अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 33/ मन्त्र 3
ऋषिः - ब्रह्मा
देवता - यक्षविबर्हणम्,(पृथक्करणम्) चन्द्रमाः, आयुष्यम्
छन्दः - ककुम्मत्यनुष्टुप्
सूक्तम् - यक्षविबर्हण
72
हृद॑यात्ते॒ परि॑ क्लो॒म्नो हली॑क्ष्णात्पा॒र्श्वाभ्या॑म्। यक्ष्मं॒ मत॑स्नाभ्यां प्ली॒ह्नो य॒क्नस्ते॒ वि वृ॑हामसि ॥
स्वर सहित पद पाठहृद॑यात् । ते॒ । परि॑ । क्लो॒म्न: । हली॑क्ष्णात् । पा॒र्श्वाभ्या॑म् । यक्ष्म॑म् । मत॑स्नाभ्याम् । प्ली॒ह्न: । य॒क्न: । ते॒ । वि । वृ॒हा॒म॒सि॒ ॥३३.३॥
स्वर रहित मन्त्र
हृदयात्ते परि क्लोम्नो हलीक्ष्णात्पार्श्वाभ्याम्। यक्ष्मं मतस्नाभ्यां प्लीह्नो यक्नस्ते वि वृहामसि ॥
स्वर रहित पद पाठहृदयात् । ते । परि । क्लोम्न: । हलीक्ष्णात् । पार्श्वाभ्याम् । यक्ष्मम् । मतस्नाभ्याम् । प्लीह्न: । यक्न: । ते । वि । वृहामसि ॥३३.३॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
शारीरिक विषय में शरीररक्षा।
पदार्थ
(ते) तेरे (हृदयात्) हृदय से, (क्लोम्नः) फेफड़े से, (हलीक्ष्णात्) पित्ते से, (पार्श्वाभ्याम् परि) दोनों काँखों [कक्षाओं वा बग़लों] से और (ते) तेरे (मतस्नाभ्याम्) दोनों मतस्नों [गुर्दों] से, (प्लीह्नः) प्लीहा, वा पिलई [तिल्ली] से और (यक्नः) यकृत् [काल खण्ड वा जिगर] से (यक्ष्मम्) क्षयी रोग को (वि वृहामसि=०–मः) हम उखाड़े देते हैं ॥३॥
भावार्थ
इस मन्त्र में कन्धों के नीचे के अवयवों का वर्णन है। भावार्थ मन्त्र १ के समान है ॥३॥
टिप्पणी
३–हृदयात्। अ० २।२९।६। वक्षःस्थमांसपिण्डात्। हृदयलक्षणं, यथा। शोणितकफप्रसादजं हृदयं तदाश्रया हि धमन्यः प्राणवहाः। तस्याधोवामतः प्लीहा फुस्फुसश्च दक्षिणतो यकृत् क्लोम च। इति शब्दकल्पद्रुमे सुश्रुतात्। क्लोम्नः। क्लुङ् गतौ मनिन्। फुफ्फुसात्। बाह्वोर्द्वयोर्मध्ये वक्षः, तन्मध्ये हृदयं तत्पार्श्वे क्लोम पिपासास्थानम्। इति श० क० द्रुमे। हलीक्ष्णात्। अवितॄस्तृतन्त्रिभ्य ईः। इति हल विलेखे–ई। क्ष्णु तेजने–ड। हलीं विलेखं क्ष्णौति तेजतीति। मांसपिण्डविशेषात् पित्तात्। पार्श्वाभ्याम्। स्पृशेः श्वण्शुनौ पृ च। उ० ५।२७। इति स्पृश–श्वण् पृ आदेशश्च। कक्षयोरधोभागाभ्याम्। मतस्नाभ्याम्। मत+ष्णिह स्नेहने–ड। मतं ज्ञानं स्नेहयतीति मतस्नम्। उभयपार्श्वसंबन्धाभ्यां वृक्काभ्यां तत्समीपस्थपित्ताधारपात्राभ्यां वा–इति सायणः। ग्रीवाधस्ताद् भागस्थितहृदयोभयपार्श्वस्थे अस्थिनी मतस्ने ताभ्याम् इति महीधरः, शुक्लयजु० २५।८। प्लीह्नः। श्वन्नुक्षन्पूषन्प्लीहन्०। उ० १।१५९। इति प्लिहङ् गतौ–कनिन्। कुक्षिवामपार्श्वस्थमांसखण्डात्। यक्नः। शकेर्ऋतिन्। उ० ४।५८। इति यज देवपूजासङ्गतिकरणदानेषु–ऋतिन्। जस्य कः। यजति संगच्छते यकृत्। पद्दन्नः०। पा० ६।१।६३ इति यकन् आदेशः। कुक्षेर्दक्षिणभागस्थमांसखण्डात्। कालखण्डात्। अन्यद् गतम् ॥
पदार्थ
१. हे रुग्ण! (ते) = तेरे (हृदयात्) = हदयपुण्डरीक से, (परिक्लोम्न:) = हृदय के समीपस्थ फेफड़े से, - (हलीक्ष्णात्)= पित्ताशय से, (पाश्र्वाभ्याम्) = दोनों कोखों से-पावियवों से (यक्ष्मम) = रोग को (विवृहामसि) = पृथक् करते हैं। २. (ते) = तेरे (मतस्नाभ्याम्) = गुदों से (प्लीह्नः) = तिल्ली से और (यक्र:) = जिगर से रोग को दूर करते हैं।
