अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 33/ मन्त्र 7
ऋषिः - ब्रह्मा
देवता - यक्षविबर्हणम्(पृथक्करणम्) चन्द्रमाः, आयुष्यम्
छन्दः - पथ्यापङ्क्तिः
सूक्तम् - यक्षविबर्हण
70
अङ्गेअ॑ङ्गे॒ लोम्नि॑लोम्नि॒ यस्ते॒ पर्व॑णिपर्वणि। यक्ष्मं॑ त्वच॒स्यं॑ ते व॒यं क॒श्यप॑स्य वीब॒र्हेण॒ विष्व॑ञ्चं॒ वि वृ॑हामसि ॥
स्वर सहित पद पाठअङ्गे॑ऽअङ्गे । लोम्नि॑ऽलोम्नि । य: । ते॒ । पर्व॑णिऽपर्वणि । यक्ष्म॑म् । त्व॒च॒स्य᳡म् । ते॒ । व॒यम् । क॒श्यप॑स्य । वि॒ऽब॒र्हेण॑ । विष्व॑ञ्चम् । वि । वृ॒हा॒म॒सि॒ ॥३३.७॥
स्वर रहित मन्त्र
अङ्गेअङ्गे लोम्निलोम्नि यस्ते पर्वणिपर्वणि। यक्ष्मं त्वचस्यं ते वयं कश्यपस्य वीबर्हेण विष्वञ्चं वि वृहामसि ॥
स्वर रहित पद पाठअङ्गेऽअङ्गे । लोम्निऽलोम्नि । य: । ते । पर्वणिऽपर्वणि । यक्ष्मम् । त्वचस्यम् । ते । वयम् । कश्यपस्य । विऽबर्हेण । विष्वञ्चम् । वि । वृहामसि ॥३३.७॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
शारीरिक विषय में शरीररक्षा।
पदार्थ
(यः) जो [क्षयी रोग] (ते) तेरे (अङ्गे-अङ्गे) अङ्ग-अङ्ग में, (लोम्नि–लोम्नि) रोम-रोम में (पर्वणि–पर्वणि) गाँठ-गाँठ में है। (वयम्) हम (ते) तेरे (त्वचस्यम्) त्वचा के और (विष्वञ्चम्) सब अवयवों में व्यापक (यक्ष्मम्) क्षयीरोग को (कश्यपस्य) ज्ञानदृष्टिवाले विद्वान् के (विबर्हेण) विविध उद्यम से (वि वृहामसि) जड़ से उखाड़ते हैं ॥७॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपसंहार वा समाप्ति है अर्थात् प्रसिद्ध अवयवों का वर्णन करके अन्य सब अवयवों का कथन है। जिस प्रकार सद्वैद्य निदानपूर्वक रोगी के जोड़-जोड़ में से रोग का नाश करता है, वैसे ही ज्ञानी पुरुष निदिध्यासनपूर्वक आत्मिक दोषों को मिटाकर प्रसन्नचित्त होता है ॥७॥
टिप्पणी
७–अङ्गे–अङ्गे। अ० १।१२।२। नित्यवीप्सयोः। पा० ८।१।४। इति सर्वत्र द्विर्वचनम्। सर्वावयवेषु। लोम्नि–लोम्नि। नामन्सीमन्व्योमन्रोमन्लोमन्०। उ० ४।१५१। इति लूञ् छेदे–मनिन् प्रत्ययान्तः साधुः। लूयते छिद्यते शरीरं येन। सर्वेषु रोमकूपेषु। पर्वणि–पर्वणि। अ० २।९।१। सर्वेषु शरीरसन्धिषु। त्वचस्यम्। त्वच संवरणे–असुन्, यत्। यचि भम्। पा० १।४।१८। इति रुत्वाभावः। त्वचि भवम्। कश्यपस्य। अ० १।१४।४। सोमरसपानशीलस्य। यद्वा। कृञादिभ्यः संज्ञायां वुन्। उ० ५।३५। इति दृशिर् प्रेक्षे–वुन्। पाघ्राध्मास्थाम्नादाण्दृश्यर्ति०। पा० ७।३।७८। इति छन्दसि अशिति प्रत्ययेऽपि, दृशेः पश्य इत्यादेशः, आद्यन्ताक्षरविपर्य्येण सिद्धिः। कश्यपस्य पश्यकस्य द्रष्टुर्ज्ञानिनः पुरुषस्य। यथा। “कश्यपः कस्मात् पश्यको भवतीति निरुक्त्या पश्यतीति पश्यः सर्वज्ञतया सकलं जगद् विजानाति स पश्यः पश्य एव निर्भ्रमतयातिसूक्ष्ममपि वस्तु यथार्थं जानात्येवातः पश्यक इति। आद्यन्ताक्षरविपर्ययाद्धि स सिंहः कृतेस्तर्कुरित्यादिवत् कश्यप इति हयवरट् इत्येतस्योपरि महाभाष्यप्रमाणेन पदं सिध्यति”–इति श्रीदयानन्दकृतायां ऋग्वेदादिभाष्यभूमिकायाम्, पृष्ठे २९१ तमे। विबर्हेण। वृहि वृद्धौ, शब्दे, वृहू उद्यमे–ल्युट्, उपसर्गस्य दीर्घः। विविधोद्यमेन। विष्वञ्चम्। विष व्याप्तौ–कु+अञ्चु गतौ–क्विन्। नानाङ्गव्यापकम्। अन्यद् गतम् ॥
