अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 8/ मन्त्र 5
ऋषिः - भृग्वङ्गिराः
देवता - वनस्पतिः, यक्ष्मनाशनम्
छन्दः - निचृत्पथ्यापङ्क्तिः
सूक्तम् - क्षेत्रियरोगनाशन
65
नमः॑ सनिस्रसा॒क्षेभ्यो॒ नमः॑ संदे॒श्ये॑भ्यः। नमः॒ क्षेत्र॑स्य॒ पत॑ये वी॒रुत्क्षे॑त्रिय॒नाश॒न्यप॑ क्षेत्रि॒यमु॑च्छतु ॥
स्वर सहित पद पाठनम॑: । स॒नि॒स्र॒स॒ऽअ॒क्षेभ्य॑: । नम॑: । स॒म्ऽदे॒श्ये᳡भ्य: । नम॑: । क्षेत्र॑स्य । पत॑ये । वी॒रुत् । क्षे॒त्रि॒य॒ऽनाश॑नी । अप॑ । क्षे॒त्रि॒यम् । उ॒च्छ॒तु॒ ॥८.५॥
स्वर रहित मन्त्र
नमः सनिस्रसाक्षेभ्यो नमः संदेश्येभ्यः। नमः क्षेत्रस्य पतये वीरुत्क्षेत्रियनाशन्यप क्षेत्रियमुच्छतु ॥
स्वर रहित पद पाठनम: । सनिस्रसऽअक्षेभ्य: । नम: । सम्ऽदेश्येभ्य: । नम: । क्षेत्रस्य । पतये । वीरुत् । क्षेत्रियऽनाशनी । अप । क्षेत्रियम् । उच्छतु ॥८.५॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
पौरुष का उपदेश किया जाता है।
पदार्थ
(सनिस्रसाक्षेभ्यः) डबडबाती हुई आँखेंवालों [रोगों से पीड़ित दीनों] के लिये (नमः) अन्न हो और (संदेश्येभ्यः) यथार्थ दानशीलों के लिये (नमः) अन्न हो। (क्षेत्रस्य) खेत के (पतये) स्वामी के लिये (नमः) अन्न हो। (क्षेत्रियनाशनी) शरीर वा वंश के रोग की नाश करनेवाली (वीरुत्) औषध (क्षेत्रियम्) शरीर वा वंश के दोष वा रोग को (अप+उच्छतु) निकाल देवे ॥५॥
भावार्थ
सब मनुष्य ऐसा सुप्रबन्ध करें कि दीन-दुःखियों का यथावत् पालन हो, उद्योगी दानी पुरुष और किसान लोग अन्न आदि प्राप्त करें। जैसे परमेश्वर ने औषध आदि उत्पन्न करके उपकार किया है, उसी प्रकार सबको परस्पर उपकारी बनना चाहिये ॥५॥
टिप्पणी
टिप्पणी–(संदेश्येभ्यः) पद के स्थान पर सायणभाष्य में [संदेशेभ्यः] की व्याख्या है ॥ ५–नमः। णमु प्रह्वत्वे–असुन्। अन्नम्–निघ० २।७। सनिस्रसाक्षेभ्यः। स्रंसु गतौ–यङन्ताद् घञ्, अतोलोपयलोपौ। नीग्वञ्चुस्रंसुध्वंसु०। पा० ७।४।८४। इति नीग् आगमः। छान्दसो ह्रस्वः। सनीस्रस्यते–इति सनी–स्रसम्। सनीस्रसानि सनीस्रस्यमानानि अतिशयेन विशीर्यमाणानि अक्षाणि, नेत्राणि येषां तेभ्यस्तथाभूतेभ्यः। कुष्ठादिरोगेण पीडितनेत्रेभ्यो दीनेभ्यः। संदेश्येभ्यः। सम्+दिश दाने आज्ञापाने च–घञ्। सन्देशः सम्यग्दानम्। तत्र साधुः। पा० ४।४।९८। इति यत्। यथाशास्त्रं दानकुशलानां हिताय। क्षेत्रस्य। दादिभ्यश्छन्दसि। उ० ४।१७०। इति क्षि ऐश्वर्यक्षयनिवासगतिषु त्रन्। क्षयति ऐश्वर्यहेतुर्भवति। अथवा। नाशयति दरिद्रतामिति क्षेत्रम्। शस्योत्पत्तिस्थानस्य। केदारस्य। देहस्य। पतये। पा रक्षणे–डति। रक्षकाय। स्वामिने। शिष्टं व्याख्यातम् ॥
विषय
सनिस्त्रसाक्ष, सन्देश्य, क्षेत्रपति
पदार्थ
१. (सनिस्त्रसाक्षेभ्यः) = [संस्-Togo. अक्ष-Axle-pole या कार] खुब गतिशील अक्षदण्ड या गतिशील गाड़ियों के लिए, जिनमें कृषि से उत्पन्न सामान को इधर-उधर ले-जाते हैं, (नमः) = नमस्कार हो । (सन्देश्येभ्य:) = इन अन्नों के सन्देशवाहकों के लिए-इन औषध-द्रव्यों के गुणों का प्रचार करनेवालों के लिए (नम:) = नमस्कार हो। (क्षेत्रस्य पतये) = क्षेत्र के पति के लिए, जो इन ओषधियों को उत्पन्न करता है, (नमः) = नमस्कार हो। २. इसप्रकार उत्पन्न की गई, यथास्थान पहुँचाई गई और जिनके गुणों का ज्ञान दिया गया है, वह (क्षेत्रियनाशनी) = क्षेत्रिय रोग को नष्ट करनेवाली (वीरुत्) = लता (क्षेत्रियम्) = क्षेत्रियरोग को (अप उच्छतु) = नष्ट करनेवाली हो।
