अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 110/ मन्त्र 2
ऋषिः - श्रुतकक्षः सुकक्षो वा
देवता - इन्द्रः
छन्दः - गायत्री
सूक्तम् - सूक्त-११०
40
यस्मि॒न्विश्वा॒ अधि॒ श्रियो॒ रण॑न्ति स॒प्त सं॒सदः॑। इन्द्रं॑ सु॒ते ह॑वामहे ॥
स्वर सहित पद पाठयस्मि॑न् । विश्वा॑: । अधि॑ । श्रिय॑: । रण॑न्ति । स॒प्त । स॒म्ऽसद॑: ॥ इन्द्र॑म् । सु॒ते । ह॒वा॒म॒हे॒ ॥११०.२॥
स्वर रहित मन्त्र
यस्मिन्विश्वा अधि श्रियो रणन्ति सप्त संसदः। इन्द्रं सुते हवामहे ॥
स्वर रहित पद पाठयस्मिन् । विश्वा: । अधि । श्रिय: । रणन्ति । सप्त । सम्ऽसद: ॥ इन्द्रम् । सुते । हवामहे ॥११०.२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
विद्वानों के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थ
(यस्मिन्) जिस [पुरुष] में (सप्त) सात (संसदः) मिलकर बैठनेवाले [अर्थात् त्वचा, नेत्र, कान, जिह्वा, वाक्, मन और बुद्धि] (विश्वाः) सब (श्रियः) सम्पत्तियों को (अधि) अधिकारपूर्वक (रणन्ति) पाते हैं, (इन्द्रम्) उस इन्द्र [महाप्रतापी मनुष्य] को (सुते) सिद्ध किये तत्त्वरस में (हवामहे) हम बुलाते हैं ॥२॥
भावार्थ
जो मनुष्य इन्द्रियों को वश करके सब सम्पत्तियाँ प्राप्त करे, वह सबका माननीय होवे ॥२॥
टिप्पणी
यजुर्वेद ३४।। में आया है−(सप्त ऋषयः प्रतिहिताः शरीरे) सात ऋषि [अर्थात् त्वचा, नेत्र, कान, जिह्वा, वाक्, मन और बुद्धि] शरीर में रक्खे हुए हैं ॥ २−(यस्मिन्) इन्द्रे (विश्वाः) सर्वाः (अधि) अधिकृत्य (श्रियः) सम्पत्तीः (रणन्ति) गच्छन्ति। प्राप्नुवन्ति (सप्त) सप्तसंख्याकाः (संसदः) परस्परस्थितिशीलाः−त्वचानेत्रश्रोत्रजिह्वावाङ्मनोबुद्धयः (इन्द्रम्) तं महाप्रतापिनं मनुष्यम् (सुते) निष्पादिते तत्त्वरसे (हवामहे) आह्वयामः ॥
विषय
'श्री-पति' विष्णु
पदार्थ
१. (यस्मिन) = जिन प्रभु में (विश्वाः श्रियः) = सब लक्ष्मियाँ (अधि) = आधिक्येन निवास करती हैं। जिस प्रभु के विषय में (सप्त) = सातों (संसदः) = होता 'कर्णाविमौ नासिके चक्षणी मुखम्' (रणन्ति) = स्तोत्रों का उच्चारण करते हैं, उस (इन्द्रम्) = परमैश्वर्यशाली प्रभु को-सब इन्द्रियों को शक्ति देनेवाले प्रभु को (सुते) = इस सोम के सम्पादन व रक्षण के निमित्त (हवामहे) = पुकारते हैं। प्रभु ने ही वासना विनाश द्वारा इस सोम का रक्षण करना है।
भावार्थ
प्रभु ही सब विषयों के आधार हैं। प्रभु ही हमारी कर्ण आदि इन्द्रियों को श्रीसम्पन्न बनाते हैं। इस श्रीसम्पादन के लिए प्रभु ही हमारे शरीरों में सोम का रक्षण करते हैं।
भाषार्थ
(यस्मिन् अधि) जिस परमेश्वर में (विश्वाः) सब शोभाएँ और सम्पत्तियाँ, तथा (सप्त संसदः) अपने-अपने स्थानों में सम्यक् प्रकार से स्थित ७ लोक (रणन्ति) रमण कर रहे हैं, (इन्द्रम्) उस परमेश्वर का, (सुते) भक्तिरस के उत्पन्न होने पर (हवामहे) हम आह्वान करते हैं।
टिप्पणी
[सप्त संसदः=भूलोक, भुवर्लोक, स्वर्लोक, महर्लोकः, जनलोक, तपोलोक तथा सत्यलोक।]
विषय
परमात्मा, आत्मा।
भावार्थ
(यस्मिन् अधि) जिसके आश्रय पर (विश्वाः श्रियः) समस्त सेवन करने योग्य लक्ष्मियां और समस्त शोभाएं और (सप्त संसदः) सात संसत्, राजा के आश्रय सात संसत्, राष्ट्र संस्थाओं के समान परमेश्वर के आश्रय सात लोक, और आत्मा के आश्रयभूत शरीर के सात प्राण या सात धातुएं (रणन्ति) शोभा देती हैं (इन्द्रम्) आत्मा को लक्ष्य करके (सुते) परम आनन्द रस प्राप्त होने पर (हवामहे) हम स्तुति किया करते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सुतकक्षः सुकक्षो वा ऋषिः। इन्द्रो देवता। गायत्र्यः। तृचं सूक्तम्।
इंग्लिश (4)
Subject
Agni Devata
Meaning
In our soma yajna of life, in meditation, and in the holy business of living, we invoke Indra, in whom all beauties and graces abide, whom all the seven seers in yajna adore, in whom all five senses, mind and intelligence subside absorbed, and under whom all the seven assemblies of the world unite, meet and act.
