒ऽपा: । ऊं॒ इति॑ । श॒तम् । च॒ । जीव॑ । श॒रद॑: । पु॒रू॒ची: । रा॒य: । च॒ । पोष॑म् । उ॒प॒ऽसंव्य॑यस्व ॥१३.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    परीदं वासो अधिथाः स्वस्तयेऽभूर्गृष्टीनामभिशस्तिपा उ। शतं च जीव शरदः पुरूची रायश्च पोषमुपसंव्ययस्व ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    परि । इदम् । वास: । अधिथा: । स्वस्तये । अभू: । गृष्टीनाम् । अभिशस्तिऽपा: । ऊं इति । शतम् । च । जीव । शरद: । पुरूची: । राय: । च । पोषम् । उपऽसंव्ययस्व ॥१३.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 13; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    ब्रह्मचारी के समावर्त्तन, विद्यासमाप्ति पर वस्त्र आदि के लिये उपदेश।

    पदार्थ

    [हे ब्रह्मचारिन् !] (इदम्) इस (वासः) वस्त्र को (स्वस्तये) आनन्द बढ़ाने के लिये (परि+अधिथाः) तूने धारण किया है और (गृष्टीनाम्) ग्रहणीया गौओं की (अभिशस्तिपाः) हिंसा से रक्षा करनेवाला (उ) अवश्य (अभूः) तू हुआ है। (च) निश्चय करके (पुरूचीः) बहुत पदार्थों से व्याप्त (शतम्) सौ (शरदः) शरद् ऋतुओं तक (जीव) तू जीवित रह, (च) और (रायः) धन की (पोषम्) पुष्टि [वृद्धि] को (उप–सं–व्ययस्व) अपने सब ओर धारण कर ॥३॥

    भावार्थ

    विद्वान् लोग ब्रह्मचारी को विदित कर दें कि यह उसकी विद्या का सन्मान इसलिये किया गया है कि संसार में गौ आदि उपकारी पदार्थों और विद्या धन और सुवर्ण आदि धन की वृद्धि करके कीर्त्तियुक्त जीवन व्यतीत करे ॥३॥ यह मन्त्र कुछ भेद से अथर्ववेद १९।२४।६। में है ॥

    टिप्पणी

    ३–इदम्। अ० २।१।१। पुरोवर्त्ति। वासः। म० २। वस्त्रम्। परि+अधिथाः। स्थाघ्वोरिच्च। पा० १।२।१७। इति धाञो लुङि इकारोऽन्तादेशः, सिच्च किद्वत्। ह्रस्वादङ्गात्। पा० ८।२।२७। इति सिज्लोपः। परिहितवानसि। प्राप्तवानसि। स्वस्तये। अ० १।३०।२। सु+अस सत्तायाम्–ति प्रत्ययः। क्षेमाय। अभूः। भू–लुङ्। त्वं वर्त्तमानोऽभूः। गृष्टीनाम्। ग्रह उपादाने–क्तिच्। पृषोदरादित्वात् साधुः। ग्राह्यानां गवाम्। अभिशस्तिपाः। अभि–शंसु स्तुतौ, हिंसायां च–क्तिन्। पा रक्षणे–विच्। अभिशस्तिः। अभितो विशसनं हिंसा, तन्निमित्ताद् भयात् पालकः–इति सायणः। हिंसाभयाद् रक्षकः। शतम्। बहुनाम–निघ० ३।१। बह्वीः। जीव। जीव प्राणे। प्राणान् धारय। शरदः। अ० १।१०।२। ऋतुविशेषान्। संवत्सरान्। पुरुचीः। ऋत्विग्दधृक्०। पा० ३।२।५९। इति पुरु+अञ्चू गतिपूजनयोः–क्विन्। अनिदितां हल उपधायाः क्ङिति। पा० ६।४।२४। इति नलोपः। उगितश्च। पा० ४।१।६। अत्र वार्त्तिकम्। अञ्चतेश्चोपसंख्यानम्। इति ङीप्। बहुविधान् पदार्थान् व्याप्नुवतीः। रायः। रै–ङस् विभक्तिः। धनस्य। पोषम्। पुष्लृ पोषणे–घञ्। पुष्टिम्। समृद्धिम्। उप–सम्–व्ययस्व। व्येञ् आच्छादने। परिधत्स्व ॥

