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अथर्ववेद के काण्ड - 2 के सूक्त 4 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 4
    ऋषिः - अथर्वा देवता - चन्द्रमा अथवा जङ्गिडः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - दीर्घायु प्राप्ति सूक्त
    61

    दे॒वैर्द॒त्तेन॑ म॒णिना॑ जङ्गि॒डेन॑ मयो॒भुवा॑। विष्क॑न्धं॒ सर्वा॒ रक्षां॑सि व्याया॒मे स॑हामहे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दे॒वै: । द॒त्तेन॑ । म॒णिना॑ । ज॒ङ्गि॒डेन॑ । म॒य॒:भुवा॑ । विऽस्क॑न्धम् । सर्वा॑ । रक्षां॑सि । वि॒ऽआ॒या॒मे । स॒हा॒म॒हे॒ ॥४.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    देवैर्दत्तेन मणिना जङ्गिडेन मयोभुवा। विष्कन्धं सर्वा रक्षांसि व्यायामे सहामहे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    देवै: । दत्तेन । मणिना । जङ्गिडेन । मय:भुवा । विऽस्कन्धम् । सर्वा । रक्षांसि । विऽआयामे । सहामहे ॥४.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 4; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    हिन्दी (5)

    विषय

    मनुष्य परमेश्वर की भक्ति से आयु बढ़ावे।

    पदार्थ

    (देवैः) विद्वानों के (दत्तेन) दिये हुए [उपदेश किये हुए] (मणिना) मणि [अति श्रेष्ठ], (मयोभुवा) आनन्द के देनेहारे (जङ्गिडेन) रोगों के भक्षक [परमेश्वर वा औषध] द्वारा (विष्कन्धम्) विघ्न और (सर्वा=सर्वाणि) सब (रक्षांसि) राक्षसों को (व्यायामे) संग्राम में (सहामहे) हम दबावें ॥४॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को योग्य है कि विद्वानों के सत्सङ्ग से दुःखनाशक परमेश्वर के उपकारों पर दृष्टि करके पुरुषार्थ के साथ पथ्य द्रव्यों का सेवन करके विघ्नकारी दुष्ट जीवों, पापों और रोगों को हटाकर सदा आनन्द में रहें ॥४॥

    टिप्पणी

    ४–देवैः। विद्वद्भिः। दत्तेन। दीयते इति। दा–क्त। कृतदानेन। उपदिष्टेन। मयोभुवा। अ० १।५।१। सुखस्य भावयित्रा, उत्पादकेन। व्यायामे। वि+आङ्+यम परिवेषणे–घञ्। मल्ल क्रीडाप्रदेशे। संग्रामे। सहामहे। अभिभवामः। अन्यद् व्याख्यातम्, म० १ ॥

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    विषय

    देवों से दत्त 'मणि'

    पदार्थ

    १. दिव्य गुणों के पनपने से यह वीर्य शरीर में सुरक्षित रहता है, अतः कहते हैं कि इस मणि को मानो हमें देवों ने ही प्राप्त कराया है। आसुरभाव जागे और इस मणि का विनाश हुआ। (देवैः दतेन) = देवों से दी गई, अर्थात् दिव्य भावनाओं द्वारा शरीर में रक्षित हुई-हुई (मयोभुवा) = नीरोगतारूप कल्याण को उत्पन्न करनेवाली (जङ्गिडेन मणिना) = शरीर-भक्षक रोगों को निगल जानेवाली इस वीर्यरूप मणि से, (व्यायामे) = उचित व्यायाम [Exercise, शरीरश्रम] करके हम (विष्कन्धम्) = अङ्गों के गठन के शैथिल्यरूप रोग को तथा (सर्वा रक्षांसि) = अपने रमण के लिए हमारा क्षय करनेवाले सब रोगकृमियों को (सहामहे) = पराभूत करते हैं। २. वीर्यरक्षण के लिए व्यायाम एक प्रमुख साधन है। शारीरिक श्रम न करनेवाले के लिए इसका रक्षण सम्भव नहीं होता, अत: 'व्यायाम' के महत्व को भी हमें पूर्णतया समझना चाहिए। इस बीयरक्षण के लिए दूसरा साधन दिव्य गुणों का विकास है। अशुभ विचार वीर्यरक्षा के लिए बड़े घातक होते हैं। इसी दृष्टिकोण से इस मणि को 'देवों से दी गई' ऐसा कहा गया है। 'व्यायाम व शुभ विचार' वीर्यरक्षा के महान् साधन हैं।

