अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 30/ मन्त्र 4
ऋषिः - प्रजापतिः
देवता - ओषधिः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - कामिनीमनोऽभिमुखीकरण सूक्त
82
यदन्त॑रं॒ तद्बाह्यं॒ यद्बाह्यं॒ तदन्त॑रम्। क॒न्या॑नां वि॒श्वरू॑पाणां॒ मनो॑ गृभायौषधे ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । अन्त॑रम् । तत् । बाह्य॑म् । यत् । बाह्य॑म् । तत् । अन्त॑रम् । क॒न्या᳡नाम् । वि॒श्वऽरू॑पाणाम् । मन॑: । गृ॒भा॒य॒ । ओ॒ष॒धे॒ ॥३०.४॥
स्वर रहित मन्त्र
यदन्तरं तद्बाह्यं यद्बाह्यं तदन्तरम्। कन्यानां विश्वरूपाणां मनो गृभायौषधे ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । अन्तरम् । तत् । बाह्यम् । यत् । बाह्यम् । तत् । अन्तरम् । कन्यानाम् । विश्वऽरूपाणाम् । मन: । गृभाय । ओषधे ॥३०.४॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने के लिये उपदेश।
पदार्थ
[हे वर ! (यत्) जो कुछ प्रीतिभाव आदि] (अन्तरम्) भीतर [तेरे हृदय में] है, (तत्) वह (बाह्यम्) बाहिर [कन्या को प्रकट] हो और (यत्) जो कुछ [प्रीतिभाव] (बाह्यम्) बाहिर [प्रकट किया जाय,] (तत्) वह (अन्तरम्) भीतर [कन्या के हृदय में स्थिर हो] (ओषधे) हे तापनाशक [ओषधिरूप वर] (विश्वरूपाणाम्) सर्वसुन्दरी (कन्यानाम्) कन्याओं [कन्या] के (मनः) मन को (गृभाय) ग्रहण कर ॥४॥
भावार्थ
वर हार्दिक प्रीति से कन्या के साथ व्यवहार करे और पत्नी भी पति से हार्दिक प्रीति रक्खे। इस प्रकार परस्पर प्रसन्नता से गृहलक्ष्मी बढ़ेगी और नित्यप्रति आनन्द रहेगा। (कन्यानाम्) बहुवचन एक के लिये आदरार्थ है और मन्त्र में जो वर को उपदेश है, वही कन्या के लिये भी समझना चाहिये ॥४॥
टिप्पणी
४–यत्। किञ्चित्, प्रीतिभावः। शुभविचारः। अन्तरम्। अन्त+रा–क। अन्तं राति ददाति। मध्यम्। अन्तर्धानम्। आत्मीयम्। बाह्यम्। दित्यदित्यादित्य०। पा० ४।१।८५। अत्र वार्त्तिकम्। बहिषष्टिलोपो यञ् च। इति बहिस्–यञ्, टिलोपश्च। बहिष्ठम्। प्रकटम्। कन्यानाम्। अघ्न्यादयश्च। उ० ४।११२। इति कनी दीप्तिकान्तिगतिषु–यच्, टाप् च। आदरार्थं बहुवचनम्। दीप्यमानायाः। कमनीयायाः। कुमार्याः। विश्वरूपाणाम्। सर्वाङ्गसुन्दरीणाम्। मनः। चित्तम्। गृभाय। छन्दसि शायजपि। पा० ३।१।८४। इति ग्रहे लोटि श्नः शायजादेशः। हस्य भः। गृहाण। ओषधे। अ० १।२३।१। हे तापनाशक। ओषधिरूपवर ॥
विषय
जो अन्दर वही बाहर [निश्छलता]
पदार्थ
१. पति पत्नी के हृदय पर तभी काबू पा सकता है जब पत्नी को यह विश्वास हो जाए कि पति उससे किसी प्रकार का छिपाव नहीं रख रहे । मन्त्र में कहा है कि (ओषधे) = अपने दोषों का दहन करनेवाले पुरुष ! तू जीवन का यह सूत्र बना कि (यत् अन्तरम्) = जो अन्दर है (तत् बाहाम्) = वहीं बाहर हो, (यत् बाहाम्) = जो बाहर हो (तत् अन्तरम्) = वही अन्दर हो। तेरा अन्दर व बाहर एक हो-किसी प्रकार का छल-छिद्र व छिपाव न हो। २. ऐसा करने पर (विश्वरूपाणाम्) = भिन्न-भिन्न रूपोंवाली, अर्थात् भिन्न-भिन्न प्रकार के स्वभाव व रुचियोंवाली सभी (कन्यानाम्) = कन्याओं के (मनः गृभाय) = मन को तू ग्रहण करनेवाला हो। पत्नी का कैसा भी स्वभाव हो, परन्तु उसे यह विश्वास हो कि पति उससे किसी प्रकार का छिपाव नहीं रखते तो वह उनके प्रति अनन्य भाव से प्रेमवाली रहती है। पति के लिए इससे अधिक शान्ति देनेवाली और कोई बात नहीं हो सकती।
