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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 31 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 31/ मन्त्र 4
    ऋषिः - बरुः सर्वहरिर्वा देवता - हरिः छन्दः - जगती सूक्तम् - सूक्त-३१
    41

    स्रुवे॑व यस्य॒ हरि॑णी विपे॒ततुः॒ शिप्रे॒ वाजा॑य॒ हरि॑णी॒ दवि॑ध्वतः। प्र यत्कृ॒ते च॑म॒से मर्मृ॑ज॒द्धरी॑ पी॒त्वा मद॑स्य हर्य॒तस्यान्ध॑सः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स्रुवा॑ऽइव । यस्‍य॑ । हरि॑णी॒ इति॑ । वि॒ऽपे॒ततु॑: । शि॒प्रे॒ इति॑ । वाजा॒य । हरि॑णी॒ इति॑ ।‍ दवि॑ध्वत: ॥ प्र । यत् । कृ॒ते । च॒म॒से । मर्मृ॑जत् । हरी॒ इति॑ । पी॒त्वा । मद॑स्य । ह॒र्य॒तस्य॑ । अन्ध॑स: ॥३१.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स्रुवेव यस्य हरिणी विपेततुः शिप्रे वाजाय हरिणी दविध्वतः। प्र यत्कृते चमसे मर्मृजद्धरी पीत्वा मदस्य हर्यतस्यान्धसः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    स्रुवाऽइव । यस्‍य । हरिणी इति । विऽपेततु: । शिप्रे इति । वाजाय । हरिणी इति ।‍ दविध्वत: ॥ प्र । यत् । कृते । चमसे । मर्मृजत् । हरी इति । पीत्वा । मदस्य । हर्यतस्य । अन्धस: ॥३१.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 31; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    पुरुषार्थ करने का उपदेश।

    पदार्थ

    (वाजाय) अन्न के लिये (यस्य) जिस [सेनापति] के (हरिणी) स्वीकार करने योग्य (शिप्रे) दोनों जावड़े (स्रुवा इव) दो चमचाओं के समान (विपेततुः) विविध प्रकार चलते हैं, [उसके राज्य में] (हरिणी) सुख हरनेवाली [अविद्या और कुनीति] दोनों (दविध्वतः) सर्वथा मिट जाती हैं। (यत्) क्योंकि वह (चमसे कृते) भोजन सिद्ध होने पर (मदस्य) आनन्ददायक, (हर्यतस्य) कामनायोग्य (अन्धसः) अन्न का (पीत्वा) पान करके (हरी) बल और पराक्रम दोनों को (प्र) अच्छे प्रकार (मर्मृजत्) शुद्ध करता है ॥४॥

    भावार्थ

    जैसे अन्न खाने से भूख मिटती है और स्रुवा से अग्नि में घी डालने से धुआँ नष्ट हो जाता है, वैसे ही जो राजा विद्या और सुनीति के फैलाने से अविद्या और कुनीति मिटाता है, वह अन्न के भोजन से बल और पराक्रम बढ़ाता है ॥४॥

    टिप्पणी

    ४−(स्रुवा) स्रुवौ। चमसौ (इव) यथा (यस्य) सेनापतेः (हरिणी) हृञ् स्वीकारे-इनच्, उ०२।४६। स्वीकरणीये (विपेततुः) लङर्थे लिट्। विविधं पततश्चलतः (शिप्रे) अथर्व-२०।४।१। शिञ् निशाने छेदने-रक् पुक्च, टाप्। शिप्रे हनू नासिके वा-निरु०६।१७। हनू (वाजाय) अन्नाय (हरिणी) हृञ् नाशने-इनच्। सुखनाशिके अविद्याकुनीती (दविध्वतः) दाधर्तिदर्धर्ति०। पा०७।४।६। ध्वृ कौटिल्ये यङ्लुकि लट् द्विवचनान्तः। ध्वरति वधकर्मा-निघ०२।१६। सर्वथा विनश्यतः (प्र) प्रकर्षेण (यत्) यत् (कृते) संस्कृते (चमसे) भोजने (मर्मृजत्) मृजू शुद्धौ-लट्। मार्ष्टि। शोधयति (हरी) दुःखहर्तारौ बलपराक्रमौ (पीत्वा) पानं कृत्वा (मदस्य) आनन्दकस्य (हर्यतस्य) कमनीयस्य (अन्धसः) अन्नस्य॥