भावार्थ
क्षेत्रपति को उचित आदर देना है, उसकी गाड़ियों को ठीक रखना है। औषध द्रव्यों के गुणों का सन्देश देनेवालों के लिए भी उचित आदर हो।
विशेष
सूक्त के आरम्भ में क्षेत्रिय रोगों को दूर करने के लिए सूर्य-चन्द्र के सम्पर्क में रहने का विधान है [१]। तीसरे मन्त्र में अर्जुनवृक्ष, यवतुषु तथा तिलपिजी को क्षेत्रिय रोग का नाशक बताया है। अगले सूक्त में ग्राही-गठिया को दूर करने के लिए दशवृक्ष का उल्लेख है।
भाषार्थ
(सनिस्रसाक्षेभ्यः) ध्वस्त-इन्द्रियवालों के लिए ( नम: ) अन्न प्रदान हो, (संदेश्येभ्यः) अन्नोत्पादन का सम्यक् निर्देश करने योग्य व्यक्ति के लिए (नमः) अन्नप्रदान हो। (क्षेत्रस्य पतये) खेत के स्वामी तथा रक्षक श्रमी के लिए ( नम:) अन्नप्रदान हो । (वीरुत् ) अन्नरूपी वीरुत् ( क्षेत्रियनाशनी ) शरीर-क्षेत्र के रोग का नाश करनेवाली है (क्षेत्रियम् अप उच्छतु) शरीर-क्षेत्र के रोग का विवासन करे, अपनयन करे, उसका निवारण करे।
टिप्पणी
[बीरुत् है अन्नरूप। नमः अन्ननाम (निघं० २।७)। सनिस्रसाक्षेभ्यः =स्रंसु (भ्वादिः) अवस्रंसने, यङ्लुकि + अक्ष (आँख तथा अन्य इन्द्रियाँ)। संदेश्य= कृषिविभाग के राज्याधिकारी, अन्य परामर्शदाता। श्रेत्र के पति अर्थात् स्वामी तथा कृषिरक्षक श्रमी।] [सायण का अभिप्राय---सनिस्रसाक्षेभ्य:= जिनके गवाक्ष अर्थात् झरोखे और द्वार विशीर्ण हो रहे हैं, उन शून्य गृहों के लिए नमस्कार हो।संदेश्येभ्यः= जो त्याग दिये जाते हैं उनमें कि मिट्टी के आदान से, उन जर्दगर्तो अर्थात् जीर्ण हुए गढ़ों को नमस्कार हो। क्षेत्रस्य पतये= शून्यगृहादिरूप क्षेत्र के अधिपति, इस नामवाले देव को नमस्कार हो। तुम्हारी प्रसन्नता से रोगशान्ति हो, यह अभिप्राय है नमस्कारों का (सायण)।
विषय
आत्मज्ञान ।
भावार्थ
( सनिस्त्रसाक्षेभ्यः ) जिनके अक्ष=अर्थात् इन्द्रियों के वेग शान्त हो गये हैं ऐसे जितेन्द्रिय, योगाभ्यासी, परम ब्रह्मज्ञानियों को ( नमः ) नमस्कार है । ( संदेश्येभ्यः ) जिनके देहरूप देश, भोगायतन जीर्ण होगये हैं या जो आत्मज्ञान का उत्तम रूप से उपदेश करते हैं उनको भी ( नमः ) नमस्कार है और (क्षेत्रस्य) विनाशशील अथवा आत्मा के निवास योग्य इस देह और इस ब्रह्माण्ड के स्वामी आत्मा और परमात्मा को भी ( नमः ) साक्षात् आदरपूर्वक नमस्कार है । ( वीरुत् क्षेत्रियनाशनी ) यह ब्रह्मानन्दवल्ली देहबन्धन को नाश करती है वह ( क्षेत्रियम् अप उच्छतु ) जीवात्मा को बन्धन से मुक्त करे ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भृग्वंगिरा ऋषिः। यक्ष्मनाशनो वनस्पतिर्देवता। मन्त्रोक्तदेवतास्तुतिः। १, २, ५ अनुष्टुभौ। ३ पथ्यापंक्तिः। ४ विराट्। पञ्चर्चं सूक्तम् ॥
इंग्लिश (4)
Subject
Hereditary Diseases
Meaning
Let there be proper food, care and treatment for the patients whose eyes are drooping. Let there be proper appreciation of those who participate in the communication of knowledge and conduct of treatment. Let there be proper care and recognition with respect for master of the field. Let the herb, destroyer of the disease, uproot the genetic disease from the family.
