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अथर्ववेद के काण्ड - 2 के सूक्त 20 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 20/ मन्त्र 5
    ऋषिः - अथर्वा देवता - वायुः छन्दः - भुरिग्विषमात्रिपाद्गायत्री सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त
    68

    वायो॒ यत्ते॒ तेज॒स्तेन॒ तम॑ते॒जसं॑ कृणु॒ यो॑३ ऽस्मान्द्वेष्टि॒ यं व॒यं द्वि॒ष्मः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वायो॒ इति॑ । यत् । ते॒ । तेज॑: । तेन॑ । तम् । अ॒ते॒जस॑म् । कृ॒णु॒ । य: । अ॒स्मान् । द्वेष्टि॑ । यम् । व॒यम् । द्वि॒ष्म: ॥२०.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वायो यत्ते तेजस्तेन तमतेजसं कृणु यो३ ऽस्मान्द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वायो इति । यत् । ते । तेज: । तेन । तम् । अतेजसम् । कृणु । य: । अस्मान् । द्वेष्टि । यम् । वयम् । द्विष्म: ॥२०.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 20; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    कुप्रयोग के त्याग के लिये उपदेश।

    पदार्थ

    (वायो) हे पवन [पवन तत्त्व] (यत्) जो (ते) तेरा (तेजः) तेज है, (तेन) उससे (तम्) उस [दोष] को (अतेजसम्) निस्तेज (कृणु) कर दे, (यः) जो (अस्मान्) हमसे (द्वेष्टि) अप्रिय करे, [अथवा] (यम्) जिससे (वयम्) हम (द्विष्मः) अप्रिय करें ॥५॥

    भावार्थ

    मन्त्र १ के समान ॥५॥

    टिप्पणी

    ५–वायो। कृवापाजिमि०। उ० १।१। इति वा गतिगन्धनयोः–उण्। आतो युक् चिण्कृतोः। पा० ७।३।३३। इति युक्। वायुर्वातेर्वेतेर्वा स्याद् गतिकर्मणः–निरु० १०।१। हे पवन ! अन्यद् गतम्, सू० १९ ॥ २, ३, ४, ५–उपरि व्याख्याताः ॥

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    विषय

    ५ भुरिग्विषमात्रिपाद्गायत्री॥

    पदार्थ

    १,  २,  ३,  ४,  ५  एवं  मन्त्र संख्या के  केवल भावार्थ ही है |

    भावार्थ

    वायु अपने तप आदि के द्वारा द्वेषियों के द्वेष को दूर करे। राष्ट्र में राजा भी वायु है। राजा क्रियाशीलता के द्वारा राष्ट्र में से बुराई को दूर करे। समाज में ज्ञानी प्रचारक भी 'वायु की भाँति गतिशील होता हुआ ज्ञानप्रसार द्वारा बुराई को दूर करे।

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    भाषार्थ

    अर्थ और भाव पूर्ववत् । तेजः है परमेश्वर का तेजःस्वरूप, प्रकाशमय स्वरूप। वह पापियों के तेज: का अपहरण कर लेता है, और धर्मात्माओं के तेज और यश का संवर्धन करता है । तथा वायु के कारण अग्नि का प्रज्वलन होता है। वायु१ कारण है और अग्नि कार्य है। कार्य के गुणों का आरोप कारण में हुआ है, कारणे कार्योपचारः। तथा प्रचण्ड वायु वृक्षों आदि का अपहरण करती है। अतः इसमें "हर:" गुण स्वतः विद्यमान है। ग्रीष्म ऋतु में यह प्रतप्त हो जाती है। अतः इसमें "तप:" गुण भी विद्यमान है। अर्चिः और शोचि गुण की सत्ता अग्नि के कारण होने से है।] [१. वायु को "अग्निसखः" भी इसलिये कहते हैं।]

