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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 29 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 29/ मन्त्र 4
    ऋषिः - गोषूक्त्यश्वसूक्तिनौ देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - सूक्त-२९
    39

    मा॒याभि॑रु॒त्सिसृ॑प्सत इन्द्र॒ द्यामा॒रुरु॑क्षतः। अव॒ दस्यूँ॑रधूनुथाः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मा॒याभि॑: । उ॒त्ऽसिसृप्सत: । इन्द्र॑ । द्याम् । आ॒ऽरुरु॑क्षत: ॥ अव॑ । दस्यू॑न् । अ॒धू॒नु॒था॒: ॥२९.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मायाभिरुत्सिसृप्सत इन्द्र द्यामारुरुक्षतः। अव दस्यूँरधूनुथाः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मायाभि: । उत्ऽसिसृप्सत: । इन्द्र । द्याम् । आऽरुरुक्षत: ॥ अव । दस्यून् । अधूनुथा: ॥२९.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 29; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    राजा के धर्म का उपदेश।

    पदार्थ

    (इन्द्र) हे इन्द्र ! [बड़े ऐश्वर्यवाले सेनापति] (उत्सिसृप्सतः) उछलते हुए और (द्याम्) आकाश को (आरुरुक्षतः) चढ़ते हुए (दस्यून्) डाकुओं को तूने (मायाभिः) अपनी बुद्धियों से (अव अधूनुथाः) ओंधा गिरा दिया है ॥४॥

    भावार्थ

    जो शत्रु लोग विमान आदि से आकाश में चढ़कर उपद्रव मचावें, युद्धकुशल सेनापति विमान आदि में चढ़कर उन्हें गिरावें ॥४॥

    टिप्पणी

    ४−(मायाभिः) प्रज्ञाभिः (उत्सिसृप्सतः) सृप्लृ गतौ-सनि शतृ। उत्सर्पणेच्छून्। ऊर्ध्वगमनेच्छून् (इन्द्र) हे परमैश्वर्यवन् सेनापते (द्याम्) आकाशम् (आरुरुक्षतः) रुह प्रादुर्भावे-सनि शतृ। आरोहणेच्छून् (अव) अधोमुखम् (दस्यून्) उपक्षेप्तॄन्। दुष्टान्। चौरान् (अधूनुथाः) धूञ् कम्पने-लङ्। कम्पितवान् प्रेरितवानसि ॥

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    विषय

    मायाभिः उत् सिसृप्सतः दस्यून् [अवाधूनुथा:]

    पदार्थ

    १. विषय-वासनाओं की कामनाएँ नाना प्रकार से धोखा देकर हमारे अन्दर प्रवेश कर जाती हैं और हमारे मस्तिष्क में अपना स्थान बना लेती हैं। उस समय इनका पराभव बड़ा कठिन हो जाता है, परन्तु हे (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पुरुष! तू (मायाभिः) = छल-कपटों के द्वारा (उत्सिसृप्सतः) = हमारे अन्दर ऊर्ध्वगति की कामनावाली होती हुई और (द्याम् आरुरुक्षत:) = मस्तिष्करूप धुलोक में आरुढ़ होती हुई इन (दस्यून्) = विनाशक वासनावृत्तियों को (अव अधूनुथा:) - अधोमुख करके नीचे पटक देता है।

    भावार्थ

    हम विषयवासना की वृत्तियों को मस्तिष्क में अपना स्थान न बना लेने दें। वहाँ अपना स्थान बनाने से पूर्व ही इन्हें विनष्ट कर डालें। ये तो मायावी रूप धारण करके हममें प्रबल होने के लिए यत्नशील होंगी।

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    भाषार्थ

    (इन्द्र) हे परमेश्वर! (मायाभिः) आपकी वैदिक-प्रज्ञाओं के सहारे (उत् सिसृप्सतः) सुषुम्णानाड़ी के ऊपर की ओर सर्पण करनेवाले, शनैः शनैः ऊर्ध्वगति करनेवाले, और (द्याम्) शिरस्थ सहस्रार-चक्र की ओर (आरुरुक्षतः) आरोहण करनेवाले उपासक के (दस्यून्) उपक्षयकारी अविद्या और तज्जन्य अस्मिता और राग-द्वेष आदि को आपने (अव अधूनुथाः) पृथक् कर दिया।