विषय
अङ्ग-प्रत्यङ्गों में होनेवाले रोगों का नाश
पदार्थ
१. पूर्व मन्त्र में शरीर के विशिष्ट अङ्गों से रोगों को दूर करने का संकेत हुआ है। अप्रसिद्ध अवयवों से भी उसके दूर करने का प्रतिपादन इस मन्त्र में किया गया है। हे रुग्ण! (ते) = तेरे (अड़े) = अड़े-अनुक्त सब अवयवों में, (लोम्नि लोम्नि) = सब रोम-कूपों में, (पर्वणि पर्वणि) = सब सन्धियों में होनेवाले (यक्ष्मम्) = रोग को (विवहामि) = मैं पृथक् करता हूँ। ३. (वयम्) = हम (ते) = तेरे (त्वचस्यम्) = त्वचा में होनेवाले (विष्वञ्चम्) = चक्षु आदि सब अवयवों में व्याप्त होनेवाले रोग को (कश्यपस्य) = [पश्यकस्य] ज्ञानी पुरुष के (वीबहॅण) = [बृह to destroy, to kill] रोगघातक प्रयोग से नष्ट करते हैं। ज्ञानी वैद्य रोग के मूलकारण को समझकर रोग को नष्ट करने का प्रयत्न करता है।
भावार्थ
अङ्ग-प्रत्यङ्ग में होनेवाले,रोम-कूपों व जोड़ों में होनेवाले, त्वचा के विविध प्रदेशों में होनेवाले रोगों को नष्ट किया जाए।
विशेष
अङ्ग-प्रत्यङ्ग से रोगोन्मूलन करके पूर्ण स्वस्थ होने का वर्णन इस सूक्त में हुआ है। अब स्वस्थ बनकर यह स्थिर व शान्त बनता है-'अथर्वा'। यह प्राणसाधना से मन को स्थिर करके पशुपति[प्रभु] का ध्यान करता है -
भाषार्थ
(अङ्गे अङ्गे) अङ्ग-अङ्ग में, (लोम्नि लोम्नि) रोम-रोम में, (पर्वणिपर्वणि) शरीर के जोड-जोड में, (ते) तेरा ( य: ) जो (त्वचस्यं यक्ष्म) त्वचा-सम्बन्धी यक्ष्म है, (ते) तेरे (विश्वञ्चम) समस्त अङ्गों में व्यापी उस यक्ष्म को (कश्यपस्य) द्रष्टा के (वीवर्हेण) छेदक [रश्मिसमूह] द्वारा (वि वृहामसि) हम [वैद्य] निकाल देते हैं। यह "त्वचस्य यक्ष्म" है।
टिप्पणी
[कश्यपस्य= पश्यतीति१ कश्यपः, सूर्य जोकि उदित होकर भूमि आदि का दर्शन करता है। यथा "परीवृतो ब्रह्मणा वर्मणाहं कश्यपस्य ज्योतिषा वर्चसा च। मा मा प्रापन्निषवो दैव्या या मा मानुषीरवसृष्टा वधाय" (अथर्व० १७।१।२८) अर्थात् ब्रह्मरूपी कवच से घिरा हुआ तथा कश्यप की ज्योति तथा दीप्ति।] [१. विपर्यय विधि द्वारा। निर्वचन पञ्चविधिक होता है। यथा "वर्णागमो वर्णविपर्ययश्च द्वौ चापरौ वर्णविकारनाशौ। धातोस्तदर्यातिशयेन योगः" इति।]
विषय
देह के अङ्गों से रोग नाश करने का उपदेश ।
भावार्थ
