अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 10/ मन्त्र 2
कण्वा॑ इव॒ भृग॑वः॒ सूर्या॑ इव॒ विश्व॒मिद्धी॒तमा॑नशुः। इन्द्रं॒ स्तोमे॑भिर्म॒हय॑न्त आ॒यवः॑ प्रि॒यमे॑धासो अस्वरन् ॥
स्वर सहित पद पाठकण्वा॑:ऽइव । भृग॑व: । सूर्या॑ऽइव । विश्व॑सु । इत् । धी॒तम् । आ॒न॒शु॒: ॥ इन्द्र॑म् । स्तोमे॑भि: । म॒हय॑न्त: । आ॒यव॑: । प्रि॒यमे॑धास: । अ॒स्व॒र॒न् ॥१०.२॥
स्वर रहित मन्त्र
कण्वा इव भृगवः सूर्या इव विश्वमिद्धीतमानशुः। इन्द्रं स्तोमेभिर्महयन्त आयवः प्रियमेधासो अस्वरन् ॥
स्वर रहित पद पाठकण्वा:ऽइव । भृगव: । सूर्याऽइव । विश्वसु । इत् । धीतम् । आनशु: ॥ इन्द्रम् । स्तोमेभि: । महयन्त: । आयव: । प्रियमेधास: । अस्वरन् ॥१०.२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
ईश्वर की उपासना का उपदेश।
पदार्थ
(कण्वाः इव) बुद्धिमानों के समान और (सूर्याः इव) सूर्यों के समान [तेजस्वी], (भृगवः) परिपक्व ज्ञानवाले, (महयन्तः) पूजते हुए, (प्रियमेधासः) यज्ञ को प्रिय जाननेवाले (आयवः) मनुष्यों ने (विश्वम्) व्यापक, (धीतम्) ध्यान किये गये (इन्द्रम्) इन्द्र [परमात्मा] को (इत्) ही (स्तोमेभिः) स्तोत्रों से (आनशुः) पाया है और (अस्वरन्) उच्चारा है ॥२॥
भावार्थ
मनुष्य बुद्धिमानों और सूर्यों के समान प्रतापी होकर परमात्मा के गुणों को गाते हुए आत्मोन्नति करें ॥२॥
टिप्पणी
२−(कण्वाः) मेधाविनः (इव) यथा (भृगवः) सू० ९।३। परिपक्वज्ञानिनः (सूर्याः) प्रकाशमानाः सूर्यलोकाः (इव) यथा (विश्वम्) व्यापकम् (इत्) एव (धीतम्) ध्यातम् (आनशुः) प्रापुः (इन्द्रम्) परमात्मानम् (स्तोमेभिः) स्तोत्रैः (महयन्तः) पूजयन्तः (आयवः) मनुष्याः-निघ० २।३ (प्रियमेधासः) मिधृ मेधृ संगमे हिंसामेधयोश्च-घञ्, असुक् च। मेधो यज्ञनाम-निघ० ३।१७। मेधा यज्ञाः प्रिया येषां ते (अस्वरन्) शब्दम् अकुर्वन्। उच्चारितवन्तः ॥
विषय
कण्व+सूर्य-भृगु, प्रियमेध+आयु
पदार्थ
१. (कण्वा: इव) = मेधावी पुरुषों के समान तथा (सूर्याः इव) = सूर्यसम तेजस्वी व सूर्य के समान निरन्तर क्रियाशील (भृगव:) = तप की अग्नि में अपने को परिपक्व करनेवाले लोग (विश्वम्) = उस सर्वव्यापक [सर्वत्र विशति] (धीतम्) = ध्यान किये गये प्रभु को (इत्) = ही (आनशुः) = स्तोत्रों से प्राप्त करते हैं । २. (इन्द्रम्) = उस परमैश्वर्यशाली प्रभु को (स्तोमेभिः) = स्तुति-समूहों से (महयन्तः) = पूजते हुए (आयवः) = गतिशील (प्रियमेधास:) = बुद्धि-प्रिय मनुष्य (अस्वरन्) = स्तुतिशब्दों का उच्चारण करते.हैं। यह स्तवन ही उन्हें बुद्धिप्रिय व गतिशील बनाता है।
भावार्थ
हम प्रभु-स्तवन करते हुए मेधावी व क्रियाशील बनें। यही सच्ची तपस्या है। कण्व व प्रियमेध बनें, सूर्य व आयु बनें। यही भृगु बनने का मार्ग है। भृगु ही प्रभु को प्रास करता है। यह उपासक सबका हित करनेवाला "विश्वामित्र' बनता है। यही अगले सूक्त का ऋषि -