भावार्थ
हृदयादि प्रदेशों से रोग का उन्मूलन किया जाए।
भाषार्थ
(ते ) तेरे (हृदयात् ) हृदय से, (परिक्लोम्नः) क्लोम से, (हलीक्षणात्) हलीक्ष्ण से, (पार्श्वाभ्याम्, मतस्नाभ्याम्) पार्श्ववर्ती दो मतस्नाओं से, (प्लीह्नः) तिल्ली से, (यक्नः) यकृत् से (यक्ष्मम् ) यक्ष्मरोग को (वि वृहामसि) हम [वैद्य ] निकालते हैं।
टिप्पणी
[क्लोमा= फेफड़ा। हलीक्ष्ण= सम्भवतः Duodenum, जोकि आमाशय से निकल कर लगभग १० इञ्च तक लम्बा अङ्ग होता है, इसमें पाचनक्रिया भी होती है। दो मतस्न हैं, दो वृक्को, दो गुर्दे, जोकि पीठ में कटिभाग के ऊर्ध्व प्रदेश में स्थित हैं जिनमें मूत्र निर्माण होता है। ये मदकारी मूत्र को निकालकर शरीर का शोधन करते रहते हैं "क्ष्णा शोचे" (अदादिः)। यकृत् है liver (पित्तस्रावी) जोकि शरीर के दक्षिण भाग में स्थित होता है, से घिरा हुआ मैं हूँ। अतः न मुझे प्राप्त हुई हैं इषुएं जोकि मानुषी हैं; तथा न चलाई गई इषुएँ मुझे प्राप्त हुई हैं, जोकि देवों द्वारा चलाई गई हैं, मेरे वध के लिये। मन्त्र में कश्यप की ज्योति तथा वर्चस् अर्थात् दीप्ति का वर्णन है। यह ही कश्यप का "वीवर्हण" है, छेदक अस्त्र है। अतः कश्यप अर्थात् सूर्य की प्रकाशमयी तथा तेजस्वी रश्मिसमूह का वर्णन मन्त्र में हुआ है। इसके सेवन से मनुष्य दैवी तथा मानुषी वधों से बचा रहता है। सायणाचार्य ने "वीवर्हण" द्वारा "कश्यपस्य महर्षेः विवर्ह सूक्तम्" अर्थ किया है, जोकि त्वचस्य यक्षम" की निवृत्ति नहीं कर सकता। पर सूर्य की ज्योति तथा दीप्ति डालने से "त्वचस्य यक्ष्म" निवृत्त हो सकता है। दैवी: इषव:= अति सर्दी, अति गर्मी, अति वर्षा और रोग आदि। यक्षम= शारीरिक रोग तथा लोमों अर्थात् सिर के बालों, मोंछ, दाढ़ी और भौंओं के शीघ्र पलित हो जाने अर्थात् सफेद हो जाने और झड़ जाने को "यक्ष्म" कहा है। यक्ष्म पद किसी भी प्रकार की हुई क्षीणता का निर्देशक है।]
विषय
देह के अङ्गों से रोग नाश करने का उपदेश ।
भावार्थ
(ते हृदयात्) तेरे हृदय से, (क्लोम्नः) हृदय के समीप के फेंफड़े से, (हलीक्ष्णात्) पित्तोत्पादक अंग से, (पार्श्वभ्यां मतस्नाभ्यां) दोनों पासों पर लगे गुर्दों से, (प्लीह्नः) पिलही से और (ते यक्नः) तेरे यकृत् अर्थात् कलेजे से हम (यक्ष्मं वि वृहामसि) रोग को दूर करते हैं ।
टिप्पणी
‘क्लोम्नस्ते हृदयाभ्यो हलीक्ष्णात्’ इति पैप्प० सं०। ‘वनिष्ठोर्हृदयादधि’, ‘यक्ष्मं मत्स्त्राभ्यां यक्नः प्लाशिभ्यो वि वृहामि ते’ इति पाठभेदौ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मा ऋषिः। यक्ष्मविवर्हणं चन्द्रमा वा देवता। आयुष्यं सूक्तम्। १, २ अनुष्टुभौ । ३ ककुम्मती। ४ चतुष्पदा भुरिग् उष्णिक्। ५ उपरिष्टाद् विराड् बृहती। ६ उष्णिग् गर्भा निचृदनुष्टुप्। ७ पथ्या पंङ्क्तिः। सप्तर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Uprooting the Cancerous
Meaning
I remove and uproot the consumptive, cancerous disease from your heart, lungs, gall bladder, sides, kidneys, spleen and liver.
