अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 19/ मन्त्र 5
ऋषिः - अथर्वा
देवता - अग्निः
छन्दः - एकावसानानिचृद्विषमात्रिपाद्गायत्री
सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त
62
अग्ने॒ यत्ते॒ तेज॒स्तेन॒ तम॑ते॒जसं॑ कृणु॒ यो॑३ ऽस्मान्द्वेष्टि॒ यं व॒यं द्वि॒ष्मः ॥
स्वर सहित पद पाठअग्ने॑ । यत् । ते॒ । तेज॑: । तेन॑ । तम् । अ॒ते॒जस॑म् । कृ॒णु॒ । य: । अ॒स्मान् । द्वेष्टि॑ । यम् । व॒यम् । द्वि॒ष्म: ॥१९.५॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्ने यत्ते तेजस्तेन तमतेजसं कृणु यो३ ऽस्मान्द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः ॥
स्वर रहित पद पाठअग्ने । यत् । ते । तेज: । तेन । तम् । अतेजसम् । कृणु । य: । अस्मान् । द्वेष्टि । यम् । वयम् । द्विष्म: ॥१९.५॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
कुप्रयोग के त्याग के लिये उपदेश।
पदार्थ
(अग्ने) हे अग्नि [अग्नि पदार्थ] (यत्) जो (ते) तेरा (तेजः) तेज है, (तेन) उससे (तम्) उस [दोष] को (अतेजसम्) निस्तेज (कृणु) कर दे, (यः) जो (अस्मान्) हमसे (द्वेष्टि) अप्रिय करता है, [अथवा] (यम्) जिससे (वयम्) हम (द्विष्मः) अप्रिय करते हैं ॥५॥
भावार्थ
मन्त्र १ के समान ॥५॥
टिप्पणी
५–तेजः। अ० १।३५।३। तिज निशाने, तेज निशानपालनयोः–असुन्। कान्तिः। अतेजसम्। तिज, तेज–असुन्। नञ्समासः। कान्तिरहितम्। निस्तेजस्कम्। कृणु। कुरु ॥
विषय
तेजस्
पदार्थ
१. है (अग्ने) = अग्नि के समान तेजस्वी प्रभो! (यत्) = जो (ते) = आपका (तेज:) = तेज है, (तेन) = उसके द्वारा (तम्) = उसे (अतेजसम्) = तेजहीन (कृणु) = कीजिए, (य:) = जो (अस्मान् द्वेष्टि) = हम सबके साथ द्वेष करता है (च) = और (यम्) = जिसे (वयम्) = हम भी (द्विष्मः) = अप्रीति योग्य समझते हैं। २. राष्ट्र में राजा अग्नि है। यह राजा समाज-विद्वेषियों को उचित दण्ड आदि के द्वारा निस्तेज कर दे, जिससे वे समाज को हानि न पहुँचा सकें। समाज में ज्ञानी ब्राह्मण भी अग्नि हैं। ये अपनी वाणी द्वारा ज्ञान को इस रूप में प्रसारित करें कि समाज-द्वेषी उससे प्रभावित होकर अपनी द्वेष आदि वृत्तियों के लिए ग्लानि का अनुभव करें।
भावार्थ
राजा व प्रचारक के दण्ड व बक्तृत्व के तेज के सामने द्वेष करनेवाले पुरुष निस्तेज होकर द्वेष को छोड़नेवाले हों।
विशेष
सम्पूर्ण सूक्त का भाव यही है कि अग्नि अपने 'तपस्,हरस्, अर्चिस्, शोचिस् व तेजस' के द्वारा द्वेष करनेवाले पुरुषों को इस द्वेष की वृत्ति से पृथक कर दे। अगले सूक्तों में अग्नि का स्थान 'वायु, सूर्य, चन्द्र व आपः' लेते हैं। अवशिष्ट मन्त्रभाग में किसी प्रकार का अन्तर नहीं है। 'वायु' [वा गतिगन्धनयोः] गति के द्वारा सब प्रकार की बुराइयों का हिंसन करनेवाला है। 