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अथर्ववेद के काण्ड - 2 के सूक्त 30 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 30/ मन्त्र 3
    ऋषिः - प्रजापतिः देवता - ओषधिः छन्दः - भुरिगनुष्टुप् सूक्तम् - कामिनीमनोऽभिमुखीकरण सूक्त
    75

    यत्सु॑प॒र्णा वि॑व॒क्षवो॑ अनमी॒वा वि॑व॒क्षवः॑। तत्र॑ मे गछता॒द्धवं॑ श॒ल्य इ॑व॒ कुल्म॑लं॒ यथा॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । सु॒ऽप॒र्णा: । वि॒व॒क्षव॑: । अ॒न॒मी॒वा: । वि॒व॒क्षव॑: । तत्र॑ । मे॒ । ग॒च्छ॒ता॒त् । हव॑म् । श॒ल्य:ऽइ॑व । कुल्म॑लम् । यथा॑ ॥३०.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यत्सुपर्णा विवक्षवो अनमीवा विवक्षवः। तत्र मे गछताद्धवं शल्य इव कुल्मलं यथा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । सुऽपर्णा: । विवक्षव: । अनमीवा: । विवक्षव: । तत्र । मे । गच्छतात् । हवम् । शल्य:ऽइव । कुल्मलम् । यथा ॥३०.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 30; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने के लिये उपदेश।

    पदार्थ

    (यत्=यत्र) जहाँ (सुपर्णाः) बड़ी पूर्त्तिवाले [अथवा गरुड़, गिद्ध, मोर आदि के समान दूरदर्शी पुरुष] (विवक्षवः) विविध प्रकार से राशि वा समूह करनेवाले और (अनमीवाः) रोगरहित स्वस्थ पुरुष (विवक्षवः) बोलनेवाले हों, (तत्र) उस स्थान में [वह वर वा कन्या] (मे) मेरी [वर व कन्या को] (हवम्) पुकार [विज्ञापन] को (गच्छतात्) पावे, (शल्यः इव) जैसे वाण की कील (यथा) जिस प्रकार (कुल्मलम्) अपने दण्डे में [पहुँचती है] ॥३॥

    भावार्थ

    जहाँ विद्वान् पुरुषों में रहकर वर ने और विदुषी स्त्रियों में रहकर कन्या ने विद्या और सुवर्णादि धन प्राप्त किये हों और नीरोग रहने और धर्म उपदेश करने की शिक्षा पायी हो, वहाँ पर उन दोनों के विवाह की बातचीत पहुँचे और ऐसी दृढ़ हो जावे जैसे वाण की कील, वाण की दण्डी में पक्की जम जाती है ॥३॥

    टिप्पणी

    ३–यत्। यत्र स्थाने। सुपर्णाः। अ० १।२४।१। सुपालनाः, सुपूरणाः। सुपतनशीला गरुडादयः पक्षिणो यथा। विवक्षवः। भृमृशीङ्०। उ० १।७। इति वि+वक्ष रोषसंहत्योः–उ। विविधं राशीकरणशीलाः, विद्यासुवर्णादीनाम्। अनमीवाः। अ० २।२९।६। रोगरहितः। स्वस्थाः। विवक्षवः। ब्रुवः सनि वच्यादेशे। सनाशंसभिक्ष उः। पा० ३।२।१६८। उ प्रत्ययः। वक्तुमिच्छवः। तत्र। तस्मिन् स्थाने। मे। मम। गच्छतात्। प्राप्नुयात् वरः कन्या वा। हवम्। अ० १।१५।२। ह्वेञ्–अप्। आवाहनम्। विज्ञापनम्। शल्यः। सानसिवर्णसिपर्णसि..... शल्याः। उ० ४।१०७। इति शल गतौ–य। वाणाग्रभागः। शस्त्रविशेषः। कुल्मलम्। कुषेर्लश्च। उ० ४।१८८। इति कुष निष्कर्षे, दीप्तौ क्मलन्। षस्य लः। कुष्मलम्। छेदनम्। वाणदण्डछिद्रम् ॥

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    विषय

    सुपर्ण व अनमीव

    पदार्थ

    १. (यत्) = जिस गृहस्थ को (सुपर्णा:) = उत्तमता से पालन व पूरण करनेवाले ही (विवक्षव:) = बहन करने की इच्छावाले होते हैं, जिसे (अनमीवा:) = नीरोग पुरुष ही (विवक्षवः) = वहन करने की कामना करते हैं, (तत्र) = उस गृहस्थ के विषय में (मे हवम्) = मेरी प्रार्थना (गच्छतात्) = जाए, अर्थात् मैं सुपर्ण और अनमीव बनकर ही गृहस्थ में जाने की कामना करूँ। गृहस्थ में जाने का अधिकार वस्तुतः सुपर्ण और अनमीव को ही हो। २. मैं गृहस्थ में इसप्रकार जाऊँ, (इव) = जैसे (शल्य:) = बाण की कील (यथा) = ठीक प्रकार से (कुल्मलम्) = बाणदण्ड पर जाती है। बाणदण्ड में गड़कर यह कील दण्ड से अग्रभाग को जोड़ती है। मेरा सुपर्णत्व व अनमीवत्व भी गृहस्थ-सम्बन्ध की दृढ़ता का कारण बने। ३. पति उत्तमता से पालन करनेवाला न हो तथा सदा अस्वस्थ रहता हो तो ये बातें सम्बन्ध की शिथिलता का कारण बनती हैं।