    भावार्थ

    व्यायाम व शुभ विचारों से वीर्यरक्षण करते हुए हम सब रोगों से ऊपर उठे।

     

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    भाषार्थ

    (देवैः) दिव्य [वैद्यों] द्वारा (दत्तेन) दिये, ( मणिना ) रत्नरूप, (मयोभुवा) सुखोत्पादक (जङ्गिडेन) जङ्गिड द्वारा, (व्यायामे) प्रयत्न करने पर, (विष्कन्धम् ) शोषक रोग को, (सर्वा रक्षांसि) तथा सब राक्षसों को (सहामहे) हम पराभूत करते हैं।

    टिप्पणी

    [देवैः= दिव्यगुणी, (सम्भवतः वैद्य, जोकि जङ्गिड के गुणों को जानते हैं) व्यायामे= शरीर के अङ्गों का आयाम अर्थात् विस्तार, तथा (वि) तद्-विरुद्ध संकोच करना (सम्भवतः व्यायाम करने पर), व्यायाम द्वारा शरीर तथा स्वस्थ शक्तिसम्पन्न होता है। रक्षांसि= अत्त्रिणः (मन्त्र ३)।]

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    विषय

    (स्वास्थ्य खण्ड) व्यायाम और ब्रह्मचर्य

    शब्दार्थ

    (देवै: दत्तेन) माता, पिता आचार्य आदि तथा दिव्यपुरुषों, सन्त, महात्मा, योगियों द्वारा प्रदत्त, उपदिष्ट (मयोभुवा) आनन्ददायक, कल्याणकारी (जङ्गिडेन) अतिश्रेष्ठ ब्रह्मचर्यरूपी (मणिना) उत्तम धन द्वारा और (व्यायामे) व्यायाम में, व्यायाम द्वारा (विष्कन्धम्) रस और रक्त के शोषक रोगों को तथा (सर्वा रक्षांसि) समस्त रोग-कीटाणुओं को, राक्षसी भावों को, विकारों को, काम, क्रोधादि शत्रुओं को (सहामहे) पराभूत करते हैं, दूर भगाते हैं, दबाते हैं ।

    भावार्थ

    मन्त्र में व्यायाम और ब्रह्मचर्य के महत्त्व पर प्रकाश डाला गया है । मन्त्र का सन्देश है - १. विद्वानों द्वारा उपदिष्ट आनन्ददायक ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए । २. प्रतिदिन नियमित रूप से व्यायाम करना चाहिए । ३. व्यायाम और ब्रह्मचर्य की शक्ति से मनुष्य शरीर के रस और रक्त का शोषण करनेवाले सभी रोगों को मार भगाता है । ४. व्यायाम और ब्रह्मचर्य से मनुष्य शरीर पर आक्रमण करनेवाले रोग के कीटाणुओं को पराभूत कर देता है । ५. ब्रह्मचर्य-पालन से और व्यायाम के अभ्यास से मनुष्य-शरीर ऐसा दृढ़ बन जाता है कि आन्तरिक और बाह्य कोई भी शत्रु उसके सामने ठहर नहीं सकता ।

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    विषय

    जङ्गिड़ और शण दो प्रकार की सेनाएं ।

    भावार्थ

    ( देवैः ) माता, पिता तथा आचार्य आदि देवों द्वारा (दत्तेन) दिये हुए (मयोभुवा) और कल्याणकारी (जङ्गिडेन) ब्रह्मचर्य रूपी ( मणिना ) उत्तम धन द्वारा (विष्कन्धम्) रस या रक्त के शोषण को तथा ( सर्वा ) सब (रक्षांसि) राक्षसी भावों को (सहामहे) हम पराभूत करते हैं, (व्यायामे) और व्यायाम द्वारा रक्त शोषण रोग को तथा राक्षसी भावों को दूर करते हैं ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। चन्द्रमा जङ्गिडो वा देवता । जगढमणिस्तुतिः । १ विराट् प्रस्तारपंक्तिः । २-६ अनुष्टुभः। षडृर्चं सूक्तम् ॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Jangida Mani

    Meaning

    By the refreshing and rejuvenating jangida sanative jewel gift given by the divinities of nature and nobilities of humanity, we face, challenge and subdue poisonous ill-health and all negative and destructive germs, bacteria, viruses and psychic and physical disorders in our struggle for health and well-being against disease.

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    Translation

    With this joy-bestowing jangida vaccine , that has been given by the bounties of Nature, we overcome every obstacle and all the germs of diseases in our strüggle.

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    Translation

    We overcome, in the confrontation, the rheumatism and other diseases with this Jangidamani which brings delight and is given to us by the various physical forces of the nature.