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    विषय

    गोपालन व क्रियाशील जीवन

    पदार्थ

    १. आचार्य विद्यार्थी से कहते हैं कि (इदम् वासः) = इस वस्त्र को (स्वस्तये) = कल्याण के लिए (परि+अधिथा:) = धारण करनेवाला बन (उ) = और तू (गृष्टीनाम्) = एक बार व्यायी गौओं का (

    अभिशास्तिपा) = हिंसा से रक्षण करनेवाला (अभू:) = हो। आचार्य जहाँ विद्यार्थी को ज्ञान देता है, वहाँ सौम्य तथा स्वास्थ्यजनक वेश को धारण करने का तथा गोपालन का भी निर्देश करता है। २. (च) = और इसप्रकार तू (शतं शरदः) = सौ वर्षपर्यन्त (जीव) = जीनेवाला हो (च) = तथा (रायः पोषम्) = धन के पोषण को (उपसंव्ययस्व) = धारण कर। ये सौ शरद् ऋतुएँ तेरे लिए (पुरूची:) = [पुरु अञ्च] व्यापक गतिवाली हों। तू खुब क्रियाशील बना रहे, खाट पर लेटकर जीवन के दिन न काटे। इस क्रियाशीलता के द्वारा ही तू धन का अर्जन करनेवाला हो।

    भावार्थ

    हमारे वस्त्र कल्याणकर हों। हम गौओं का पालन करें। क्रियाशील दीर्घजीवन में दरिद्रता से दूर रहें।

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    भाषार्थ

    हे ब्रह्मचारिन् ! (इदं वास: परि अधियाः) इस वस्त्र को (स्वस्तये) कल्याण के लिए तूने पहिना है, (गृष्टीनाम्) गोओं की (अभिशस्तिपाः) हिंसा से रक्षा करनेवाला (उ) निश्चय से (अभूः) तू हुआ है। (पुरुची:) बहुविध कर्मों में व्याप्त (शतम् शरदः) सौ वर्षों तक (जीव) तू जीवित रह, (रायः च) और विद्याधन की (पुष्टिम्) पुष्टि को कर, (उप संव्ययस्व) और वस्त्र को ठीक प्रकार से ओढा कर।

    टिप्पणी

    [गृष्टीनाम् = गुरुकुल में प्रविष्ट ब्रह्मचारियों का कर्तव्य है गुरुकुल की गौओं की सेवा तथा रक्षा, जिनका दूध गुरुकुल के गुरुओं तथा ब्रह्मचारियों ने पीना है। ब्रह्मचर्यकाल में उनके पास धन केवल विद्याधन ही होता है, व्यापारिक धन नहीं। उप संव्ययस्व= प्रविष्ट ब्रह्मचारी अल्पायु होते हैं, उन्हें वस्त्रों का ठीक प्रकार से ओढ़ना भी सिखाना होता है।]