Translation
Out of your heart (hrdaya),out of your right lungs, (kloma) out of your intestine (halīksņā),out of your two sides (parsva), out of your two kidneys (matasnā),out of your spleen (pitha) and out of your liver (yakna), I pluck off your wasting disease.
Translation
I eradicate consumption from your heart, from your lungs from your gall-blader, from your sides, from your kidneys, from your spleen and from your liver.
Translation
Forth from thy heart and from thy lungs, from thy gall-bladder and thy sides; from kidneys, spleen and liver thy consumption we eradicate. [1]
Footnote
[1] Thy refers to a patient.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
बंगाली (2)
भाषार्थ
(তে) তোমার (হৃদয়াৎ) হৃদয় থেকে, (পরিক্লোম্নঃ) ক্লোম থেকে, (হলীক্ষ্ণাৎ) হলীক্ষ্ণ থেকে, (পার্শ্বাভ্যাম্, মতস্নাভ্যাম্) পার্শ্ববর্তী দুই বৃক্ক থেকে, (প্লীহ্নঃ) প্লীহা থেকে, (যক্নঃ) যকৃৎ থেকে (যক্ষ্মং) যক্ষ্মা রোগকে (বি বৃহামসি) আমরা [বৈদ্য] নিষ্কাশিত করি।
टिप्पणी
[ক্লোমা= ফুসফুস। হলীক্ষ্ণ=সম্ভবতঃ Duodenum, যা অগ্নাশয় থেকে নির্গত প্রায় ১০ ইঞ্চি পর্যন্ত লম্বা অঙ্গ, এর মধ্যে পাচন ক্রিয়াও হয়। দুটি বৃক্ক, যা পীঠের কটিভাগের ঊর্ধ্বপ্রদেশে স্থিত, যার মধ্যে মূত্র-নির্মাণ হয়। ইহা মদকারী মূত্রকে বের করে শরীরের শোধন করতে থাকে "ক্ষ্ণা শৌচে" (অদাদিঃ)। যকৃত হল liver (পিত্তস্রাবী) যা শরীরের দক্ষিণ ভাগে স্থিত, এর দ্বারা আমি বেষ্টিত রয়েছি। অতঃ না আমাকে প্রাপ্ত হয়েছে নিক্ষিপ্ত তির; তথা অনিক্ষিপ্ত তীর আমাকে প্রাপ্ত হয়েছে, যা দেবগণের দ্বারা নিক্ষিপ্ত হয়েছে, আমার বধের জন্য। মন্ত্রে কশ্যপ-এর জ্যোতি এবং বর্চস্ অর্থাৎ দীপ্তি-এর বর্ণনা হয়েছে। এটাই কশ্যপের "বীবর্হণ", ছেদক অস্ত্র। অতঃ কশ্যপ অর্থাৎ সূর্যের প্রকাশময়ী ও তেজস্বী রশ্মিসমূহ এর বর্ণনা মন্ত্রে হয়েছে। ইহার সেবনে মনুষ্য দৈবিক ও মানুষিক বধ থেকে রক্ষা পায়। সায়ণাচার্য "বিবর্হণ" দ্বারা "কশ্যপস্য মহর্ষেঃ বিবর্হ সূক্তম্" অর্থ করেছে, যা 'ত্বচস্য যক্ষ্ম" এর নিবৃত্তি করতে পারে না। কিন্তু সূর্যের জ্যোতি এবং দীপ্তি প্রয়োগ হলে "ত্বচস্য যক্ষ্ম" নিবৃত্ত হতে পারে। দৈবীঃ ইষবঃ = অতি ঠাণ্ডা, অতি গরম, অতি বর্ষা এবং রোগ আদি । যক্ষ্ম= শারীরিক রোগ এবং লোম অর্থাৎ মাথার চুল, গোঁফ, দাড়ি ও ভ্রূ-এর শীঘ্র পতিত হয়ে যাওয়া অর্থাৎ সাদা হয়ে যাওয়া এবং ঝরে যাওয়াকে "যক্ষ্ম" বলা হয়েছে। যক্ষ্মা পদ কোনো প্রকারের হওয়া ক্ষীণতা এর নির্দেশক।]
मन्त्र विषय
শারীরিকবিষয়ে শরীররক্ষা
भाषार्थ
(তে) তোমার (হৃদয়াৎ) হৃদয় থেকে, (ক্লোম্নঃ) ফুসফুস থেকে, (হলীক্ষ্ণাৎ) পিত্ত থেকে, (পার্শ্বাভ্যাম্ পরি) দুই কুক্ষি [কক্ষা বা বগল থেকে] এবং (তে) তোমার (মতস্নাভ্যাম্) দুই মতস্ন [বৃক্ক] থেকে, (প্লীহ্নঃ) প্লীহা থেকে এবং (যক্নঃ) যকৃৎ থেকে (যক্ষ্মম্) ক্ষয়ী রোগকে (বি বৃহামসি=০–মঃ) আমি পৃথক/উৎপাটিত করি ॥৩॥
भावार्थ
এই মন্ত্রে কাঁধের নীচের অবয়বের বর্ণনা হয়েছে। ভাবার্থ মন্ত্র ১ এর সমান॥৩॥
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