भाषार्थ
(सूर्या इव) सूर्य कि किरणें जिस प्रकार जगत् को शुद्ध करती हैं, इसी प्रकार अपने कायिक ऐन्द्रियिक और मानसिक मलों का (भृगवः) भर्जन करनेवाले तपस्वीजन भी (कण्वा इव) निमीलित-नेत्र होकर ध्यान करनेवाले योगियों के समान (विश्वं धीतम्) ध्यानाभ्यास के सब फलों को (आनशुः) प्राप्त कर लेते हैं। परन्तु (प्रियमेधासः) उपासनायज्ञों के साथ प्रीति रखनेवाले (आयवः) सर्वसाधारण उपासक जन, (स्तोमेभिः) सामगानों द्वारा (इन्द्रं महयन्तः अस्वरन्) परमेश्वर की महिमा का स्वरपूर्वक गान ही करते रहते हैं।
टिप्पणी
[धीतम्=ध्यातम्, ध्यानफलम्, आधीतम् अभिप्रेतम् (निरु০ १.३.३) अथवा “धीतम्”=आनन्दरस का पान, जो कि योग द्वारा साध्य होता है। धेट् पाने।]
विषय
परमेश्वर की उपासना।
भावार्थ
(कण्वा इव) जिस प्रकार मेधावी पुरुष, (भृगवः) और तेजस्वी, मलों को भून डालने वाले शुद्ध निष्पाप और जिस प्रकार (सूर्याः इव) सूर्य के समान ज्ञान-प्रकाश से युक्त विद्वान् पुरुष (धीतम्) ध्यान द्वारा उपासित (विश्वम्) विश्व के समस्त पदार्थों को (आनशुः) यथार्थ रूप से जान लेते हैं और वे ही (स्तोमेभिः) उत्तम स्तुतियों द्वारा (इन्द्रम्) परमेश्वर की (महयन्तः) पूजा करते हुए उसका गुणगान करते हैं, (प्रियमेधासः) मेधा बुद्धि को प्रिय मानने वाले या मनोहर बुद्धि सम्पन्न होकर (आयवः) पुरुष भी उस परमेश्वर की (अस्वरन्) स्तुति करते एवं उसका उपदेश करते हैं। अथवा—(प्रियमेधासः आयवः) बुद्धि, ज्ञान को प्रेम करने वाले ज्ञानी पुरुष उस परमात्मा की स्तुतियों द्वारा पूजा करते हुए स्तुति करते हैं और वे (विश्वत् इद् ध्यातम् आनशुः) ध्यान द्वारा उसके पूर्ण तत्व को (कण्वाः इव भृगवः सूर्याः इव) कण्व, भृगु और सूर्यों के समान जान लेते हैं। ‘कण्वा’ कणानिमीलने, अस्मात् क्वन् प्रत्ययः। बाह्येन्द्रियों को निमीलित करके ध्यान करने वाले ध्यानी ‘कण्व’ हैं। ‘भृगवः’—‘भ्रस्जपाके’ इत्यतः उः सम्प्रसारणं सलोपश्च। प्रति परिपक्व ज्ञानवान्, अर्थात् अपने सुदीर्घ अनुभव से ज्ञान को परिपक्व करने वाले ज्ञानी ‘भृगु’ कहते हैं। ‘सूर्याः’—आदित्य के समान तेजस्वी, ज्ञान के भण्डार आदित्य योगी सूर्य कहाते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
मेध्यातिथि र्ऋषिः। इन्द्रो देवता। प्रगाथे। द्वयृचं सूक्तम्।
इंग्लिश (4)
Subject
Indr a Devata
Meaning
Brilliant scholars and sages as well as brave heroes of the human nation and loving and intelligent citizens of the land, praising and exalting Indra in one vaulting voice, rise and reach the presence of the lord in a world their own like rays of the sun filling the world of space they know.