'सूर्य' [स गती, पू प्रेरणे] निरन्तर गतिवाला होता हुआ सबको कर्मों के लिए प्रेरित करता है और मानो यही कहता है कि गति ही तुम्हें चमकाएगी। चन्द्र' [चदि आहादे] आहादमय मनोवृति का संकेत करता है। आप:' [आप् व्यासी] व्यापकता का बोध करा रहा है। ये वायु आदि से सूचित भाव द्वेषभावना को नष्ट करनेवाले हैं। यदि एक मनुष्य 'वायु, सूर्य, चन्द्र व आप:' बनने का प्रयत्न करता है तो वह द्वेषादि के दुर्भावों में पड़ ही नहीं सकता। मुख्यरूप से ये सब शब्द प्रभु के वाचक हैं। वे प्रभु ही 'अग्नि' हैं [तदेवाग्निः]। वे ही 'वायु' हैं [तद् वायुः]। वे ही 'सूर्य' है [तदादित्यः]। वे ही 'चन्द्रमा' हैं [तदु चन्द्रमा:]। प्रभु को ही 'आप:' कहते हैं [ता आपः]। ये प्रभु अपनी 'तपस्, हरस्, अर्चिस्, शोचिस् व तेजस्' के द्वारा द्वेषियों के द्वेष दूर करें। सूक्त इसप्रकार हैं -
भाषार्थ
(तेजः की व्याख्या के लिये देखो मन्त्र ( १ ) की व्याख्या) । शेष अर्थ पूर्ववत् ।
टिप्पणी
["तपः हरः" आदि के अर्थ अग्नि का अर्थ परमेश्वर मानने में ही चरितार्थ होते हैं, पार्थिव अग्नि में नहीं, यह जड़ है। जड़ का सम्बोधन केवल कविता में सम्भव है।
विषय
द्वेष करने वालों के सम्बन्ध में प्रार्थना ।
भावार्थ
हे अग्ने ! (यः अस्मान् द्वेष्टि०) जो हम से द्वेष करता है और जिससे हम भी प्रीति नहीं करते (यत् ते तेजः) जो तेरा तेजतीक्ष्ण स्वभाव है (तेन) उस द्वारा (तं) उस पुरुष को (अतेजसं) तीक्ष्ण स्वभाव से रहित सौम्य स्वभाव वाला (कृणु) कर, बना, जिससे वह सज्जन होकर हमारा मित्र हो जाय ।
टिप्पणी
‘यत्ते ज्योतिस्तेन तं प्रति दह’ इति पैप्प० सं० ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः । अग्निर्देवता । १-४ निचृत् सामगायत्री, २ भुरिग् विषमा । पञ्चर्चं सूक्तम् ॥
इंग्लिश (4)
Subject
The Way to Purification: 19-23
Meaning
Agni, the fire and splendour that’s yours, to that, subject him that hates us and that which we hate to suffer.
Translation
O fire-divine, whatever lustre (tejas) you have, with that may you make him lusterless (atejas),who hates us and whom we hate.
Translation
Let the fire, with that of its effulgence, over-power that who …….. etc. etc
Translation
O God, with Thy Fiery nature, make him calm, free from passion, who hates us, or whom we do not love.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
५–तेजः। अ० १।३५।३। तिज निशाने, तेज निशानपालनयोः–असुन्। कान्तिः। अतेजसम्। तिज, तेज–असुन्। नञ्समासः। कान्तिरहितम्। निस्तेजस्कम्। कृणु। कुरु ॥
बंगाली (2)
भाषार्थ
(অগ্নে) হে অগ্নি ! (যৎ তে তেজঃ) যে তোমার তেজ রয়েছে, (তেন) তা দ্বারা (তম্) তাঁকে (অতেজসম্) নিস্তেজ (কৃণু) করো/করে দাও (যঃ) যাঁরা/যে (অস্মান্ দ্বেষ্টি) আমাদের সাথে দ্বেষ করে, (যম্) এবং যাঁর সাথে (বয়ম্) আমরা (দ্বিষ্মঃ) অপ্রীতি করি।
टिप्पणी
["তপঃ হরঃ" আদির অর্থ অগ্নির অর্থ পরমেশ্বর মানার ক্ষেত্রেই চরিতার্থ হয়, পার্থিব অগ্নি নয়, ইহা জড়। জড়ের সম্বোধন কেবল কবিতায় সম্ভব।]
मन्त्र विषय
কুপ্রয়োগত্যাগায়োপদেশঃ
भाषार्थ
(অগ্নে) হে অগ্নি [অগ্নি পদার্থ] (যৎ) যে/যা (তে) তোমার (তেজঃ) তেজ আছে, (তেন) তা দ্বারা (তম্) সেই [দোষ]কে (অতেজসম্) নিস্তেজ (কৃণু) করো, (যঃ) যা (অস্মান্) আমাদের প্রতি (দ্বেষ্টি) দ্বেষ করে, [অথবা] (যম্) যার প্রতি (বয়ম্) আমরা (দ্বিষ্মঃ) দ্বেষ করি ॥৫॥
भावार्थ
মন্ত্র ১ এর সমান ॥৫॥
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