    भावार्थ

    मैं 'सुपर्ण व अनमीव' बनकर गृहस्थ को उत्तमता से चलानेवाला बनूं।

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    भाषार्थ

    (सुपर्णाः) उत्तम-पालन में समर्थ (विवक्षवः१) विवाह की इच्छावाले (अनमीवाः) रोगरहित अर्थात् स्वस्थ (विवक्षवः) विवाह की इच्छावाले, (यत्) जिस गृहस्थ में जाते हैं, (तत्र) उस गृहस्थ में (मे) मेरा (हवम्) आह्वान (गच्छतात्) पहुँचे, (इव) यथा (शल्यः) वाण का लोहाग्रभाग (कुल्मलम्) वाणदण्ड में पहुँचता है, [और वहाँ सुरक्षित तथा धारित हो जाता है।]

    टिप्पणी

    [हवम् =अर्थात् उस गृहस्थ के लिए मुझे आहूत किया जाए, गृहस्थ सम्बन्ध के लिए मुझे आमन्त्रित किया जाए। गृहस्थकर्म में मैं इस प्रकार रसुक्षित तथा धारित हूँगा, जैसेकि शल्य शल्यदण्ड में सुरक्षित और धारित हो जाता है। कुल्मलम् = कुड्मलम् =कुडि रक्षणे (चुरादिः)+ मल धारणे (भ्वादिः)। कुल्मलम् =कुड्मलम्, डलयोरभेदः।] [१. वि + वह् + सन् +उ+ प्रथमा बहुवचन । इसलिए ही विवक्षवः में 'उ' हुआ है । यथा "सनाशंसमिक्ष उ:" (अष्टा० ३।२।१६८)।]

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    विषय

    प्रेमपूर्वक स्वयंवर-विधान ।

    भावार्थ

    (यथा) जिस प्रकार (शल्यः) कांटा, तीक्ष्ण सुई (कुल्मलं) कोमल फूल की कली को वेध देती है उसी प्रकार (मे) मेरी (हवं) यह हार्दिक पुकार (तत्र) उस दिल पर (गच्छतात्) पड़े (यत्) जिसके विषय में (सुपर्णाः) संदेश लाने वाले उत्तम ज्ञानी पुरुष भी (विवक्षवः) मुझे संदेश बतलाना चाहते हैं और (अनमीवाः) नीरोग पुरुष भी (विवक्षवः) मुझे आरोग्यता आदि का संदेश दें । विवाहेच्छु कुमार विद्वान् संदेशहर और आरोग्यकारी वैद्यों का निर्णय प्राप्त करके अपने भावी गृहस्थ के लिये शुभाङ्गी स्त्री के प्रति अपनी अनुमति दे ।

    टिप्पणी

    (प्र०) ‘यः सु [ त्सु] पर्णा रक्षाणा [ १ ] वा न वक्षणा [ ? ] वा जा तानषितं (वा यत्रापितं) मनः शल्येवा गुल्मळं यथा। इति पैप्प० सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    प्रजापतिर्ऋषिः। अश्विनौ देवता। १ पथ्यापंक्तिः। ३ भुरिक् अनुष्टुभः। २, ४, ५ अनुष्टुभः । पञ्चर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    The Wedded Couple

    Meaning

    Where the golden birds fly cooing and calling for each other, there let my love’s call strike like a sting in the bud (the heart), and let them be released of the tension of affliction in freedom and fulfilment.

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    Subject

    Osadhi

    Translation

    Where the birds of charming wings chirp and sing, free from disease and sickness, there let my call reach her ears, as' arrow reaches the target.