Translation
Let your homage be to ever-watchful sentinels and homage to the orderlies. Homage also to the master of the field. May this medicinal plant, destroyer of hereditary disease, remove the hereditary disease.
Translation
Let there be health for those who have lost the strength of their limbs, let there be health for those who have got their bodies torn of diseases, let there be health for the master of the body, the soul and let the plant destructive to bodily disease. [N.B. In the above hymn the diseases having their roots in the body are desired to be eradicated by the plant described in the verses. Kohestra is here used to mean body. Kshetra is the disease caused in the body. This also means the inherited diseases.]
Translation
Homage to the yogis, the force of whose organs has been set at rest. Homage, to those who excellently impart spiritual knowledge. Homage to the soul, the master of the body, and God, the master of the world. May the knowledge of God, end this body in which dwells the soul, and release it from the bondage of this mortal frame.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
टिप्पणी–(संदेश्येभ्यः) पद के स्थान पर सायणभाष्य में [संदेशेभ्यः] की व्याख्या है ॥ ५–नमः। णमु प्रह्वत्वे–असुन्। अन्नम्–निघ० २।७। सनिस्रसाक्षेभ्यः। स्रंसु गतौ–यङन्ताद् घञ्, अतोलोपयलोपौ। नीग्वञ्चुस्रंसुध्वंसु०। पा० ७।४।८४। इति नीग् आगमः। छान्दसो ह्रस्वः। सनीस्रस्यते–इति सनी–स्रसम्। सनीस्रसानि सनीस्रस्यमानानि अतिशयेन विशीर्यमाणानि अक्षाणि, नेत्राणि येषां तेभ्यस्तथाभूतेभ्यः। कुष्ठादिरोगेण पीडितनेत्रेभ्यो दीनेभ्यः। संदेश्येभ्यः। सम्+दिश दाने आज्ञापाने च–घञ्। सन्देशः सम्यग्दानम्। तत्र साधुः। पा० ४।४।९८। इति यत्। यथाशास्त्रं दानकुशलानां हिताय। क्षेत्रस्य। दादिभ्यश्छन्दसि। उ० ४।१७०। इति क्षि ऐश्वर्यक्षयनिवासगतिषु त्रन्। क्षयति ऐश्वर्यहेतुर्भवति। अथवा। नाशयति दरिद्रतामिति क्षेत्रम्। शस्योत्पत्तिस्थानस्य। केदारस्य। देहस्य। पतये। पा रक्षणे–डति। रक्षकाय। स्वामिने। शिष्टं व्याख्यातम् ॥
बंगाली (3)
पदार्थ
(সনিস্রাসাক্ষেভ্যঃ) অশ্রুপূর্ণ চোখযুক্ত [রোগের দ্বারা পীড়িত দিনের] জন্য (নমঃ) অন্ন আছে এবং (সন্দেশ্যেভ্যঃ) যথাযথ দানশীলের জন্য (নমঃ) অন্ন আছে। (ক্ষেত্রস্য) ক্ষেতের (পতয়ে) স্বামীর জন্য (নমঃ) অন্ন আছে। (ক্ষেত্রিয়নাশনী) শরীর বা বংশের রোগের নাশকারী (বীরুৎ) ঔষধি (ক্ষেত্রিয়ম্) শরীর বা বংশের দোষ বা রোগকে (অপ+উচ্ছতু) নিস্কাশিত করে।।
भावार्थ
