अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 15/ मन्त्र 5
ऋषिः - ब्रह्मा
देवता - प्राणः, अपानः, आयुः
छन्दः - त्रिपाद्गायत्री
सूक्तम् - अभय प्राप्ति सूक्त
71
यथा॑ स॒त्यं चानृ॑तं च॒ न बि॑भी॒तो न रिष्य॑तः। ए॒वा मे॑ प्राण॒ मा बि॑भेः ॥
स्वर सहित पद पाठयथा॑ । स॒त्यम् । च॒ । अनृ॑तम् । च॒ । न । बि॒भी॒त: । न । रिष्य॑त: । ए॒व । मे॒ । प्रा॒ण॒ । मा । बि॒भे॒: ॥१५.५॥
स्वर रहित मन्त्र
यथा सत्यं चानृतं च न बिभीतो न रिष्यतः। एवा मे प्राण मा बिभेः ॥
स्वर रहित पद पाठयथा । सत्यम् । च । अनृतम् । च । न । बिभीत: । न । रिष्यत: । एव । मे । प्राण । मा । बिभे: ॥१५.५॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
मनुष्य धर्म के पालन में निर्भय रहे।
पदार्थ
(यथा) जैसे (च) निश्चय करके (सत्यम्) यथार्थ (च) और (अनृतम्) अयथार्थ (न) न (रिष्यतः) दुःख देते और (न) न (बिभीतः) डरते हैं, (एव) वैसे ही (मे) मेरे (प्राण) प्राण ! तू (मा बिभेः) मत डर ॥५॥
भावार्थ
सत्य अर्थात् धर्म का विधान और असत्य अर्थात् अधर्म का निषेध, ये दो प्रधान अङ्ग न्याय के हैं। मनुष्य विधि और निषेध के यथावत् रूप को समझकर, कुमार्ग छोड़कर सुमार्ग में निर्भय चलें और अचल आनन्द भोगें ॥५॥ यजुर्वेद में वर्णन है–अ० १९ म० ७७। दृ॒ष्ट्वा रू॒पे व्याक॑रोत् सत्यानृ॒ते प्र॒जाप॑तिः। अश्रद्धा॒मनृ॒तेऽद॑धाच्छ्र॒द्धा स॒त्ये प्र॒जापतिः ॥१॥ (प्रजापतिः) प्रजाओं के रक्षक परमेश्वर ने (रूपे) दो रूप, (सत्यानृते) सत्य और झूँठ (दृष्ट्वा) देखकर (व्याकरोत्) समझाये। (प्रजापतिः) उस प्रजापति ने (अनृते) झूँठ में (अश्रद्धाम्) अश्रद्धा वा अप्रीति और (सत्ये) सत्य में (श्रद्धाम्) श्रद्धा वा प्रीति को (अदधात्) धारण कराया ॥
टिप्पणी
५–सत्यम्। तस्मै हितम्। पा० ५।१।५। इति सत्–यत्। सद्भ्यो हितम्। तथ्यम्। यथार्थकथनम्। अनृतम्। न ऋतं नञ्समासः। मिथ्याभाषणम् ॥
विषय
सत्य और अनृत [कृषि]
पदार्थ
१. (यथा) = जैसे (सत्यं च अनृतं च) = सत्य और अनृत अर्थात् कृषि (न बिभीत:) = न तो डरते हैं और (न रिष्यत:) = न हिंसित होते हैं। (एव) = इसीप्रकार (मे प्राण) = हे मेरे प्राण ! (मा बिभे:) = तू भयभीत मत हो। २. पूर्व मन्त्रों में 'युलोक व प्रथिवीलोक' परस्पर विरोधी न होकर एक-दूसरे के पूरक हैं। इसीप्रकार दिन और रात','सूर्य और चन्द्र' तथा 'ब्रह्म और क्षत्र' परस्पर अविरुद्ध हैं। यहाँ भी सत्य और अनृत अविरोधी ही लेने चाहिएँ, अत: 'अनृत्त' शब्द यहाँ असत्य-झूठ का वाचक न होकर 'कृषि' का वाचक है-[अनृतं कृषिः-कोश]। ये सत्य और कृषि न भयभीत होते हैं और न हिसित होते हैं। कृषि में श्रम है-प्रकृति के साथ सम्पर्क है। इसमें यथासम्भव सत्यपूर्वक ही आजीविका चलती है। मन में सत्य है तो हाथों में अनृत-कृषि है। सत्य का पालन करनेवाला क्रषि द्वारा ही जीविका प्राप्त करने का ध्यान करता है। इसमें वह दूसरों की हानि न करके जीवन-यात्रा चलाता है। ३. हम अपने जीवन में सत्य और कृषि को अपनाकर निर्भय व अहिंसित बनें।
भावार्थ
निर्भय जीवन के लिए मन में सत्य हो और हाथों में श्रम।
भाषार्थ
जैसे सत्य और अनृत नहीं डरते, और नहीं हिंसित होते। इसी प्रकार हे मेरे प्राण ! तू न डर [और न हिंसित हो।]
टिप्पणी
[सत्य और अनृत व कुरूप नहीं। अपितु सत्य है परमेश्वर और अनृत है ब्रह्माण्ड। परमेश्वर सदास्थायी है, और ब्रह्माण्ड का लय भी हो जाता है, अतः यह अनृत है, सदास्थायी नहीं।]
विषय
अभय की भावना
भावार्थ
(यथा सत्यं च) और जिसप्रकार सत्य और (अनृतं च) असत्य अर्थात् व्यावहारिक प्रयोग अथवा सत्य परमार्थ और अनृत ऐहिक अर्थ दोनों (न बिभीतः) भय नहीं करते और न नष्ट होते हैं इसी प्रकार हे प्राण ! तू भी भय मत कर और नष्ट मत हो । लोकव्यवहार अनित्य होने पर भी प्रवाह से नष्ट नहीं होता।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मा ऋषिः। प्राणो देवता। १-६ त्रिपाद् गायत्रम् । षडृचं सूक्तम् ॥
इंग्लिश (4)
Subject
No Fear
Meaning
Just as commitment to Truth and challenge to Untruth never fear, nor are the two ever hurt or destroyed, same way, O my spirit of truth and courage of pranic challenge, never fear.