Translation
In this created world we praise and pray Almighty God in whom all the decencies and seven groups of energy (the Maruts) rest and remain.
Translation
In this created world we praise and pray Almighty God in whom all the decencies and seven groups of energy (the Maruts) rest and remain.
Translation
In the three worlds, or assemblies or states (Jagrit, swapna and smadhi the divine forces, persons or sense-organs, extend or reveal the glory of the All-knowing, All-combining God, king or soul. Let our speeches extoll Him, or him alone.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
यजुर्वेद ३४।। में आया है−(सप्त ऋषयः प्रतिहिताः शरीरे) सात ऋषि [अर्थात् त्वचा, नेत्र, कान, जिह्वा, वाक्, मन और बुद्धि] शरीर में रक्खे हुए हैं ॥ २−(यस्मिन्) इन्द्रे (विश्वाः) सर्वाः (अधि) अधिकृत्य (श्रियः) सम्पत्तीः (रणन्ति) गच्छन्ति। प्राप्नुवन्ति (सप्त) सप्तसंख्याकाः (संसदः) परस्परस्थितिशीलाः−त्वचानेत्रश्रोत्रजिह्वावाङ्मनोबुद्धयः (इन्द्रम्) तं महाप्रतापिनं मनुष्यम् (सुते) निष्पादिते तत्त्वरसे (हवामहे) आह्वयामः ॥
बंगाली (2)
मन्त्र विषय
বিদ্বৎকর্তব্যোপদেশঃ
भाषार्थ
(যস্মিন্) যার [পুরুষের] মধ্যে (সপ্ত) সাতটি (সংসদঃ) পরস্পর স্থিতিশীল [অর্থাৎ ত্বক, নেত্র, কান, জিহ্বা, বাক্, মন এবং বুদ্ধি] (বিশ্বাঃ) সকল (শ্রিয়ঃ) সম্পত্তি (অধি) অধিকারপূর্বক (রণন্তি) প্রাপ্ত করে, (ইন্দ্রম্) সেই ইন্দ্রকে [মহাপ্রতাপী মনুষ্যকে] (সুতে) নিষ্পাদিত তত্ত্বরসে (হবামহে) আমরা আহ্বান করি ॥২॥
भावार्थ
যে মনুষ্য ইন্দ্রিয়কে বশবর্তী করে সমস্ত সম্পত্তি লাভ করে, সে সকলের সম্মাননীয়/মাননীয় হোক ॥২॥ যজুর্বেদ ৩৪॥৫ এ আছে−(সপ্ত ঋষয়ঃ প্রতিহিতাঃ শরীরে) সাত ঋষি [অর্থাৎ ত্বক, নেত্র, কান, জিহ্বা, বাক্, মন এবং বুদ্ধি] শরীরে স্থিত ॥
भाषार्थ
(যস্মিন্ অধি) যে পরমেশ্বরের মধ্যে (বিশ্বাঃ) সকল শোভা এবং সম্পত্তি, তথা (সপ্ত সংসদঃ) নিজ-নিজ স্থানে সম্যক্ প্রকারে স্থিত ৭ লোক (রণন্তি) রমণ করছে, (ইন্দ্রম্) সেই পরমেশ্বরের, (সুতে) ভক্তিরস উৎপন্ন হলে (হবামহে) আমরা আহ্বান করি।
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