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    Translation

    Through the grace of Most Excellent God, Who preached to us by the sages, grants delight, and removes physical and mental ailments may we overcome in conflict all obstacles and satanic sentiments.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ४–देवैः। विद्वद्भिः। दत्तेन। दीयते इति। दा–क्त। कृतदानेन। उपदिष्टेन। मयोभुवा। अ० १।५।१। सुखस्य भावयित्रा, उत्पादकेन। व्यायामे। वि+आङ्+यम परिवेषणे–घञ्। मल्ल क्रीडाप्रदेशे। संग्रामे। सहामहे। अभिभवामः। अन्यद् व्याख्यातम्, म० १ ॥

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    बंगाली (3)

    पदार्थ

    (দেবৈঃ) বিদ্বানদের দ্বারা (দত্তেন) প্রদত্ত (মণিনা) অতি শ্রেষ্ঠ (ময়োভুবা) আনন্দ দায়ক (জঙ্গিডেন) পাপনাশক পরমেশ্বরের কৃপায় (বিষ্কন্ধম্) বিঘ্ন ও (সর্বা) সব (রক্ষাংসি) রাক্ষসকে (ব্যায়ামে) সংগ্রামে (সহামহে) আমি পরাজয় করি।।

    भावार्थ

    বিদ্বানেরা আমাদিগকে যে অতি শ্রেষ্ঠ, আনন্দদায়ক পাপনাশক পরমেশ্বর সম্বন্ধে উপদেশ দান করেন তাহার কৃপায় আমরা সব বিঘ্নকে বিনাশ করি ও সংগ্রামে রাক্ষসগণকে পরাজয় করি।।

    मन्त्र (बांग्ला)

    দেবৈর্দত্তেন মণিনা জঙ্গিডেন ময়োভুবা ৷ বিস্কন্ধং সর্বা রক্ষাংসি ব্যায়ামে সহামহে ।।

    ऋषि | देवता | छन्द

    অর্থবা। জঙ্গিডমণিঃ। অনুষ্টুপ্

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    भाषार्थ

    (দেবৈঃ) দিব্য [বৈদ্যদের] দ্বারা (দত্তেন) প্রদত্ত, (মণিনা) রত্নরূপ, (ময়োভুবা) সুখোৎপাদক (জঙ্গিডেন) জঙ্গিড দ্বারা, (ব্যায়ামে) প্রচেষ্টা করলে, (বিষ্কন্ধম্) শোষক রোগকে, (সর্বা রক্ষাংসি) এবং সমস্ত রাক্ষসকে (সহামহে) আমরা পরাজিত করি।

    टिप्पणी

    [দেবৈঃ= দিব্যগুণী, (সম্ভবতঃ বৈদ্য, যে জঙ্গিডের গুণ সম্পর্কে অবগত) ব্যায়াম= শরীরের অঙ্গের আয়াম অর্থাৎ বিস্তার, এবং (বি) তদ্-বিরুদ্ধ সংকোচ করা (সম্ভবতঃ ব্যায়াম করলে), ব্যায়াম দ্বারা শরীর এবং স্বাস্থ্য শক্তি সম্পন্ন হয়। রক্ষাংসি=অত্ত্রিণঃ (মন্ত্র ৩)।]

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    मन्त्र विषय

    মনুষ্যঃ পরমেশ্বরভক্ত্যায়ুর্বর্ধয়েৎ

    भाषार्थ

    (দেবৈঃ) বিদ্বানদের দ্বারা (দত্তেন) প্রদত্ত [উপদেশ কৃত] (মণিনা) মণি [অতি শ্রেষ্ঠ], (ময়োভুবা) আনন্দ প্রদায়ী (জঙ্গিডেন) রোগের ভক্ষক [পরমেশ্বর বা ঔষধ] দ্বারা (বিষ্কন্ধম্) বিঘ্ন ও (সর্বা=সর্বাণি) সব (রক্ষাংসি) রাক্ষসদের (ব্যায়ামে) সংগ্রামে (সহামহে) আমরা দমন করি ॥৪॥

    भावार्थ

    মনুষ্যদের উচিত, বিদ্বানদের সৎসঙ্গ দ্বারা দুঃখনাশক পরমেশ্বরের উপকারের প্রতি দৃষ্টি করে পুরুষার্থপূর্বক পথ্য দ্রব্যের সেবন করে বিঘ্নকারী দুষ্ট জীব, পাপ ও রোগ দূর করে সদা আনন্দে থাকা ॥৪॥

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