Translation
As both the true and the non - True do not entertain any fear, nor do they suffer any harm, so, O my life-breath, may you have no fear.
Translation
As the reality of eternal causes and Phenomenality of the created objects are not afraid and never they suffer from loss, so my vital breath let not fear.
Translation
As Truth and perfect frankness fear not, and never suffer loss or harm; even so, my spirit, fear not thou. [1]
Footnote
[1] The verse may also be translated thus. As love for Truth and denial of untruth fear not, and never suffer loss or harm; even so, my spirit, fear not thou ----- See Yajur, 19- 77.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
५–सत्यम्। तस्मै हितम्। पा० ५।१।५। इति सत्–यत्। सद्भ्यो हितम्। तथ्यम्। यथार्थकथनम्। अनृतम्। न ऋतं नञ्समासः। मिथ्याभाषणम् ॥
बंगाली (2)
भाषार्थ
যেভাবে সত্য এবং অনৃত ভীত হয় না/ভয় করে না এবং হিংসিত হয় না। এইভাবে হে আমার প্রাণ ! তুমি ভয় পেয়ো না/ভীত হয়োনা [এবং হিংসিত হয়োনা।]
टिप्पणी
[সত্য এবং অনৃত বাকরূপ নয়। অপিতু সত্য হল পরমেশ্বর এবং অনৃত হল ব্রহ্মাণ্ড। পরমেশ্বর সদাস্থায়ী, এবং ব্রহ্মাণ্ডের লয়ও হয়ে যায়, অতঃ ইহা অনৃত, সদাস্থায়ী নয়।]
मन्त्र विषय
মনুষ্যো ধর্মপালনে নির্ভয়ো ভবেৎ
भाषार्थ
(যথা) যেমন (চ) নিশ্চিতরূপে (সত্যম্) যথার্থ (চ) ও (অনৃতম্) অযথার্থ (ন) না (রিষ্যতঃ) দুঃখ দেয় এবং (ন) না (বিভীতঃ) ভীত হয়/ভয় করে, (এব) সেভাবেই (মে) আমার (প্রাণ) প্রাণ ! তুমি (মা বিভেঃ) ভয় পেওনা/আশঙ্কিত হয়োনা ॥৫॥
भावार्थ
সত্য অর্থাৎ ধর্মের বিধান ও অসত্য অর্থাৎ অধর্মের নিষেধ, এই দুটি ন্যায়ের প্রধান অঙ্গ। মনুষ্য বিধি ও নিষেধাজ্ঞার যথাবৎ রূপ বুঝে, কুমার্গ ত্যাগ করে সুমার্গে নির্ভয়ে গমন করুক এবং অচল আনন্দ ভোগ করুক ॥৫॥ যজুর্বেদে বর্ণনা হয়েছে–অ০ ১৯ ম০ ৭৭। দৃ॒ষ্ট্বা রূ॒পে ব্যাক॑রোৎ সত্যানৃ॒তে প্র॒জাপ॑তিঃ। অশ্রদ্ধা॒মনৃ॒তেঽদ॑ধাচ্ছ্র॒দ্ধা স॒ত্যে প্র॒জাপতিঃ ॥১॥ (প্রজাপতিঃ) প্রজাদের রক্ষক পরমেশ্বর (রূপে) দুই রূপ, (সত্যানৃতে) সত্য ও অসত্য (দৃষ্ট্বা) দেখে/প্রত্যক্ষ করে (ব্যাকরোৎ) বোঝান। (প্রজাপতিঃ) সেই প্রজাপতি (অনৃতে) অসত্যে (অশ্রদ্ধাম্) অশ্রদ্ধা বা অপ্রীতি ও (সত্যে) সত্যে (শ্রদ্ধাম্) শ্রদ্ধা বা প্রীতি (অদধাৎ) ধারণ করিয়েছেন ॥
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