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    विषय

    ब्रह्मचर्य व्रत में आयु, बल बल और दृढ़ता की प्रार्थना

    भावार्थ

    हे बालक ! ब्रह्मचारिन् ! पुरुष ! ( इदं वासः ) देहमय चोले के समान इस वस्त्र को (स्वस्तये) सुख, कल्याण करने और स्वयं सुखी होने के लिये (परि अघिथाः) तुम अपने समस्त शरीर पर धारण करो और (गृष्टीनाम्=कृष्टीनाम्) गौवों के समान इन विषयों और सभी पदार्थों और ज्ञानों तक पहुंचने हारी या विषयों की ओर खेंच लेजाने वाली इन्द्रियों या प्रजाओं को ( अभिशस्तिपाः ) विनाश से बचाने वाला (उ) ही (भूः) बन । इस प्रकार (शतं) सौ (शरदः) वर्षों तक (च) और ( पुरूचीः ) और इससे भी बहुत अधिक (जीव) जी । (रायः च ) नाना प्रकार धन सम्पदाओं और ( पोषम् ) पुष्टिजनक पदार्थों को (उप संव्ययस्व) प्राप्त कर, संग्रह कर और अपने जीवन के निमित्त उचित रीति से उपयोग कर। इस मन्त्र से पति पत्नी को और गुरु अपने शिष्य को वस्त्र धारण करने और उससे अपने देश की रक्षा करने का उपदेश भी देता है। वेद ने शरीर धारण के साथ वस्त्र धारण करने, गौओं और इन्द्रियों की रक्षा करने और जीवनोपयोगी धन संग्रह करने, चिरकाल तक जीने का उपदेश किया है ।

    टिप्पणी

    (द्वि०) ‘कृष्टीनामभिशस्तिपा’ इति ह्विटनिकामितः पाठः । पारस्करगृह्यसूत्रे च ‘जरां गच्छ परिधत्स्व वासो भवा कृष्टीनामभिशस्तिपावा। शतं च ‘जीव शरदः सुवर्चाः रयिं च पुत्राननु संव्ययस्वायुष्मतीदं परिधत्स्व वासः।’ इति पाठः ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। १ अग्निर्देवता। २, ३ बृहस्पतिः। ४, ५ विश्वेदेवाः। १ अग्निस्तुतिः। २, ३ चन्द्रमसे वासः प्रार्थना। ४, ५ आयुः प्रार्थना। १-३ त्रिष्टुभः। ४ अनुष्टुप्। ५ विराड् जगती। पञ्चर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Investiture

    Meaning

    Shining Soma, put on the ceremonial robe, wrap yourself round with knowledge and brilliance of success and well being in life. Be a protector of people and the cows and other animals against violence and calumny. Live a full life of hundred years and more. Work and create a life of abundant health and wealth all round.

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    Translation

    O man, you have wrapped this cloth around you for wellbeing. You have become the protector of people from evil influences. May you live a full span of hundred autumns, and put riches and nourishment on you.

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    Translation

    O celibate disciple; you put on this garment for pleasure and prosperity and always be benevolent to cows. Attain long life lasting hundred autumns and more than that and enwrap you with prosperity of riches.

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    Translation

    O Brahmchari, thou hast clothed thyself in this garment for our welfare. Be thou the savior of mankind from ruin. Live thou for a hundred years, may even more and wrap thee in prosperity of riches!

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३–इदम्। अ० २।१।१। पुरोवर्त्ति। वासः। म० २। वस्त्रम्। परि+अधिथाः। स्थाघ्वोरिच्च। पा० १।२।१७। इति धाञो लुङि इकारोऽन्तादेशः, सिच्च किद्वत्। ह्रस्वादङ्गात्। पा० ८।२।२७। इति सिज्लोपः। परिहितवानसि। प्राप्तवानसि। स्वस्तये। अ० १।३०।२। सु+अस सत्तायाम्–ति प्रत्ययः। क्षेमाय। अभूः। भू–लुङ्। त्वं वर्त्तमानोऽभूः। गृष्टीनाम्। ग्रह उपादाने–क्तिच्। पृषोदरादित्वात् साधुः। ग्राह्यानां गवाम्। अभिशस्तिपाः। अभि–शंसु स्तुतौ, हिंसायां च–क्तिन्। पा रक्षणे–विच्। अभिशस्तिः। अभितो विशसनं हिंसा, तन्निमित्ताद् भयात् पालकः–इति सायणः। हिंसाभयाद् रक्षकः। शतम्। बहुनाम–निघ० ३।१। बह्वीः। जीव। जीव प्राणे। प्राणान् धारय। शरदः। अ० १।१०।२। ऋतुविशेषान्। संवत्सरान्। पुरुचीः। ऋत्विग्दधृक्०। पा० ३।२।५९। इति पुरु+अञ्चू गतिपूजनयोः–क्विन्। अनिदितां हल उपधायाः क्ङिति। पा० ६।४।२४। इति नलोपः। उगितश्च। पा० ४।१।६। अत्र वार्त्तिकम्। अञ्चतेश्चोपसंख्यानम्। इति ङीप्। बहुविधान् पदार्थान् व्याप्नुवतीः। रायः। रै–ङस् विभक्तिः। धनस्य। पोषम्। पुष्लृ पोषणे–घञ्। पुष्टिम्। समृद्धिम्। उप–सम्–व्ययस्व। व्येञ् आच्छादने। परिधत्स्व ॥