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    विषय

    द्वेष करने वालों के सम्बन्ध में प्रार्थना ।

    भावार्थ

    हे (वायो) ज्ञानरूप, सर्वव्यापक, परमात्मन् ! (योऽस्मान्०) जो हमसे द्वेष करता है और जिससे हम द्वेष करते हैं । (यत् ते तेजः) जो तेरा तीक्ष्ण सामर्थ्य है (तेन तम् अतेजसं कृणु) उस द्वारा उसको तीक्ष्ण सामर्थ्य से रहित कर जिससे वह सौम्य होकर द्वेष न करे ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः । वायुर्देवता । १-४ निचृद विषमा गायत्र्यः । ५ भुरिग विषमा । पञ्चर्चं सूक्तम् ॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Vayu Devata

    Meaning

    Vayu, the power and lustre that is yours, with that cleanse that which hates us and that which we hate to suffer.

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    Translation

    O wind, whatever lustre you have, with that may you make him lusterless, who hates us and whom we hate. `

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    Translation

    Let the air with that of its heat, burn against that who bears malice to us and whom we bear malice to i.e., disease. like pervious Hymn XIX.

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    Translation

    O God, with Thy passionate power, make him, who hates us, or whom we do not love, free from violence.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ५–वायो। कृवापाजिमि०। उ० १।१। इति वा गतिगन्धनयोः–उण्। आतो युक् चिण्कृतोः। पा० ७।३।३३। इति युक्। वायुर्वातेर्वेतेर्वा स्याद् गतिकर्मणः–निरु० १०।१। हे पवन ! अन्यद् गतम्, सू० १९ ॥ २, ३, ४, ५–उपरि व्याख्याताः ॥

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    बंगाली (2)

    भाषार्थ

    (বায়ো) হে পবন (যৎ তে তেজঃ) যে তোমার তেজ রয়েছে, (তেন) তা দ্বারা (তম্) তাঁকে (অতেজসম্) নিস্তেজ (কৃণু) করে দাও (যঃ) যাঁরা/যে (অস্মান্ দ্বেষ্টি) আমাদের সাথে দ্বেষ করে, (যম্) এবং যাঁর সাথে (বয়ম্) আমরা (দ্বিষ্মঃ) অপ্রীতি করি।

    टिप्पणी

    [তেজঃ হল পরমেশ্বরের তেজঃস্বরূপ, প্রকাশময় স্বরূপ। তিনি পাপীদের তেজঃ এর অপহরণ করে নেয়, এবং ধর্মাত্মাদের তেজ ও যশ এর সংবর্ধন করেন। তথা বায়ুর কারণে অগ্নির প্রজ্বলন হয়। বায়ু১ হল কারণ এবং অগ্নি হল কার্য। কার্যের গুণসমূহের আরোপ কারণে হয়েছে, কারণে কার্যোপচারঃ। তথা প্রচণ্ড বায়ু বৃক্ষাদির অপহরণ করে। অতঃ এর মধ্যে "হরঃ" গুণ স্বতঃ বিদ্যমান রয়েছে। গ্রীষ্ম ঋতুতে ইহা প্রতপ্ত হয়ে যায়। অতঃ এর মধ্যে "তপঃ" গুণও বিদ্যমান রয়েছে। অর্চিঃ এবং শোচি গুণের সত্তা অগ্নির কারণ হওয়ার জন্য।] [১. বায়ুকে "অগ্নিসখঃ" ও এইজন্য বলা হয়।]

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    मन्त्र विषय

    কুপ্রয়োগত্যাগায়োপদেশঃ

    भाषार्थ

    (বায়ো) হে পবন [পবন তত্ত্ব] (যৎ) যে (তে) তোমার (তেজঃ) তেজ আছে, (তেন) তা দ্বারা (তম্) সেই [দোষকে] (অতেজসম্) নিস্তেজ (কৃণু) করে দাও, (যঃ) যা (অস্মান্) আমাদের প্রতি (দ্বেষ্টি) অপ্রীতি করে, [অথবা] (যম্) যার প্রতি (বয়ম্) আমরা (দ্বিষ্মঃ) অপ্রীতি করি ॥৫॥

    भावार्थ

    মন্ত্র ১ এর সমান ॥৫॥

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