Translation
Like most wise ones.‘Like ones’ who have burnt their evils in the fire of knowledge, and like luminous suns the men for whom the wisdom is dear may attain the knowledge of entire world present in concentration and worshipping Almighty God with prayers and praise glorify Him.
Translation
Like most wise ones. ‘Like ones’ who have burnt their evils in the fire of knowledge, and like luminous suns the men for whom the wisdom is dear may attain the knowledge of entire world present in concentration and worshipping Almighty God with prayers and praise glorify Him.
Translation
Just as the wise people, like evil-smashing pious persons, equipped with brilliant knowledge like the Sun, acquire the knowledge of the whole of the universe in deep contemplation so do those persons, to whom intellect is very dear, and who worship the Adorable God with songs of praises do preach the same to others.
Footnote
(1-2) cf. Rig, 8.3. (15-16). This sukta can also be applied to infallible weapons of destruction like the Brahmastra in the Mahabharata. But, that requires thorough research.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२−(कण्वाः) मेधाविनः (इव) यथा (भृगवः) सू० ९।३। परिपक्वज्ञानिनः (सूर्याः) प्रकाशमानाः सूर्यलोकाः (इव) यथा (विश्वम्) व्यापकम् (इत्) एव (धीतम्) ध्यातम् (आनशुः) प्रापुः (इन्द्रम्) परमात्मानम् (स्तोमेभिः) स्तोत्रैः (महयन्तः) पूजयन्तः (आयवः) मनुष्याः-निघ० २।३ (प्रियमेधासः) मिधृ मेधृ संगमे हिंसामेधयोश्च-घञ्, असुक् च। मेधो यज्ञनाम-निघ० ३।१७। मेधा यज्ञाः प्रिया येषां ते (अस्वरन्) शब्दम् अकुर्वन्। उच्चारितवन्तः ॥
बंगाली (2)
मन्त्र विषय
ঈশ্বরোপাসনোদেপশঃ
भाषार्थ
(কণ্বাঃ ইব) বুদ্ধিমানদের সমান এবং (সূর্যাঃ ইব) সূর্যে-সমূহের সমান [তেজস্বী], (ভৃগবঃ) পরিপক্ব জ্ঞানী, (মহয়ন্তঃ) পূজা করে, (প্রিয়মেধাসঃ) যজ্ঞকে প্রিয় জানে এমন (আয়বঃ) মনুষ্যগণ (বিশ্বম্) ব্যাপক, (ধীতম্) ধ্যেয় (ইন্দ্রম্) ইন্দ্র [পরমাত্মা] কে (ইৎ) ই (স্তোমেভিঃ) স্তোত্র দ্বারা (আনশুঃ) প্রাপ্ত করেছে এবং (অস্বরন্) উচ্চারণ করেছে ॥২॥
भावार्थ
মনুষ্য বুদ্ধিমান এবং সূর্য-সমূহের সমান প্রতাপী হয়ে পরমাত্মার গুণগান করে আত্মোন্নতি করুক॥২॥
भाषार्थ
(সূর্যা ইব) সূর্যের কিরণ যেরূপ জগচকে শুদ্ধ করে, তেমনই নিজের কায়িক ঐন্দ্রিয়িক এবং মানসিক মল (ভৃগবঃ) দূরীভূতকারী তপস্বীরাও (কণ্বা ইব) নিমীলিত-নেত্র হয়ে ধ্যানকারী যোগীদের সমান (বিশ্বং ধীতম্) ধ্যানাভ্যাসের সকল ফল (আনশুঃ) প্রাপ্ত করে নেয়। কিন্তু (প্রিয়মেধাসঃ) উপাসনাযজ্ঞের সাথে প্রীতি স্থাপনকারী (আয়বঃ) সর্বসাধারণ উপাসক, (স্তোমেভিঃ) সামগান দ্বারা (ইন্দ্রং মহয়ন্তঃ অস্বরন্) পরমেশ্বরের মহিমার স্বরপূর্বক গান করতে থাকে।
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