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    बंगाली (2)

    भाषार्थ

    হে ব্রহ্মচারী ! (ইদং বাসঃ) এই বস্ত্র (স্বস্তয়ে) কল্যাণের জন্য তুমি (পরি অধিথাঃ) পরিধান করেছো, (গৃষ্টীনাম্) গাভীদের (অভিশস্তিপাঃ) হিংসা থেকে রক্ষাকারী (উ) নিশ্চিতরূপে (অভূঃ) তুমি হয়েছো। (পুরুচীঃ) বহুবিধ কর্মে ব্যাপ্ত (শতম্, শরদঃ) শত বর্ষ পর্যন্ত (জীব) তুমি জীবিত থাকো, (রায়ঃ চ) এবং বিদ্যাধনের (পুষ্টিম্) পুষ্টি করো, (উপ সংব্যয়স্ব) এবং বস্ত্র দ্বারা সঠিকভাবে আচ্ছাদিত হও।

    टिप्पणी

    [গৃষ্টীনাম্ =গুরুকুলে প্রবিষ্ট ব্রহ্মচারীর কর্তব্য হল গুরুকুলে গাভীর সেবা ও রক্ষা, যার দুধ গুরুকুলের গুরু এবং ব্রহ্মচারীরা পান করবে। ব্রহ্মচর্যকালে তাঁর কাছে ধন কেবল বিদ্যাধনই হয়, বাণিজ্যিক ধন নয়। উপ সংব্যয়স্ব=প্রবিষ্ট ব্রহ্মচারী অল্পায়ু হয়, তাঁকে সঠিকভাবে বস্ত্র পরিধান করা শেখাতে হয়।]

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    मन्त्र विषय

    ব্রহ্মচারিণঃ সমাবর্ত্তনে বস্ত্রাদিধারণোপদেশঃ

    भाषार्थ

    [হে ব্রহ্মচারিন্ !] (ইদম্) এই (বাসঃ) বস্ত্রকে (স্বস্তয়ে) আনন্দ বৃদ্ধির জন্য (পরি+অধিথাঃ) তুমি পরিধান করেছো এবং (গৃষ্টীনাম্) গ্রহণীয়া গাভীদের (অভিশস্তিপাঃ) হিংসা থেকে রক্ষাকারী (উ) অবশ্য (অভূঃ) তুমি হয়েছো। (চ) নিশ্চিতরূপে (পুরূচীঃ) অনেক পদার্থ দ্বারা ব্যাপ্ত (শতম্) শত (শরদঃ) শরদ্ ঋতু পর্যন্ত (জীব) তুমি জীবিত থাকো, (চ) এবং (রায়ঃ) ধন-সম্পদের (পোষম্) পুষ্টি [বৃদ্ধিকে] (উপ–সং–ব্যয়স্ব) নিজের সব দিকে ধারণ করো ॥৩॥

    भावार्थ

    বিদ্বানগণ ব্রহ্মচারীকে বিদিত করুক যে, তাঁর বিদ্যার সন্মান এইজন্য করা হয়েছে যাতে সে, সংসারে গাভী আদি উপকারী পদার্থ ও বিদ্যা ধন এবং সুবর্ণ আদি ধন-সম্পদের বৃদ্ধি করে কীর্ত্তিযুক্ত জীবন ব্যতীত করে ॥৩॥ এই মন্ত্র কিছুটা আলাদাভাবে অথর্ববেদ ১৯।২৪।৬। এ আছে ॥

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