    टिप्पणी

    [माया=प्रज्ञा (निघं০ ३.९)।]

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    विषय

    राजा का कर्त्तव्य

    भावार्थ

    हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् राजन् ! (मायाभिः) नाना निर्माण कौशलों से (उत्सिसृप्सतः) ऊपर ना चढ़ने की इच्छा करने वाले और (द्याम् आरुक्षतः) आकाश में चढने वाले (दस्यून्) नाशकारी शत्रुओं को भी तू (मायाभिः) नाना विज्ञान कौशलों से (अव अधूनुथाः) नीचे गिरा डाल।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋष्यादयः पूर्ववत्। गायत्र्यः। पञ्चर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Self-integration

    Meaning

    With your mysterious powers and tactics, you destroy the crafty thieves and saboteurs roaming around even if they have risen to the heights of clouds.

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    Translation

    This air casts down the clouds which restraining their waters cause draught and with tricks climb up and mount to heaven.

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    Translation

    This air casts down the clouds which restraining their waters cause draught and with tricks climb up and mount to heaven.

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    Translation

    O mighty king or soul, crush down the violent foes or the evils, desirous of rising above and even flying to the heavens by various means of intelligent constructions and designs, like aeroplanes or space-ships.

    Footnote

    The soul should be powerful enough to shed off ail evil forces, that may try to gain ascending over it by deceitful means or by lures of the world

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ४−(मायाभिः) प्रज्ञाभिः (उत्सिसृप्सतः) सृप्लृ गतौ-सनि शतृ। उत्सर्पणेच्छून्। ऊर्ध्वगमनेच्छून् (इन्द्र) हे परमैश्वर्यवन् सेनापते (द्याम्) आकाशम् (आरुरुक्षतः) रुह प्रादुर्भावे-सनि शतृ। आरोहणेच्छून् (अव) अधोमुखम् (दस्यून्) उपक्षेप्तॄन्। दुष्टान्। चौरान् (अधूनुथाः) धूञ् कम्पने-लङ्। कम्पितवान् प्रेरितवानसि ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    রাজধর্মোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (ইন্দ্র) হে ইন্দ্র! [পরম ঐশ্বর্যবান সেনাপতি](উৎসিসৃপ্সতঃ) লম্ফনকারী এবং (দ্যাম্) আকাশে (আরুরুক্ষতঃ) আরোহণকারী (দস্যূন্) ডাকাতদের তুমি (মায়াভিঃ) নিজ বুদ্ধি দ্বারা (অব অধূনুথাঃ) নীচে পতিত করেছো ॥৪॥

    भावार्थ

    যে শত্রুগন বিমান আদি দ্বারা আকাশে উড়ে উপদ্রব করবে, যুদ্ধকুশল সেনাপতি বিমানআদিতে আরোহণ করে তাঁদের নীচে পতিত করুক॥৪॥

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    भाषार्थ

    (ইন্দ্র) হে পরমেশ্বর! (মায়াভিঃ) আপনার বৈদিক-প্রজ্ঞার সহায়তায়/আশ্রয়ে (উৎ সিসৃপ্সতঃ) সুষুম্ণানাড়ীর উপরের দিকে সর্পণকারী, শনৈঃ শনৈঃ/ধীরে-ধীরে ঊর্ধ্বগামী, এবং (দ্যাম্) শিরস্থ সহস্রার-চক্রের দিকে (আরুরুক্ষতঃ) আরোহণকারী উপাসকের (দস্যূন্) উপক্ষয়কারী অবিদ্যা এবং তজ্জন্য অস্মিতা ও রাগ-দ্বেষ প্রভৃতি আপনি (অব অধূনুথাঃ) পৃথক্ করেছেন।

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