भावार्थ
पति पत्नी से किसी प्रकार का छिपाव न रखकर उसके हृदय को जीत लेता है।
भाषार्थ
कन्याओं के (अन्तरम्) मनों में (यद्) जो होता है ( तद् ) वह (बाह्यम्) बाहर के कमों में प्रकट होता है और जो (बाह्यम्) बाहर के कर्मों में होता है ( तद्) वह ( अन्तरम्) उनके मनों में होता है, अर्थात् कन्याएँ छल-कपट से रहित होती हैं । (ओषधे) हे ओषधि ! (विश्वरूपाणाम्) नानारूपोंबाली या विश्व में रूपवती कन्याओं के ( मन:) मन को (गृभाय) वश में कर।
टिप्पणी
[गृभाय=गृहाण। ग्रह+शायच् । ओषधि-सेवन द्वारा मन को परवश किया जा सकता है। सात्त्विक, राजस, और तमोगुणी अन्नों के सेवन से मन की वृत्तियाँ सत्त्वगुणी, रजोगुणी तथा तमोगुणी हो जाती हैं। भिन्न-भिन्न अन्न, भिन्न-भिन्न ओषधिरुप ही हैं। इसीलिए कहा है कि "रजस्तमो मोपगा मा प्रमेष्ठाः" (अथर्व० ८।२।१)।]
विषय
प्रेमपूर्वक स्वयंवर-विधान ।
भावार्थ
(विश्वरूपाणां) सब प्रकार से सब अङ्गों में रूपवती, सुसंगठित, उत्तम, अनवद्य, अनिन्दित शरीरवाली, शुभांगी (कन्यानां) कन्याओं के (यद् अन्तरं) जो भीतर चित्त में होता है (तद् बाह्यं) वही उनके बाहर वाणी में भी होता है और (यद् बाह्यं) जो वे बाहर वाणी से प्रकट करती हैं (तद् अन्तरं) वही वे हृदय में चिन्तन किया करती हैं। हे (ओषधे) अन्न आदि पुष्टिकारक पदार्थ ! तू प्रेमपूर्वक खाया जाकर (मनः) कन्या या वरण योग्य कुमारी के चित्त को (गृभाय) ग्रहण कर। अर्थात् विवाह के अवसर पर वर वधू परस्पर अन्न खाकर बाह्य के वचन और भीतरी हृदय को एक करलें और प्रेम से रहें । सर्वाङ्गों में शुभ कन्याएं बड़ी सदाचारिणी और सत्यवादिनी होती हैं। जो दुराचारिणी और असत्यवादिनी होती हैं उनके शरीरों की रचना में बहुत दोष होते हैं यह लक्षणवेत्ताओं का अनुभव है। “ओं अन्नपाशेंन मणिना प्राणसूत्रेण पृश्निना । बध्नामि सत्यग्रन्थिना मनश्च हृदयं च ते।” यह मन्त्रब्राह्मण का वचन विवाह की उत्तर विधि में पढ़ा जाता है इससे वर अपने खाये अन्न का शेप वधू को खिलाता है।
टिप्पणी
‘यदन्तरं तद् बाह्यं’ इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्रजापतिर्ऋषिः। अश्विनौ देवता। १ पथ्यापंक्तिः। ३ भुरिक् अनुष्टुभः। २, ४, ५ अनुष्टुभः । पञ्चर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
The Wedded Couple
Meaning
What is inside in the heart is out on the surface. Whatever is out is deep at the heart core. When it is so, O nature’s sanative of affliction (oshadhi), grab the mind of the maidens, they are blest with universal beauty, love and expression.
Translation
Whatever is inside, let the same be outside, and whatever is outside, let the same be inside (the internal thinking in unison with external expressions). O medicinal herb, may you capture the hearts of all the beautiful maidens.
Translation
What is inward (in the form of female organ) is outward (in the form of male organ) and what is outward is inward. Let the plant seize the mind of the marriageable girls Possessed of all beauties and charms.
