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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 5 के मन्त्र

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 5/ मन्त्र 1
    ऋषि: - इरिम्बिठिः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - सूक्त-५
    44

    अ॒यमु॑ त्वा विचर्षणे॒ जनी॑रिवा॒भि संवृ॑तः। प्र सोम॑ इन्द्र सर्पतु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒यम् । ऊं॒ इति॑ । त्वा॒ । वि॒ऽच॒र्ष॒णे॒ । जनी॑:ऽइव । अ॒भि । सम्ऽवृ॑त: ॥ प्र । सोम॑: । इ॒न्द्र॒ । स॒र्प॒तु॒ ॥५.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अयमु त्वा विचर्षणे जनीरिवाभि संवृतः। प्र सोम इन्द्र सर्पतु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अयम् । ऊं इति । त्वा । विऽचर्षणे । जनी:ऽइव । अभि । सम्ऽवृत: ॥ प्र । सोम: । इन्द्र । सर्पतु ॥५.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 5; मन्त्र » 1
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    हिन्दी (2)

    विषय

    सोम रस के सेवन का उपदेश।

    पदार्थ

    (विचर्षणे) हे दूरदर्शी (इन्द्र) इन्द्र ! [परम ऐश्वर्यवाले पुरुष] (अयम् उ) यही (अभि) सब प्रकार (संवृतः) यथाविधि स्वीकार किया हुआ (सोमः) सोम [महौषधियों का रस], (जनीः इव) कुलस्त्रियों के समान, (त्वा) तुझको (प्र) अच्छे प्रकार (सर्पतु) प्राप्त होवे ॥१॥

    भावार्थ

    जैसे कुलस्त्रियाँ अपने सन्तान आदि का हित करती हैं, वैसे ही सद्वैद्यों का सिद्ध किया हुआ महौषधियों का रस सुखदायक होता है ॥१॥

    टिप्पणी

    मन्त्र १-७ ऋग्वेद में है-८।१७।६-१३ ॥ १−(अयम्) (उ) एव (त्वा) त्वाम् (विचर्षणे) कृषेरादेश्च चः। उ० २।१०४। वि+कृष विलेखने-अनि, कस्य चः। विचर्षणिः पश्यतिकर्मा-निघ० ३।११। हे विविधं द्रष्टः। दूरदर्शिन् (जनीः) जनयः। कुलस्त्रियः (इव) यथा (अभि) अभितः। सर्वप्रकारेण (संवृतः) सम्यक् स्वीकृतः (प्र) प्रकर्षेण (सोमः) महौषधिरसः (इन्द्र) हे परमैश्वर्यवन् पुरुष (सर्पतु) प्राप्नोतु ॥

    Vishay

    Padartha

    Bhavartha

    English (1)

    Subject

    Indr a Devata

    Meaning

    O lord of cosmic vision, let this soma distilled and seasoned radiate to you from sense to the spirit, inspiring, soothing and beatifying like a bride on top of her beauty and virgin grace.

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