(ते) तेरे (अङ्गे अङ्गे) अंग २ में और (लोम्नि लोम्नि) रोम रोम में और (पर्वणि पर्वणि) पोरु २ में (ते त्वचस्यं) तेरी त्वचा के भीतर बैठे, (विश्वञ्चं) सब देह में बैठे (यक्ष्मं) रोग को (कश्यपस्य) रोग के मूलकारण और दूर करने के सत् उपायों को देखने हारे ज्ञानी पुरुष के उपदेश किये हुए (वीवर्हेण) नाना प्रकार के रोगविनाशक उपाय से (वि वृहामसि) हम दूर करते हैं।
टिप्पणी
‘अङ्गादङ्गालोम्नो जातं पर्वणि पर्वणि । यक्ष्मं सर्वस्मादात्मनस्वमिदं वि वृहामि ते। ’ इति ऋ०। (द्वि०) ‘तत्र लोम्नो बद्धं’ इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मा ऋषिः। यक्ष्मविवर्हणं चन्द्रमा वा देवता। आयुष्यं सूक्तम्। १, २ अनुष्टुभौ । ३ ककुम्मती। ४ चतुष्पदा भुरिग् उष्णिक्। ५ उपरिष्टाद् विराड् बृहती। ६ उष्णिग् गर्भा निचृदनुष्टुप्। ७ पथ्या पंङ्क्तिः। सप्तर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Uprooting the Cancerous
Meaning
The consumptive cancerous disease which has spread all over your skin and body in every part, every pore and hair, and every joint, we remove and uproot with the diagnosis and judicious treatment by the Kashyapa, enlightened physician.
Translation
Whatever all-pervading wasting disease has penetrated in your each and every limb (anga), each and every hair (loma), and each and every joint, (parva) that wasting disease of the skin (tvak), we hereby pluck off with the scattering rays of the Sun. (kasyapa treatment).
Translation
O Patient; I exterminate Consumption having its root in your skin by the medication prescribed by the man of medicine possessing sharp-understanding and remove the consumption which is in every member, every hair, in every joint and in wide range.
Translation
In every member, every hair, in every joint wherein it lies, we under the medical advice of an experienced, able doctor, drive far away consumption settled in thy skin, and all parts of the body. [1]
Footnote
[1] Griffith describes Kashyapa to be a Rishi and father of Vivriba. This explanation is inadmissible, as there is no history in the Vedas. How beautifully, the eradication of disease from each and every part of the body has been described in this hymn to lead a healthy life is the ideal of " the vedas. We should avail of medical science to maintain health.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