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    Translation

    As the thorn pierces the soft bud so let do my word there the heart of the betrothed of which the good men become the messengers and the persons enjoying good health become desirous giving of good advices

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    Translation

    Where the nice-winged birds resort to chirping together; where disease- free persons go and discuss health problems, there may my fiancee accompany me on my call, just as the sharp edge of the arrow reaches its destination. [1]

    Footnote

    [1] Marriage should be performed in a healthy, beautiful place, where birds sing, and healthy persons converse on health. Just as an arrow goes straight to its target, so should the girl to the place of marriage, on the prayer of the Youngman.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३–यत्। यत्र स्थाने। सुपर्णाः। अ० १।२४।१। सुपालनाः, सुपूरणाः। सुपतनशीला गरुडादयः पक्षिणो यथा। विवक्षवः। भृमृशीङ्०। उ० १।७। इति वि+वक्ष रोषसंहत्योः–उ। विविधं राशीकरणशीलाः, विद्यासुवर्णादीनाम्। अनमीवाः। अ० २।२९।६। रोगरहितः। स्वस्थाः। विवक्षवः। ब्रुवः सनि वच्यादेशे। सनाशंसभिक्ष उः। पा० ३।२।१६८। उ प्रत्ययः। वक्तुमिच्छवः। तत्र। तस्मिन् स्थाने। मे। मम। गच्छतात्। प्राप्नुयात् वरः कन्या वा। हवम्। अ० १।१५।२। ह्वेञ्–अप्। आवाहनम्। विज्ञापनम्। शल्यः। सानसिवर्णसिपर्णसि..... शल्याः। उ० ४।१०७। इति शल गतौ–य। वाणाग्रभागः। शस्त्रविशेषः। कुल्मलम्। कुषेर्लश्च। उ० ४।१८८। इति कुष निष्कर्षे, दीप्तौ क्मलन्। षस्य लः। कुष्मलम्। छेदनम्। वाणदण्डछिद्रम् ॥

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    बंगाली (2)

    भाषार्थ

    (সুপর্ণাঃ) উত্তম-পালনে সমর্থ (বিবক্ষবঃ১) বিবাহের অভিলাষী (অনমীবাঃ) রোগরহিত অর্থাৎ সুস্থ (বিবক্ষবঃ) বিবাহের অভিলাষী, (যৎ) যে গৃহস্থে যায়, (তত্র) সেই গৃহস্থে (মে) আমার (হবম্) আহ্বান (গচ্ছতাৎ) পৌঁছে যাক, (ইব) যথা (শল্যঃ) বাণের লোহাগ্রভাগ (কুল্মলম্) বাণদণ্ডে পৌঁছায়, [এবং সেখানে সুরক্ষিত ও ধারিত হয়ে যায়।]

    टिप्पणी

    [হবম= অর্থাৎ সেই গৃহস্থের জন্য আমাকে আহূত করা হোক, গৃহস্থ সম্বন্ধের জন্য আমাকে আমন্ত্রিত করা হোক। গৃহস্থ কর্মে আমি এমনভাবে সুরক্ষিত ও ধারিত হব, যেমনটা শল্য শল্যদণ্ডে সুরক্ষিত ও ধারিত হয়ে যায়। কুল্মলম্ = কুড্মলম্ =কুডি রক্ষণে (চুরাদিঃ)+ মল ধারণে (ভ্বাদিঃ)। কুল্মলম্= কুড্মলম্, ডলয়োরভেদঃ।] [১. বি+বহ + সন্+-উ+ প্রথমা বহুবচন । এজন্যই বিবক্ষবঃ তে 'উ' হয়েছে। যথা "সনাশংসভিক্ষ উঃ" (অষ্টা০ ৩।২।১৬৮) ।]

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    मन्त्र विषय

    গৃহস্থাশ্রমপ্রবেশায়োপদেশঃ

    भाषार्थ

    (যৎ=যত্র) যেখানে (সুপর্ণাঃ) বড়ো পূর্ত্তিবিশিষ্ট [অথবা গরুড়, বাজ, ময়ূর আদির সমান দূরদর্শী পুরুষ] (বিবক্ষবঃ) বিবিধ প্রকারে রাশি বা সমূহকারী এবং (অনমীবাঃ) রোগরহিত সুস্থ পুরুষ (বিবক্ষবঃ) বিবৃতিকারী হয়, (তত্র) সেই স্থানে [সেই বর বা কন্যা] (মে) আমার [বর এবং কন্যাকে] (হবম্) আহ্বান [বিজ্ঞাপন] (গচ্ছতাৎ) প্রাপ্ত করুক, (শল্যঃ ইব) যেমন বাণের কণ্টক/অগ্রভাগ (যথা) যেভাবে (কুল্মলম্) নিজের দণ্ডে [পৌঁছায়] ॥৩॥

    भावार्थ

    যেখানে বিদ্বান্ পুরুষদের মধ্যে থেকে বর ও বিদুষী নারীদের মধ্যে থেকে কন্যা বিদ্যা, সুবর্ণাদি ধন প্রাপ্ত করেছে এবং নীরোগ থাকার ও ধর্ম উপদেশ করার শিক্ষা প্রাপ্ত করেছে, সেখানে সেই দুজনের বিবাহের সংবাদ প্রেরিত হোক এবং এমন দৃঢ় হয়ে যাক যেমন বাণের কণ্টক, বাণ/তীর দণ্ডীতে/লক্ষ্যে উত্তমরূপে স্থিত হয় ॥৩॥

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