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    विषय

    इन्द्रियों का परिमार्जन

    पदार्थ

    १. (यस्य) = जिसके (हरिणी) = [ऋक्सामे वा इन्द्रस्य हरी-प० १.१] ऋक् और साम-विज्ञान व भक्ति-स्(त्रु इव) = दो खुवों के समान-यज्ञपात्रों के समान (विपेततुः) = विशिष्ट गतिवाले होते हैं, अर्थात् जिसके जीवन में विज्ञान व भक्ति का समन्वय होता है। २. जिसके (शिप्रे) = हनू और नासिका (वाजाय) = शक्ति-वृद्धि के लिए (हरिणी) = रोगों व वासनाओं का हरण करनेवाले होकर (दविध्वत:) = इन रोगों व वासनाओं को कम्पित करके दूर करते हैं। हनू का चर्वणरूप कार्य ठीक से होने पर रोग नहीं आते तथा नासिका का प्राणायामरूप कार्य ठीक से होने पर वासनाओं का विनाश होता है। ३. इस मन के वासनाशून्य होने पर (हर्यतस्य) = अत्यन्त कान्त-कमनीय (मदस्य) = उल्लासजनक (अन्धसः) = सोम का (पीत्वा) = पान करके इस (कृते चमसे) = संस्कृत शरीर में (यत्) = जो (हरी) = ज्ञानेन्द्रिय व कर्मेन्द्रियरूप अश्व हैं, उनको (प्रमर्मृजत्) = अच्छी प्रकार शुद्ध कर डालता है। सुरक्षित सोम इन्द्रियों की शक्ति को दीप्त करनेवाला होता है।

    भावार्थ

    हमारे जीवन-यज्ञ में विज्ञान व भक्ति का समन्वय हो। हम खूब चबाकर भोजन करते हुए व्याधिशून्य बनें, प्राणायाम द्वारा निर्मल मनवाले [आधिशून्य] बनें। सोमपान द्वारा, संस्कृत शरीर में दीस इन्द्रियोंवाले हों।

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    भाषार्थ

    (इव) जैसे (हरिणी) मनोहारी (स्रुवा=स्रुवौ) दो स्रुव घृताहुति के लिए (वि पेततुः) अलग-अलग परन्तु एक साथ यज्ञाग्नि की ओर प्रवृत्त होते हैं, वैसे (दविध्वतः) पापरूपी शत्रुओं को स्वयं कम्पा देनेवाले (यस्य) जिस उपासक के (हरिणी) मनोहारी (शिप्रे) दो हनु अर्थात् जबाड़े (वाजाय) प्रभु के शक्ति पाने के लिए, प्रभु के गीत गाते हुए (विपेततुः) अलग-अलग परन्तु एकसाथ प्रवृत्त होते हैं। और (यत्कृते) जिस उपासक के लिए (चमसे) उसके हृदय-चमस में स्थित (मदस्य) प्रसन्नतादायक और (हर्यतस्य) कमनीय (अन्धसः) भक्तिरस को (पीत्वा) पीकर परमेश्वर, उपासक के (हरी) ज्ञानेन्द्रिय और कर्मेन्द्रियरूपी अश्वों को (प्र मर्मृजत्) खूब मांज देता है, स्वच्छ कर देता है।

    टिप्पणी

    [अगले मन्त्र में अन्वय।]

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    विषय

    राजा के कर्तव्य।

    भावार्थ

    (यस्य) जिसके (शिप्रे) शीघ्र गतिशील (हरिणी) दोनों बाजू की सेनाएं (वाजाय) संग्राम कार्य के लिये (स्त्रुवा इव) स्रवणशील दो धाराओं के समान या दो हाथों के समान या यज्ञ से स्त्रुवों के समान (विपेततुः) विशेष रूपसे या विविध प्रकारों से गति करती हैं और (हरिणी) वे दोनों सेनाएं (वाजाय दविध्वतः) संग्राम के लिये ही आगे बढ़ती हैं। (यत्) जब (कृते चमसे) अन्नादि से सेजाय हुए पात्र या थाली में (मदस्य) तृझिकारी (हर्यत:) मनोहर (अन्धसः) अन्न रस को (पीत्वा) पान करके जिस प्रकार पुरुष अपने (हरी मर्मृजत्) अपनी आंखों को स्वच्छ करता या आगे बढने वाले बाहुओं पर हाथ फेरता है और उसी प्रकार वह इन्द्र, सेनापति (मदस्य) तृप्तिकारी (हर्यतः) कान्तिमान् तेजोमय (अन्धसः) राष्ट्र को भोग कर (हरी मर्मृजत्) अपने उत्साह और पराक्रम को बलवान् करता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वरुः सर्वहरिर्वाऐन्द्र ऋषिः। हरिस्तुतिर्देवता। जगत्यः। पञ्चर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Self-integration

    Meaning

    His golden eyes, sun and moon, move and radiate light as two ladles of ghrta feed and exalt the fire, and the heaven and earth like his golden jaws move for the food, energy and advancement of life. In his created world, having tasted of the delicious and inspiring food and drink, man refines and exalts his will and understanding.

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    Translation

    It is this soul the beautiful chin of which moves like ladle (which drops ghee in the Yajna fire). This for the sake of strength or vigour destroys diseasing and reducing tendencies. When the dish is arranged this soul drinking the palatable delight-giving drink and food makes pure its strength and energy.

