Loading...
अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 104 के मन्त्र
मन्त्र चुनें
  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 104/ मन्त्र 3
    ऋषिः - मेध्यातिथिः देवता - इन्द्रः छन्दः - प्रगाथः सूक्तम् - सूक्त-१०४
    41

    आ नो॒ विश्वा॑सु॒ हव्य॒ इन्द्रः॑ स॒मत्सु॑ भूषतु। उप॒ ब्रह्मा॑णि॒ सव॑नानि वृत्र॒हा प॑रम॒ज्या ऋची॑षमः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । न॒: । विश्वा॑सु । हव्य॑: । इन्द्र॑: । स॒मत्ऽसु॑ । भू॒ष॒तु॒ । उप॑ । ब्रह्मा॑णि । सव॑नानि । वृ॒त्र॒ऽहा । प॒र॒म॒ऽज्या: । ऋची॑षम् ॥१०४.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ नो विश्वासु हव्य इन्द्रः समत्सु भूषतु। उप ब्रह्माणि सवनानि वृत्रहा परमज्या ऋचीषमः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । न: । विश्वासु । हव्य: । इन्द्र: । समत्ऽसु । भूषतु । उप । ब्रह्माणि । सवनानि । वृत्रऽहा । परमऽज्या: । ऋचीषम् ॥१०४.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 104; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    परमेश्वर के गुणों का उपदेश।

    पदार्थ

    (विश्वासु) सब (समत्सु) संग्रामों में (हव्यः) पुकारने योग्य, (वृत्रहा) अन्धकार मिटानेवाला, (परमज्याः) बड़े शत्रुओं का मारनेवाला, (ऋचीषमः) स्तुति के समान गुणवाला (इन्द्रः) इन्द्र [परम ऐश्वर्यवाला परमात्मा] (नः) हमारे (ब्रह्माणि) वेदज्ञानों और (सवनानि) ऐश्वर्य की वस्तुओं को (आ) सब ओर से (उप) भले प्रकार (भूषतु) शोभायमान करे ॥३॥

    भावार्थ

    मनुष्य परमपिता परमेश्वर का आश्रय लेकर शत्रुओं का नाश करके ऐश्वर्य बढ़ावें ॥३॥

    टिप्पणी

    मन्त्र ३, ४ ऋग्वेद में हैं-८।९० [सायणभाष्य ७९]।१, २; सामवेद-उ० ७।१।२; मन्त्र १ साम० पू० ३।८।७ ॥ ३−(आ) समन्तात् (नः) अस्माकम् (विश्वासु) सर्वासु (हव्यः) आह्वातव्यः (इन्द्रः) परमेश्वरः (समत्सु) संग्रामेषु (भूषतु) अलंकरोतु (उप) पूजायाम् (ब्रह्माणि) वेदज्ञानानि (सवनानि) ऐश्वर्यवस्तूनि (वृत्रहा) अन्धकारनाशकः (परमज्याः) आतो मनिन् क्वनिब्वनिपश्च। पा० ३।२।७४। परम+ज्या वयोहानौ-विच्। महाशत्रूणां नाशयिता (ऋचीषमः) अथ० २०।३।१। स्तुतितुल्यगुणयुक्तः ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    ब्रह्माणि सवनानि [उप]

    पदार्थ

    १. (इन्द्रः) = वह शत्रुसंहारक प्रभु (विश्वासु समत्सु) = सब संग्रामों में (हव्यः) = पुकारने योग्य होते हैं। वे (प्रभुनः) = हमें (आभूषतु) = अलंकृत करनेवाले हों। प्रभु को अपने हदयों में आसीन करके ही हम शत्रुओं का संहार कर पाते हैं। २.वे प्रभु सदा (ब्रह्माणि) = ज्ञानपूर्वक की गई स्तुतिवाणियों के साथ तथा (सवनानि) = यज्ञों के (उप) = समीप प्राप्त होते हैं, अर्थात् प्रभु उसी व्यक्ति को प्राप्त होते हैं जो अपने जीवन को स्तुतिमय व यज्ञमय बनाता है। वे प्रभु (वृत्रहा) = ज्ञान की आवरणभूत वासना का विनाश करते हैं। (परमज्या) = [परमान् जिनाति] अत्यन्त प्रबल शत्रुओं को भी समास करनेवाले हैं। (ऋचीषमः) = [स्तुत्या समः]-स्तुतियों से अभिमुखीकरणीय होते हैं। जितना-जितना हम प्रभु स्तवन करते हैं, उतना-उतना ही प्रभु के समीप होते हैं।

    भावार्थ

    सब संग्रामों में प्रभु ही हमें विजयी बनाते हैं। वे ही हमारे जीवनों को अलंकृत करते हैं। ज्ञान व यज्ञ के द्वारा हम प्रभु को समीपता से प्राप्त होते हैं। प्रभु ही हमारे शत्रुओं का विनाश करते हैं।

    इस भाष्य को एडिट करें

    भाषार्थ

    (नः) हम उपासकों के (विश्वासु समत्सु) सब देवासुर-संग्रामों में (हव्यः) सहायतार्थ पुकारा गया (इन्द्रः) परमेश्वर, (आ भूषतु) आसुरभावनाओं के पराभव द्वारा हमें विभूषित करे। (वृत्रहा) पाप-वृत्रों का हनन करनेवाला परमेश्वर, (ब्रह्माणि) हमारे ब्रह्मस्तावक स्तोत्रों, और (सवनानि) हमारे भक्तिरसमय यज्ञों में, (उप) हमारे समीपस्थ हो जाए। (परमज्या) पापों के विनाश के लिए उसकी धनुष्-डोरी सर्वोत्कृष्ट है, (ऋचीषमः) उसका ऋचाओं में समरूप से वर्णन हुआ है।