Translation
Let the love thou cherishest in the heart, be displayed outside. Let the love thou showest outside, he installed in the heart. O bridegroom, service-able like a medicine, attract the mind of beautiful, well-built girls. [1]
Footnote
[1] Here ‘girls’, the plural has been used for a girl, to show respect and regard.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
४–यत्। किञ्चित्, प्रीतिभावः। शुभविचारः। अन्तरम्। अन्त+रा–क। अन्तं राति ददाति। मध्यम्। अन्तर्धानम्। आत्मीयम्। बाह्यम्। दित्यदित्यादित्य०। पा० ४।१।८५। अत्र वार्त्तिकम्। बहिषष्टिलोपो यञ् च। इति बहिस्–यञ्, टिलोपश्च। बहिष्ठम्। प्रकटम्। कन्यानाम्। अघ्न्यादयश्च। उ० ४।११२। इति कनी दीप्तिकान्तिगतिषु–यच्, टाप् च। आदरार्थं बहुवचनम्। दीप्यमानायाः। कमनीयायाः। कुमार्याः। विश्वरूपाणाम्। सर्वाङ्गसुन्दरीणाम्। मनः। चित्तम्। गृभाय। छन्दसि शायजपि। पा० ३।१।८४। इति ग्रहे लोटि श्नः शायजादेशः। हस्य भः। गृहाण। ओषधे। अ० १।२३।१। हे तापनाशक। ओषधिरूपवर ॥
बंगाली (2)
भाषार्थ
কন্যাদের (অন্তরম্) মনের মধ্যে (যদ্) যা হয় (তদ্) তা (বাহ্য) বাহ্যিক কর্মের মাধ্যমে প্রকট হয় এবং যা (বাহ্যম্) বাহ্যিক কর্মে হয় (তদ্) তা (অন্তরম্) তাঁদের মনের মধ্যে থাকে, অর্থাৎ কন্যারা ছল-কপট রহিত হয়। (ঔষধে) হে ঔষধি ! (বিশ্বরূপাণাম্) নানারূপবিশিষ্ট বা (বিশ্বরূপাণাম্ কন্যানাম্) বিশ্বে রূপবতী কন্যাদের (মনঃ) মনকে (গৃভায়) বশবর্তী করো।
टिप्पणी
[গৃভায়= গৃহাণ। গ্রহ+শায়চ্। ঔষধি-সেবন দ্বারা মনকে পরবশ করা যেতে পারে। সাত্ত্বিক, রাজস, এবং তমোগুণী অন্নের সেবনের মাধ্যমে মনের বৃত্তিসমূহ সত্ত্বগুণী, রজোগুণী এবং তমোগুণী হয়ে যায়। ভিন্ন-ভিন্ন অন্ন, ভিন্ন-ভিন্ন ঔষধিরূপ। এজন্যই বলা হয়েছে যে "রজস্তমো মোপগা মা প্রমেষ্ঠাঃ ” (অথর্ব০ ৮।২।১)।]
मन्त्र विषय
গৃহস্থাশ্রমপ্রবেশায়োপদেশঃ
भाषार्थ
[হে বর ! (যৎ) যা কিছু প্রীতিভাব আদি] (অন্তরম্) অন্তরে [তোমার হৃদয়ে] আছে, (তৎ) তা (বাহ্যম্) বাইরে [কন্যার কাছে প্রকট] হোক এবং (যৎ) যা কিছু [প্রীতিভাব] (বাহ্যম্) বাইরে [প্রকট করা হয়,] (তৎ) তা (অন্তরম্) অন্তরে [কন্যার হৃদয়ে স্থির হোক] (ওষধে) হে তাপনাশক [ঔষধিরূপ বর] (বিশ্বরূপাণাম্) সর্বসুন্দরী (কন্যানাম্) কন্যাদের [কন্যার] (মনঃ) মনকে (গৃভায়) গ্রহণ করো ॥৪॥
भावार्थ
বর হার্দিক প্রীতিতে কন্যার সাথে ব্যবহার/আচরণ করুক এবং পত্নীও পতির সাথে হার্দিক প্রীতি করুক। এইভাবে পরস্পর প্রসন্নতাপূর্বক গৃহলক্ষ্মী বৃদ্ধি হবে এবং নিত্যপ্রতি আনন্দ থাকবে। (কন্যানাম্) বহুবচন একজনের জন্য আদরার্থে এবং মন্ত্রে যে বরকে উপদেশ আছে, তা কন্যার জন্যও বোঝা উচিৎ ॥৪॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
Misc Websites, Smt. Premlata Agarwal & Sri Ashish Joshi
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
Sri Amit Upadhyay
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
Sri Dharampal Arya
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal