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अथर्ववेद के काण्ड - 2 के सूक्त 25 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 25/ मन्त्र 5
    ऋषिः - चातनः देवता - वनस्पतिः पृश्नपर्णी छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - पृश्नपर्णी सूक्त
    77

    परा॑च एना॒न्प्र णु॑द॒ कण्वा॑ञ्जीवित॒योप॑नान्। तमां॑सि॒ यत्र॒ गछ॑न्ति॒ तत्क्र॒व्यादो॑ अजीगमम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    परा॑च: । ए॒ना॒न् । प्र । नु॒द॒ । कण्वा॑न् । जी॒वि॒त॒ऽयोप॑नान् । तमां॑सि । यत्र॑ । गच्छ॑न्ति । तत् । क्र॒व्य॒ऽअद॑: । अ॒जी॒ग॒म॒म् ॥२५.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पराच एनान्प्र णुद कण्वाञ्जीवितयोपनान्। तमांसि यत्र गछन्ति तत्क्रव्यादो अजीगमम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    पराच: । एनान् । प्र । नुद । कण्वान् । जीवितऽयोपनान् । तमांसि । यत्र । गच्छन्ति । तत् । क्रव्यऽअद: । अजीगमम् ॥२५.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 25; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    शत्रुओं के नाश के लिये उपदेश।

    पदार्थ

    [हे परमेश्वर !] (एनान्) इन (जीवितयोपनान्) प्राणों के मोहनेवाले (कण्वान्) पापरोगों को (पराचः) ओंधे मुख (प्र णुद) ढकेल दे। (यत्र) जहाँ (तमांसि) अन्धकार (गच्छन्ति) व्याप्त रहते हैं, (तत्=तत्र) वहाँ (क्रव्यादः) माँस खानेवाले [रोगों] को (अजीगमम्) मैंने पहुँचा दिया है ॥५॥

    भावार्थ

    जैसे राजा महापापी दुराचारी पुरुष को बन्ध करके अन्धेरे करागार में डाल देता है, इसी प्रकार पुरुषार्थी पुरुष व्यायाम करने और पथ्य पदार्थों के सेवन से आलस्य, ज्वर आदि शारीरिक रोगों को मिटाकर अविद्यादि मानसिक रोगों का नाश करें ॥५॥

    टिप्पणी

    ५–पराचः। परा प्रातिलोम्ये, अनादरे, न्यग्भावे, तत्पूर्वाद् अञ्चु गतिपूजनयोः–क्विन्, शसि रूपम्। पराङ्मुखान्, विमुखान्। एनान्। समीपस्थान्। अस्माकं कुसंस्कारोत्पन्नान्। प्र+नुद। णुद प्रेरणे। प्रेरय। अपसारय। तमांसि। तमिर् खेदे, इच्छायाम्–असुन्। क्लेशहेतुकाः। अन्धकाराः। यत्र। यत् स्थानम्। गच्छन्ति। व्याप्नुवन्ति। तत्। निःसूर्यस्थानम्। क्रव्यादः। क्लव भये–यत्। रलयोरेकत्वात्। क्रव्ये च। पा० ३।२।६९। क्रव्योपदाद् अद भक्षणे–विट्। मांसभक्षकान् कुष्ठादिरोगान्। अजीगमम्। गमेर्ण्यन्तात् लुङि चङि रूपम्। अहं प्रेरितवानस्मि ॥

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    विषय

    अन्धकार में रोग

    पदार्थ

    १. हे पृश्निपणे! तू (जीवितयोपनान) = जीवन की व्याकुलता के कारणभूत (एनान्) = इन (कण्वान्) = रोगबीजों को (पराचः प्रणुद) = पराङ्मुख करके दूर कर दे। ये कण्व हमसे दूर होकर हमें नीरोग जीवन बिताने दें। २. (यत्र) = जहाँ (तमांसि गच्छन्ति) = अँधेरा जाता है, जिस स्थान पर अन्धकार-ही-अन्धकार होता है-सूर्यप्रकाश नहीं पहुँचता, (तत्) = उस (असूर्य) = स्थान में इन (क्रव्याद: मांस) = आदि शरीर-धातुओं के खा जानेवाले कुष्ठ आदि रोगों को (अजीगमम्) = प्राप्त कराता हूँ। ये रोग उसी स्थान में होते हैं जहाँ सूर्य-किरणों का प्रवेश नहीं होता।

    भावार्थ

    सूर्य प्रकाश में रहते हुए हम पृश्निपर्णी के प्रयोग से कुष्ठादि रोगों को दूर करें।

    विशेष

    यह सूक्त पृश्निपी ओषधि का वर्णन करता है। यह ओषधि रोगबीजों को नष्ट करके हमारे जीवनों को व्याकुलतारहित, शान्त व शोभावाला बनाती है। जीवन को सुन्दर बनाने के लिए ही गोदुग्ध सेवन का अधिक महत्त्व है। इसका ही वर्णन अलगे सूक्त में है। गोरस के प्रयोग से अपने में सोम आदि धातुओं का सवन करनेवाला 'सविता' ही अगले सूक्त का ऋषि है। यह सविता चाहता है कि

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    भाषार्थ

    (जीवितयोपनान्) जीवनापहारी ( एनान्) इन (कण्वान् ) कणसदृश सूक्ष्म रोगकीटाणुओं को ( पराच:) हमसे पराङ्मुख (प्रणुद) प्रेरित कर। (यत्र) जहां [सूर्योदय होने पर] (तमांसि गच्छन्ति) अन्धकार चले जाते हैं (तत् ) उस स्थान में (क्रव्यादः) मांसभक्षक रोगकीटाणु को [पृश्निपर्णी द्वारा] (अजीगमम्) मैंने भेज दिया है। मन्त्रोक्ति ओषधि प्रयोक्ता की है।

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    विषय

    पृश्निनपर्णी ओषधि का वर्णन।

    भावार्थ

    (एनान्) इन (जीवितयोपनान्) जीवन के संदेहजनक और (कण्वान्) जीवन के विनाशकारी कारणों को (पराचः) दूर (प्र णुद) भगादे। मैं भी (यत्र) जहां (तमांसि) अन्धकार (गच्छन्ति) रहते हैं (तत्) वहां (क्रव्यादः) कच्चा मांस खाने वाले हिंसक पशुओं के समान शरीर विनाशक रोगों को भी (अजीगमम्) भेज देता हूं ।

    टिप्पणी

    इस सूक्त में पृश्निपर्णी ओषधि के गुण दर्शाये हैं। पृश्निपर्णी के पृष्टिपर्णी, चित्रपर्णी, श्वपुच्छी, कलशी, धावनी, गुहा, शृगालविन्ना, शृगालपुच्छी, सिंहपुच्छी आदि नाम हैं। उसके गुण कटु, उष्ण, अम्ल, तिक्त, अतिसार, कास, वातरोग, ज्वर, उन्माद, व्रण, दाह इनको नाश करती है। अथवा पृश्निपर्णी, सहमाना, सहस्वती ये नाम ‘सहा’ नामक ओषधि के लिये हैं जिसको ‘जीमूतक’ भी कहते हैं इसके गुण-तिक्तोष्ण, कटु, पाण्डु, कुष्ठ, दुर्नाम, श्वास, कास, कामला आदि रोग और मूत्रग्रह का नाशक है।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    चातन ऋषिः । वनस्पतिर्देवता । पृश्निपर्णीस्तुतिः । १,३,५ अनुष्टुभः। ४ भुरिगनुष्टुप् । पञ्चर्चं सूक्तम् ॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Destruction of Anti-Life

    Meaning

    Throw out these life threatning, life consuming diseases, drive them out for all time. Where darkest of the darknesses proceed and abide, there have I driven the blood thirsty flesh eating diseases all, like carnivorous ogres.