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    Translation

    It is this soul the beautiful chin of which moves like ladle (which drops ghee in the Yajna fire). This for the sake of strength or vigor destroys diseasing and reducing tendencies. When the dish is arranged this soul drinking the palatable delight-giving drink and food makes pure its strength and energy.

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    Translation

    The king or commander, whose two wings of the army fall speedily on his enemy, like the ladle in the sacrifice, and whose fast-moving forces dash against the foe in the war, enhances his power and valour after enjoying the satisfying, charming fortunes of the nation, just as a man comfortably rubs his eyes with his hands, after enjoying the charming sweet dish well-served on the plate.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ४−(स्रुवा) स्रुवौ। चमसौ (इव) यथा (यस्य) सेनापतेः (हरिणी) हृञ् स्वीकारे-इनच्, उ०२।४६। स्वीकरणीये (विपेततुः) लङर्थे लिट्। विविधं पततश्चलतः (शिप्रे) अथर्व-२०।४।१। शिञ् निशाने छेदने-रक् पुक्च, टाप्। शिप्रे हनू नासिके वा-निरु०६।१७। हनू (वाजाय) अन्नाय (हरिणी) हृञ् नाशने-इनच्। सुखनाशिके अविद्याकुनीती (दविध्वतः) दाधर्तिदर्धर्ति०। पा०७।४।६। ध्वृ कौटिल्ये यङ्लुकि लट् द्विवचनान्तः। ध्वरति वधकर्मा-निघ०२।१६। सर्वथा विनश्यतः (प्र) प्रकर्षेण (यत्) यत् (कृते) संस्कृते (चमसे) भोजने (मर्मृजत्) मृजू शुद्धौ-लट्। मार्ष्टि। शोधयति (हरी) दुःखहर्तारौ बलपराक्रमौ (पीत्वा) पानं कृत्वा (मदस्य) आनन्दकस्य (हर्यतस्य) कमनीयस्य (अन्धसः) अन्नस्य॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    পুরুষার্থকরণোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (বাজায়) অন্নের জন্য (যস্য) যে [সেনাপতি] এর (হরিণী) স্বীকারযোগ্য (শিপ্রে) দুই চোয়াল (স্রুবা ইব) দুই চামচের ন্যায় (বিপেততুঃ) বিবিধ প্রকারে চলে, [তাঁর রাজ্যে] (হরিণী) সুখ হরণকারী [অবিদ্যা ও কুনীতি] উভয় (দবিধ্বতঃ) সর্বদা বিনষ্ট হয়/হয়ে যায়। (যৎ) কারন সে (চমসে কৃতে) ভোজন সংস্কৃত/পরিপক্ব হলে (মদস্য) আনন্দদায়ক, (হর্যতস্য) কামনাযোগ্য (অন্ধসঃ) অন্ন (পীত্বা) পান করে (হরী) বল ও পরাক্রম উভয়কে (প্র) উত্তমরূপে (মর্মৃজৎ) শুদ্ধ করে ॥৪॥

    भावार्थ

    যেমন অন্ন খেলে ক্ষুধা নিবারণ হয় এবং স্রুবা দ্বারা অগ্নিতে ঘী প্রদান করলে ধোঁয়া নষ্ট হয়ে যায়, তেমনই যে রাজা বিদ্যা ও সুনীতির বিস্তার করে অবিদ্যা ও কুনীতি দূর করেন, সে অন্ন ভোজন দ্বারা বল ও পরাক্রম বৃদ্ধি করে ॥৪॥

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    भाषार्थ

    (ইব) যেমন (হরিণী) মনোহারী (স্রুবা=স্রুবৌ) দুই স্রুব ঘৃতাহুতির জন্য (বি পেততুঃ) আলাদা-আলাদা/পৃথক-পৃথক কিন্তু একসাথে যজ্ঞাগ্নির দিকে প্রবৃত্ত হয়, তেমনই (দবিধ্বতঃ) পাপরূপী শত্রুদের স্বয়ং কম্পিতকারী (যস্য) যে উপাসকের (হরিণী) মনোহারী (শিপ্রে) দুই হনু অর্থাৎ চোয়াল (বাজায়) প্রভুর শক্তি প্রাপ্তির জন্য, প্রভুর গান/স্তুতি করে (বিপেততুঃ) পৃথক-পৃথক কিন্তু একসাথে প্রবৃত্ত হয়। এবং (যৎকৃতে) যে উপাসকের জন্য (চমসে) তাঁর হৃদয়-চমস-এর মধ্যে স্থিত (মদস্য) প্রসন্নতাদায়ক এবং (হর্যতস্য) কমনীয় (অন্ধসঃ) ভক্তিরস (পীত্বা) পান করে পরমেশ্বর, উপাসকের (হরী) জ্ঞানেন্দ্রিয় এবং কর্মেন্দ্রিয়রূপী অশ্বকে (প্র মর্মৃজৎ) অনেক স্বচ্ছ করে দেয়।

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