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    राजा परमेश्वर।

    भावार्थ

    (हव्यः) स्तुतियोग्य (इन्द्रः) परमेश्वर (नः) हमारी (विश्वासु) समस्त (समत्सु) आनन्द प्रसन्नता की दशाओं में (आभूषतु) प्रकट होवे। और वह (वृत्रहा) आवरणकारी अज्ञान का नाशक (परमज्याः) प्रधान प्रधान बाधक कारणों और बंधनों को नाश करने वाला (ऋचीषमः) समस्त स्तुतियों या वेदमन्त्रों में समान रूप से व्यापक परमेश्वर (ब्रह्माणि) वेदमन्त्रों को और (सवनानि) स्तुतियों को (उपभूषतु) प्राप्त करे। राजा के पक्ष में—वह (हव्यः) स्तुति योग्य, (विश्वासु समत्सु आ भूषतु) समस्त संग्रामों में विद्यमान हो। वह शत्रुनाशक परम प्रबल शत्रुओं का नाशक स्तुतियों का समान रूप से पात्र होकर (ब्रह्माणि) बड़े बड़े वीर्यवान् पदों अधिकारों को और अन्नों को और (सवनानि) अभिषेक क्रियाओं को (उप भूषतु) प्राप्त हों।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १-२ मेध्यातिथिर्ऋषिः। ३-४ नृमेधः। इन्दो देवता। प्रगाथाः। चतुर्ऋचं सूक्तम्॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (4)

    Subject

    Agni Devata

    Meaning

    Indra, lord of universal energy, world power and human forces, is worthy of reverence and invocation in all our joint battles of life. May the lord of strongest bow, destroyer of evil and dispeller of darkness and ignorance, great and glorious as sung in the Rks, grace our songs of adoration and faithful efforts with the beauty and glory of success.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    May Almignty God who is invoked in all the wars, who is dispeller of ignorance and destroyer of our internal enemies (aversion etc) and who deserves all praise adorn our Yajna and prayers.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    May Almighty God who is invoked in all the wars, who is dispeller of ignorance and destroyer of our internal enemies (aversion etc) and who deserves all praise adorn our Yajna and prayers.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    O God or king, Thou art the foremost Giver of all riches; Thou art the True Investor of Ruling Powers. We (the devotees) espouse alliance with the Highly Glorious One, Protector of great strength and power.

    इस भाष्य को एडिट करें

    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    मन्त्र ३, ४ ऋग्वेद में हैं-८।९० [सायणभाष्य ७९]।१, २; सामवेद-उ० ७।१।२; मन्त्र १ साम० पू० ३।८।७ ॥ ३−(आ) समन्तात् (नः) अस्माकम् (विश्वासु) सर्वासु (हव्यः) आह्वातव्यः (इन्द्रः) परमेश्वरः (समत्सु) संग्रामेषु (भूषतु) अलंकरोतु (उप) पूजायाम् (ब्रह्माणि) वेदज्ञानानि (सवनानि) ऐश्वर्यवस्तूनि (वृत्रहा) अन्धकारनाशकः (परमज्याः) आतो मनिन् क्वनिब्वनिपश्च। पा० ३।२।७४। परम+ज्या वयोहानौ-विच्। महाशत्रूणां नाशयिता (ऋचीषमः) अथ० २०।३।१। स्तुतितुल्यगुणयुक्तः ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    পরমেশ্বরগুণোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (বিশ্বাসু) সমস্ত (সমৎসু) সংগ্রামে (হব্যঃ) আহ্বান যোগ্য, (বৃত্রহা) অন্ধকারনাশক, (পরমজ্যাঃ) মহাশত্রুদের বিনাশকারী, (ঋচীষমঃ) স্তুতিতুল্য গুণযুক্ত (ইন্দ্রঃ) ইন্দ্র [পরম ঐশ্বর্যযুক্ত পরমাত্মা] (নঃ) আমাদের (ব্রহ্মাণি) বেদজ্ঞান এবং (সবনানি) ঐশ্বর্যের বস্তুসমূহকে (আ) সর্ব দিক থেকে (উপ) উত্তমরূপে (ভূষতু) শোভিত করেন॥৩॥

    भावार्थ

    মনুষ্য পরমপিতা পরমেশ্বরের আশ্রয় গ্রহণ করে শত্রুদের বিনাশ করে ঐশ্বর্য বৃদ্ধি করুক ॥৩॥ মন্ত্র ৩, ৪ ঋগ্বেদে আছে-৮।৯০ [সায়ণভাষ্য ৭৯]।১, ২; সামবেদ-উ০ ৭।১।২; মন্ত্র ১ সাম০ পূ০ ৩।৮।৭।

    इस भाष्य को एडिट करें

    भाषार्थ

    (নঃ) আমাদের [উপাসকদের] (বিশ্বাসু সমৎসু) সকল দেবাসুর-সংগ্রামে (হব্যঃ) সহায়তার্থে আহূত (ইন্দ্রঃ) পরমেশ্বর, (আ ভূষতু) আসুরিকভাবনার পরাভব দ্বারা আমাদের বিভূষিত করেন/করুক। (বৃত্রহা) পাপ-বৃত্রের হননকারী পরমেশ্বর, (ব্রহ্মাণি) আমাদের ব্রহ্মস্তাবক স্তোত্র, এবং (সবনানি) আমাদের ভক্তিরসময় যজ্ঞে, (উপ) আমাদের সমীপস্থ হন/হোক। (পরমজ্যা) পাপের বিনাশের জন্য উনার ধনুকের-দড়ি/ছিলা সর্বোৎকৃষ্ট, (ঋচীষমঃ) উনার ঋচা-সমূহে সমরূপে বর্ণনা হয়েছে।

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top