७–अङ्गे–अङ्गे। अ० १।१२।२। नित्यवीप्सयोः। पा० ८।१।४। इति सर्वत्र द्विर्वचनम्। सर्वावयवेषु। लोम्नि–लोम्नि। नामन्सीमन्व्योमन्रोमन्लोमन्०। उ० ४।१५१। इति लूञ् छेदे–मनिन् प्रत्ययान्तः साधुः। लूयते छिद्यते शरीरं येन। सर्वेषु रोमकूपेषु। पर्वणि–पर्वणि। अ० २।९।१। सर्वेषु शरीरसन्धिषु। त्वचस्यम्। त्वच संवरणे–असुन्, यत्। यचि भम्। पा० १।४।१८। इति रुत्वाभावः। त्वचि भवम्। कश्यपस्य। अ० १।१४।४। सोमरसपानशीलस्य। यद्वा। कृञादिभ्यः संज्ञायां वुन्। उ० ५।३५। इति दृशिर् प्रेक्षे–वुन्। पाघ्राध्मास्थाम्नादाण्दृश्यर्ति०। पा० ७।३।७८। इति छन्दसि अशिति प्रत्ययेऽपि, दृशेः पश्य इत्यादेशः, आद्यन्ताक्षरविपर्य्येण सिद्धिः। कश्यपस्य पश्यकस्य द्रष्टुर्ज्ञानिनः पुरुषस्य। यथा। “कश्यपः कस्मात् पश्यको भवतीति निरुक्त्या पश्यतीति पश्यः सर्वज्ञतया सकलं जगद् विजानाति स पश्यः पश्य एव निर्भ्रमतयातिसूक्ष्ममपि वस्तु यथार्थं जानात्येवातः पश्यक इति। आद्यन्ताक्षरविपर्ययाद्धि स सिंहः कृतेस्तर्कुरित्यादिवत् कश्यप इति हयवरट् इत्येतस्योपरि महाभाष्यप्रमाणेन पदं सिध्यति”–इति श्रीदयानन्दकृतायां ऋग्वेदादिभाष्यभूमिकायाम्, पृष्ठे २९१ तमे। विबर्हेण। वृहि वृद्धौ, शब्दे, वृहू उद्यमे–ल्युट्, उपसर्गस्य दीर्घः। विविधोद्यमेन। विष्वञ्चम्। विष व्याप्तौ–कु+अञ्चु गतौ–क्विन्। नानाङ्गव्यापकम्। अन्यद् गतम् ॥
बंगाली (2)
भाषार्थ
(অঙ্গে অঙ্গে) অঙ্গে-অঙ্গে, (লোম্নি লোম্নি) লোমে-লোমে, (পর্বণিপর্বণি) শরীরের পর্বে-পর্বে, (তে) তোমার (যঃ) যে (ত্বচস্যং যক্ষ্ম) ত্বক-সম্বন্ধীয় যক্ষ্ম রয়েছে, (তে) তোমার (বিশ্বঞ্চম) সমস্ত অঙ্গে ব্যাপ্ত সেই যক্ষ্মকে (কশ্যপস্য) দ্রষ্টার (বীবর্হেণ) ছেদক [রশ্মি সমূহ] দ্বারা (বি বৃহামসি) আমরা [বৈদ্য] নিষ্কাশন করি। ইহা "ত্বচস্য যক্ষ্ম"।
टिप्पणी
[কশ্যপস্য= পশ্যতীতি১ কশ্যপঃ, সূর্য যা উদিত হয়ে ভূমি আদির দর্শন করায়। যথা "পরিবৃতো ব্রহ্মণা বর্মণাহং কশ্যপস্য জ্যোতিষ বর্চসা চ । মা মা প্রাপন্নিষবো দৈব্যা যা মা মানুষীরবসৃষ্টা বধায়" (অথর্ব০ ১৭।১।২৮) অর্থাৎ ব্রহ্মরূপী কবচের দ্বারা বেষ্টিত এবং কশ্যপের জ্যোতি ও দীপ্তি।] [১. বিপর্যয় বিধি দ্বারা। নির্বচন পঞ্চবিধি হয়। যথা “বর্ণাগমো বর্ণবিপর্যয়শ্চ দ্বৌ চাপরৌ বর্ণবিকারনাশৌ। ধাতোস্তদর্থাতিশয়েন যোগঃ” ইতি।]
मन्त्र विषय
শারীরিকবিষয়ে শরীররক্ষা
भाषार्थ
(যঃ) যে [ক্ষয়ী রোগ] (তে) তোমার (অঙ্গে-অঙ্গে) অঙ্গে-অঙ্গে, (লোম্নি–লোম্নি) লোমে-লোমে/লোমকূপে (পর্বণি–পর্বণি) গাঁটে-গাঁটে/পর্বে-পর্বে/প্রত্যেক সন্ধিতে আছে। (বয়ম্) আমরা (তে) তোমার (ত্বচস্যম্) ত্বকের এবং (বিষ্বঞ্চম্) সকল অবয়বে/অঙ্গে ব্যাপক (যক্ষ্মম্) ক্ষয়ীরোগকে (কশ্যপস্য) জ্ঞানদৃষ্টি-সম্পন্ন বিদ্বানের (বিবর্হেণ) বিবিধ উদ্যম দ্বারা (বি বৃহামসি) সমূলে উৎখাত করি ॥৭॥
भावार्थ
এই মন্ত্রে উপসংহার বা সমাপ্তি আছে অর্থাৎ প্রসিদ্ধ অবয়বের বর্ণনা করে অন্য সকল অবয়বের কথন আছে। যেভাবে সদ্বৈদ্য নিদানপূর্বক রোগীর প্রত্যেক সন্ধি থেকে রোগের নাশ করে, সেভাবেই জ্ঞানী পুরুষ নিদিধ্যাসনপূর্বক আত্মিক দোষ দূর করে প্রসন্নচিত্ত হয় ॥৭॥
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