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    Translation

    May you drive away these life-destroying germs. Where the darknesses go, there I send the flesh eating germs.

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    Translation

    Let this herb throw away these fatal diseases and I send these flash-eating diseases there where the heavy darkness prevails up.

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    Translation

    O God, drive Thou away these sins, the harassers of life. Whither the shades of darkness go, thither I send the diseases that feed on flesh. [1]

    Footnote

    [1] Foul diseases prevail in dark places, free from the light of the Sun. In the case of Prishniparni the medicine, कण्व will mean a disease.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ५–पराचः। परा प्रातिलोम्ये, अनादरे, न्यग्भावे, तत्पूर्वाद् अञ्चु गतिपूजनयोः–क्विन्, शसि रूपम्। पराङ्मुखान्, विमुखान्। एनान्। समीपस्थान्। अस्माकं कुसंस्कारोत्पन्नान्। प्र+नुद। णुद प्रेरणे। प्रेरय। अपसारय। तमांसि। तमिर् खेदे, इच्छायाम्–असुन्। क्लेशहेतुकाः। अन्धकाराः। यत्र। यत् स्थानम्। गच्छन्ति। व्याप्नुवन्ति। तत्। निःसूर्यस्थानम्। क्रव्यादः। क्लव भये–यत्। रलयोरेकत्वात्। क्रव्ये च। पा० ३।२।६९। क्रव्योपदाद् अद भक्षणे–विट्। मांसभक्षकान् कुष्ठादिरोगान्। अजीगमम्। गमेर्ण्यन्तात् लुङि चङि रूपम्। अहं प्रेरितवानस्मि ॥

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    बंगाली (2)

    भाषार्थ

    (জীবিতযোপনান্) জীবনাপহারী (এনান্) এই (কণ্বান্) কণাসদৃশ সূক্ষ্ম রোগ জীবাণুকে (পরাচঃ) আমাদের থেকে পরাঙ্মুখ/বিমুখ (প্রণুদ) প্রেরিত করো। (যত্র) যেখানে [সূর্যোদয় হলে] (তমাংসি গচ্ছন্তি) অন্ধকার চলে যায় (তত্‌) সেই স্থানে (ক্রব্যাদঃ) মাংসভক্ষক রোগ জীবাণুকে [পৃশ্নিপর্ণী দ্বারা] (অজীগমম্‌) আমি পাঠিয়ে দিয়েছি/প্রেরণ করেছি। মন্ত্রোক্তি ঔষধি প্রয়োগকর্তার।

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    मन्त्र विषय

    শত্রুনাশায়োপদেশঃ

    भाषार्थ

    [হে পরমেশ্বর !] (এনান্) এই (জীবিতযোপনান্) প্রাণের ব্যাকুলকারী (কণ্বান্) পাপরোগকে (পরাচঃ) পরাঙ্মুখী করে (প্র ণুদ) প্রেরণ/অপসারিত করো। (যত্র) যেখানে (তমাংসি) অন্ধকার (গচ্ছন্তি) ব্যাপ্ত থাকে, (তৎ=তত্র) সেখানে (ক্রব্যাদঃ) মাংস ভক্ষক [রোগ-সমূহকে] (অজীগমম্) আমি প্রেরিত করেছি ॥৫॥

    भावार्थ

    যেমন রাজা মহাপাপী দুরাচারী পুরুষকে বন্দী করে অন্ধকার কারাগারে পাঠিয়ে দেয়, এইভাবে পুরুষার্থী পুরুষ ব্যায়াম করার মাধ্যমে এবং পথ্য পদার্থের সেবনের মাধ্যমে আলস্য, জ্বর আদি শারীরিক রোগ প্রতিরোধ করে অবিদ্যাদি মানসিক রোগের নাশ করুক ॥৫॥

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