অশ্রুপূর্ণ চোখযুক্ত রোগের দ্বারা পীড়িত দিনের জন্য অন্ন আছে এবং যথাযথ দানশীলের জন্য অন্ন আছে। ক্ষেতের স্বামীর জন্য অন্ন আছে। শরীর বা বংশের রোগের নাশকারী ঔষধি শরীর বা বংশের দোষ বা রোগকে নিবারণ করিবে।।
সব মনুষ্য এরূপ সুপ্রবন্ধ করে যে দিন-দুঃখির যতাবৎ পালন হয়, উদ্যোগী দানী পুরুষ এবং কিসান লোক অন্ন আদি প্রাপ্তি করে এবং যেরূপ পরমেশ্বরই ঔষধ আদি উৎপন্ন করিয়া উপকার করিয়াছে, ওই প্রকার সবার পরস্পর উপকারী বানানো উচিত।।
मन्त्र (बांग्ला)
নমঃ সনিস্রসাক্ষেভ্যো নমঃ সন্দেশ্যেভ্যঃ ৷ নমঃ ক্ষেত্রস্য পতয়ে বীরুৎক্ষেত্রিয়নাশন্যপ ক্ষেত্রিয়মুচ্ছতু।।
ऋषि | देवता | छन्द
ভৃগ্বঙ্গিরাঃ। ক্ষেত্রিয় (য়ক্ষ্মকুণ্ঠাদি) নাশনম্। নিতৃৎ পথ্যা পঙ্ক্তিঃ
भाषार्थ
(সনিস্রসাক্ষেভ্যঃ) ধ্বস্ত-ইন্দ্রিয়াধিকারীদের জন্য (নমঃ) অন্ন প্রদান হোক, (সংদেশ্যেভ্যঃ) অন্নোৎপাদনের সম্যক নির্দেশ করার যোগ্য ব্যক্তির জন্য (নমঃ) অন্নপ্রদান হোক। (ক্ষেত্রস্য পতয়ে) কৃষিক্ষেতের স্বামী এবং রক্ষক শ্রমিকের জন্য (নমঃ) অন্নপ্রদান হোক। (বীরুৎ) অন্নরূপী বীরুৎ (ক্ষেত্রিয়নাশনী) শরীর-ক্ষেত্রের রোগের বিনাশকারী হয় (ক্ষেত্রিয়ম্ অপ উচ্ছতু) শরীর ক্ষেত্রের রোগের নির্বাসন করে, অপনয়ন করে, তা নিবারণ করে/করুক।
टिप्पणी
[বীরুৎ হল অন্নরূপ। নমঃ অন্ননাম (নিঘং০ ২।৭)। সনিস্রসাক্ষেভ্যঃ =স্রংসু (ভ্বাদিঃ) অবস্রংসনে, যঙ্লুকি + অক্ষ (চোখ ও অন্যান্য ইন্দ্রিয়সমূহ)। সংদেশ্য= কৃষি বিভাগের রাজ্যাধিকারী, অন্য পরামর্শদাতা। ক্ষেত্রের পতি অর্থাৎ স্বামী এবং কৃষিরক্ষক শ্রমী।] সায়ণের উদ্দেশ্য== সনিস্রসাক্ষেভ্যঃ= যাদের গবাক্ষ অর্থাৎ জানালা এবং দ্বার বিদীর্ণ হচ্ছে, সেই শূন্য গৃহের জন্য নমস্কার হোক। সংদেশ্যেভ্যঃ= যা ত্যাগ দেওয়া হয় তা থেকে মাটির আদান থেকে, সেই জর্দগর্ত অর্থাৎ জীর্ণ হওয়া গঢ়/দূর্গকে নমস্কার হোক। ক্ষেত্রস্য পতয়ে= শূন্যগৃহাদিরূপ ক্ষেত্রের অধিপতি, এই নামের দেবতাকে নমস্কার হোক । তোমার প্রসন্নতায় রোগশান্তি হোক, এটাই অভিপ্রায় নমস্কারের (সায়ণ)।]
मन्त्र विषय
পৌরুষমুপদিশ্যতে
भाषार्थ
(সনিস্রসাক্ষেভ্যঃ) অশ্রুসিক্ত চোখ-বিশিষ্ট [রোগে পীড়িত দীন/দরিদ্রদের/দুঃখীদের] এর জন্য (নমঃ) অন্ন হোক এবং (সংদেশ্যেভ্যঃ) যথার্থ দানশীলদের জন্য (নমঃ) অন্ন হোক। (ক্ষেত্রস্য) খেতের (পতয়ে) স্বামীর জন্য (নমঃ) অন্ন হোক। (ক্ষেত্রিয়নাশনী) শরীর বা বংশের রোগনাশক (বীরুৎ) ঔষধ (ক্ষেত্রিয়ম্) শরীর বা বংশের দোষ বা রোগকে (অপ+উচ্ছতু) নিষ্কাশিত/বহিষ্কার করে/করুক ॥৫॥
भावार्थ
সকল মনুষ্য এমন সুপ্রবন্ধ করুক যাতে, দীন-দুঃখীদের যথাবৎ পালন হয়, উদ্যোগী দানী পুরুষ ও কৃষক অন্ন আদি প্রাপ্ত করুক। যেমন পরমেশ্বর ঔষধ আদি উৎপন্ন করে উপকার করেছেন, তেমনই সকলকে পরস্পর উপকারী হওয়া উচিত ॥৫॥
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